श्री वैद्यनाथ ज्योतिर्लिंग – 9



Baidyanath Jyotirling

द्वादश ज्योतिर्लिंग स्तोत्र से श्री वैद्यनाथ ज्योतिर्लिंग का श्लोक

पूर्वोत्तरे प्रज्वलिकानिधाने
सदा वसन्तं गिरिजासमेतम्।
सुरासुराराधितपादपद्मं
श्रीवैद्यनाथं तमहं नमामि॥

अर्थ: –
जो पूर्वोत्तर दिशामें चिताभूमि (वैद्यनाथ-धाम) के भीतर
सदा ही गिरिजाके साथ वास करते हैं,
देवता और असुर जिनके चरण कमलोंकी आराधना करते हैं,
उन श्रीवैद्यनाथको मैं प्रणाम करता हूँ॥5॥


बिहार में स्थित श्री वैद्यनाथ ज्योतिर्लिंग

बारह ज्योतिर्लिंग

द्वादश ज्योतिर्लिंग स्तोत्र

यह ज्योतिर्लिंग बिहार प्रांत के सन्थाल परगने में स्थित है।

शास्त्र और लोक दोनों में उसकी बड़ी प्रसिद्धि है।

इसकी स्थापना के विषय में यह कथा कही जाती है –


श्री वैद्यनाथ ज्योतिर्लिंग की कथा

एक बार राक्षसराज रावण ने हिमालय पर जाकर भगवान्‌ शिव का दर्शन प्राप्त करने के लिए बड़ी घोर तपस्या की।

उसने एक-एक करके अपने सिर काटकर शिवलिंग पर चढ़ाना शुरू किए।

इस प्रकार उसने अपने नौ सिर वहां काटकर चढ़ा दिए।

जब वह अपना दसवाँ और अंतिम सिर काटकर चढ़ाने के लिए उद्यत हुआ तब भगवान्‌ शिव अतिप्रसन्न और संतुष्ट होकर उसके समक्ष प्रकट हो गए।

शीश काटने को उद्यत रावण का हाथ पकड़कर उन्होंने उसे ऐसा करने से रोक दिया।

उसके नौ सिर भी पहले की तरह जोड़ दिए और अत्यंत प्रसन्न होकर उससे वर मांगने को कहा।

रावण ने वर के रूप में भगवान शिव से उस शिवलिंग को अपनी राजधानी लंका में ले जाने की अनुमति मांगी।

भगवान्‌ शिव ने उसे यह वरदान तो दे दिया लेकिन एक शर्त भी उसके साथ लगा दी। उन्होंने कहा, तुम शिवलिंग ले जा सकते हो किंतु यदि रास्ते में इसे कहीं रख दोगे तो यह वहीं अचल हो जाएगा, तुम फिर इसे उठा न सकोगे।

रावण इस बात को स्वीकार कर
उस शिवलिंग को उठाकर लंका के लिए चल पड़ा।

चलते-चलते एक जगह मार्ग में उसे लघुशंका करने की आवश्यकता महसूस हुई।

वह उस शिवलिंग को एक अहीर के हाथ में थमाकर लघुशंका की निवृत्ति के लिए चल पड़ा।

उस अहीर को शिवलिंग का भार बहुत अधिक लगा और वह उसे सँभाल न सका।

विवश होकर उसने शिवलिंग को वहीं भूमि पर रख दिया।

रावण जब लौटकर आया तब बहुत प्रयत्न करने के बाद भी उस शिवलिंग को किसी प्रकार भी उठा न सका।

अंत में थककर उस पवित्र शिवलिंग पर अपने अँगूठे का निशान बनाकर उसे वहीं छोड़कर लंका को लौट गया।

तत्पश्चात ब्रह्मा, विष्णु आदि देवताओं ने वहां आकर उस शिव लिंग का पूजन किया। इस प्रकार वहां उसकी प्रतिष्ठा कर वे लोग अपने-अपने धाम को लौट गए।

यही ज्योतिर्लिंग श्रीवैद्यनाथ के नाम से जाना जाता है।

यह श्रीवैद्यनाथ-ज्योतिर्लिंग अनंत फलों को देने वाला है।

यह ग्यारह अंगुल ऊँचा है।

इसके ऊपर अँगूठे के आकार का ग़ड्डा है।

कहा जाता है कि यह वहीं निशान है जिसे रावण ने अपने अँगूठे से बनाया था।

यहां दूर-दूर से तीर्थों का जल लाकर चढ़ाने का विधान है।

रोग-मुक्ति के लिए भी इस ज्योतिर्लिंग की महिमा बहुत प्रसिद्ध है।

पुराणों में बताया गया है कि जो मनुष्य इस ज्योतिर्लिंग का दर्शन करता है, उसे अपने समस्त पापों से छुटकारा मिल जाता है।

उस पर भगवान्‌ शिव की कृपा सदा बनी रहती है।

दैहिक, दैविक, भौतिक कष्ट उसके पास भूलकर भी नहीं आते भगवान्‌ शंकर की कृपा से वह सारी बाधाओं, समस्त रोगों-शोकों से छुटकारा पा जाता है।

उसे परम शांतिदायक शिवधाम की प्राप्ति होती है।


शिवपुराण में श्री वैद्यनाथ ज्योतिर्लिंग कथा

वैद्यनाथ परमेश्वरलिंगके प्रादुर्भाव और उसकी महिमाका वर्णन – शिवपुराण से

बारह ज्योतिर्लिंग

Shiv Stotra Aarti List

शिवपुराण के कोटिरुद्रसंहिता खंड के अध्याय 27, 28 में श्री वैद्यनाथ ज्योतिर्लिंग के प्रादुर्भावकी कथा और उसकी महिमा दी गयी है।

सूतजी कहते हैं –

अब मैं वैद्यनाथेश्वर ज्योतिर्लिंगका पापहारी माहात्म्य बताऊँगा।

सुनो! राक्षसराज रावण जो बड़ा अभिमानी और अपने अहंकारको प्रकट करनेवाला था, उत्तम पर्वत कैलासपर भक्तिभावसे भगवान् शिवकी आराधना कर रहा था।

कुछ कालतक आराधना करनेपर जब महादेवजी प्रसन्न नहीं हुए, तब वह शिवकी प्रसन्नताके लिये दूसरा तप करने लगा।

पुलस्त्यकुलनन्दन श्रीमान् रावणने सिद्धिके स्थानभूत हिमालय पर्वतसे दक्षिण वृक्षोंसे भरे हुए वनमें पृथ्वीपर एक बहुत बड़ा गड्ढा खोदकर उसमें अग्निकी स्थापना की और उसके पास ही भगवान् शिवको स्थापित करके हवन आरम्भ किया।

ग्रीष्म-ऋतुमें वह पाँच अग्नियोंके बीचमें बैठता, वर्षा-ऋतुमें खुले मैदानमें चबूतरेपर सोता और शीतकालमें जलके भीतर खड़ा रहता।

इस तरह तीन प्रकारसे उसकी तपस्या चलती थी।

इस रीतिसे रावणने बहुत तप किया तो भी दुरात्माओंके लिये जिनको रिझाना कठिन है, वे परमात्मा महेश्वर उसपर प्रसन्न नहीं हुए।

तब महामनस्वी दैत्यराज रावणने अपना मस्तक काटकर शंकरजीका पूजन आरम्भ किया।

विधिपूर्वक शिवकी पूजा करके वह अपना एक-एक सिर काटता और भगवान्‌को समर्पित कर देता था।

इस तरह उसने क्रमशः अपने नौ सिर काट डाले।

जब एक ही सिर बाकी रह गया, तब भक्तवत्सल भगवान् शंकर संतुष्ट एवं प्रसन्न हो वहीं उसके सामने प्रकट हो गये।

भगवान् शिवने उसके सभी मस्तकोंको पूर्ववत् नीरोग करके उसे उसकी इच्छाके अनुसार अनुपम उत्तम बल प्रदान किया।

भगवान् शिवका कृपाप्रसाद पाकर राक्षस रावणने नतमस्तक हो हाथ जोड़कर उनसे कहा – “देवेश्वर! प्रसन्न होइये।

मैं आपको लंकामें ले चलता हूँ।

आप मेरे इस मनोरथको सफल कीजिये।

मैं आपकी शरणमें आया हूँ।”

रावणके ऐसा कहनेपर भगवान् शंकर बड़े संकटमें पड़ गये और अनमने होकर बोले – “राक्षसराज! मेरी सारगर्भित बात सुनो।

तुम मेरे इस उत्तम लिंगको भक्तिभावसे अपने घरको ले जाओ।

परंतु जब तुम इसे कहीं भूमिपर रख दोगे, तब यह वहीं सुस्थिर हो जायगा, इसमें संदेह नहीं है।

अब तुम्हारी जैसी इच्छा हो, वैसा करो।”

सूतजी कहते हैं – ब्राह्मणो! भगवान् शंकरके ऐसा कहनेपर राक्षसराज रावण “बहुत अच्छा” कह वह शिवलिंग साथ लेकर अपने घरकी ओर चला।

परंतु मार्गमें भगवान् शिवकी मायासे उसे मूत्रोत्सर्गकी इच्छा हुई।

पुलस्त्यनन्दन रावण सामर्थ्यशाली होनेपर भी मूत्रके वेगको रोक न सका।

इसी समय वहाँ आस-पास एक ग्वालेको देखकर उसने प्रार्थनापूर्वक वह शिवलिंग उसके हाथमें थमा दिया और स्वयं मूत्रत्यागके लिये बैठ गया।

एक मुहूर्त बीतते-बीतते वह ग्वाला उस शिवलिंगके भारसे अत्यन्त पीड़ित हो व्याकुल हो गया, तब उसने उसे पृथ्वीपर रख दिया।

फिर तो वह हीरकमय शिवलिंग वहीं स्थित हो गया।

वह दर्शन करनेमात्रसे सम्पूर्ण अभीष्टोंको देनेवाला और पापराशिको हर लेनेवाला है।

मुने! वही शिवलिंग तीनों लोकोंमें वैद्यनाथेश्वरके नामसे प्रसिद्ध हुआ, जो सत्पुरुषोंको भोग और मोक्ष देनेवाला है।

यह दिव्य उत्तम एवं श्रेष्ठ ज्योतिर्लिंग दर्शन और पूजनसे भी समस्त पापोंको हर लेता है और मोक्षकी प्राप्ति कराता है।

वह शिवलिंग जब सम्पूर्ण लोकोंके हितके लिये वहीं स्थित हो गया, तब रावण भगवान् शिवका परम उत्तम वर पाकर अपने घरको चला गया।

वहाँ जाकर उस महान् असुरने बड़े हर्षके साथ अपनी प्रिया मन्दोदरीको सारी बातें कह सुनायीं।

इन्द्र आदि सम्पूर्ण देवताओं और निर्मल मुनियोंने जब यह समाचार सुना, तब वे परस्पर सलाह करके वहाँ आये।

उन सबका मन भगवान् शिवमें लगा हुआ था।

उन सब देवताओंने उस समय वहाँ बड़ी प्रसन्नताके साथ शिवका विशेष पूजन किया।

वहाँ भगवान् शंकरका प्रत्यक्ष दर्शन करके देवताओंने उस शिव-लिंगकी विधिवत् स्थापना की और उसका वैद्यनाथ नाम रखकर उसकी वन्दना और स्तवन करके वे स्वर्गलोकको चले गये।

ऋषियोंने पूछा – सूतजी! जब वह शिवलिंग वहीं स्थित हो गया तथा रावण अपने घरको चला गया, तब वहाँ कौन-सी घटना घटित हुई – यह आप बताइये।

सूतजीने कहा – ब्राह्मणो! भगवान् शिवका परम उत्तम वर पाकर महान् असुर रावण अपने घरको चला गया।

वहाँ उसने अपनी प्रियासे सब बातें कहीं और वह अत्यन्त आनन्दका अनुभव करने लगा।

इधर इस समाचारको सुनकर देवता घबरा गये कि पता नहीं यह देवद्रोही महादुष्ट रावण भगवान् शिवके वरदानसे बल पाकर क्या करेगा।

उन्होंने नारदजीको भेजा।

नारदजीने जाकर रावणसे कहा – “तुम कैलास पर्वतको उठाओ, तब पता लगेगा कि शिवजीका दिया हुआ वरदान कहाँतक सफल हुआ।”

रावणको यह बात जँच गयी।

उसने जाकर कैलासको उखाड़ लिया।

इससे सारा कैलास हिल उठा।

तब गिरिजाके कहनेसे महादेवजीने रावणको घमंडी समझकर इस प्रकार शाप दिया।

महादेवजी बोले – रे रे दुष्ट भक्त दुर्बुद्धि रावण! तू अपने बलपर इतना घमंड न कर।

तेरी इन भुजाओंका घमंड चूर करनेवाला वीर पुरुष शीघ्र ही इस जगत्‌में अवतीर्ण होगा।

सूतजी कहते हैं – इस प्रकार वहाँ जो घटना हुई उसे नारदजीने सुना।

रावण भी प्रसन्न चित्त हो जैसे आया था, उसी तरह अपने घरको लौट गया।

इस प्रकार मैंने वैद्यनाथेश्वरका माहात्म्य बताया है।

इसे सुननेवाले मनुष्योंका पाप भस्म हो जाता है।


बारह ज्योतिर्लिंग की कथाएं



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