सुन्दरकाण्ड अर्थ सहित – 02



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माता सीता अंगूठी को देखती है

चौपाई

तब देखी मुद्रिका मनोहर।
राम नाम अंकित अति सुंदर॥
चकित चितव मुदरी पहिचानी।
हरष बिषाद हृदयँ अकुलानी॥

फिर सीताजीने उस मुद्रिकाको (अँगूठी को) देखा
तो वह सुन्दर मुद्रिका रामचन्द्रजीके मनोहर नामसे अंकित हो रही थी,
अर्थात उसपर श्री राम का नाम खुदा हुआ था॥

उस अँगूठीको सीताजी चकित होकर देखने लगी।
आखिर उस मुद्रिकाको पहचान कर हृदय में अत्यंत हर्ष और
विषादको प्राप्त हुई और बहुत अकुलाई॥

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सीताजी अंगूठी कहाँ से आयी यह सोचती है

जीति को सकइ अजय रघुराई।
माया तें असि रचि नहिं जाई॥
सीता मन बिचार कर नाना।
मधुर बचन बोलेउ हनुमाना॥

यह क्या हुआ? यह रामचन्द्रजीकी नामांकित मुद्रिका यहाँ कैसे आयी?
या तो उन्हें जितनेसे यह मुद्रिका यहाँ आ सकती है,
किंतु उन अजेय रामचन्द्रजीको जीत सके ऐसा तो जगतमे कौन है?
अर्थात उनको जीतनेवाला जगतमे है ही नहीं।

और जो कहे की यह राक्षसोने मायासे बनाई है सो यह भी नहीं हो सकता।
क्योंकि मायासे ऐसी बन नहीं सकती॥

इस प्रकार सीताजी अपने मनमे अनेक प्रकार से विचार कर रही थी।
इतनेमें ऊपरसे हनुमानजी ने मधुर वचन कहे॥

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हनुमानजी पेड़ पर से ही श्री राम की कथा सुनाते है

रामचंद्र गुन बरनैं लागा।
सुनतहिं सीता कर दुख भागा॥
लागीं सुनैं श्रवन मन लाई।
आदिहु तें सब कथा सुनाई॥

हनुमानजी रामचन्द्रजीके गुनोका वर्णन करने लगे।
उनको सुनतेही सीताजीका सब दुःख दूर हो गया॥

और वह मन और कान लगा कर सुनने लगी।
हनुमानजीने भी आरंभसे लेकर अब तक की कथा सीताजी को सुनाई॥

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माता सीता और हनुमानजी का संवाद

सीताजी हनुमान को सामने आने के लिए कहती है

श्रवनामृत जेहिं कथा सुहाई।
कही सो प्रगट होति किन भाई॥
तब हनुमंत निकट चलि गयऊ।
फिरि बैठीं मन बिसमय भयऊ॥

हनुमानजीके मुखसे रामचन्द्रजीका चरितामृत सुनकर सीताजीने कहा कि
जिसने मुझको यह कानोंको अमृतसी मधुर लगनेवाली कथा सुनाई है,
वह मेरे सामने आकर प्रकट क्यों नहीं होता?

सीताजीके ये वचन सुनकर हनुमानजी चलकर उनके समीप गए
तो हनुमानजी का वानर रूप देखकर
सीताजीके मनमे बड़ा विस्मय हुआ (आश्र्चर्य हुआ) की यह क्या!
सो कपट समझकर सीता जी मुख फेरकर बैठ गई
(हनुमानजी को पीठ देकर बैठ गयी)॥

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हनुमानजी, माता सीता को अपने बारें में और अंगूठी के बारें में बताते है

राम दूत मैं मातु जानकी।
सत्य सपथ करुनानिधान की॥
यह मुद्रिका मातु मैं आनी।
दीन्हि राम तुम्ह कहँ सहिदानी॥

तब हनुमानजीने सीताजीसे कहा की हे माता!
मै रामचन्द्रजीका दूत हूँ।
मै रामचन्द्रजीकी शपथ खाकर कहता हूँ की इसमें फर्क नहीं है॥

और रामचन्द्रजीने आपके लिए जो निशानी दी थी,
वह यह मुद्रिका (अँगूठी) मैंने लाकर आपको दी है॥

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सीताजी हनुमानजी से पूछती है की श्री राम उनसे कैसे मिले

नर बानरहि संग कहु कैसें।
कही कथा भइ संगति जैसें॥

सीताजी ने पूछा की हे हनुमान!
नर और वानर का संग कहो कैसे हुआ?

तब हनुमान जी ने जैसे संग हुआ था,
वह सब कथा कही॥
(तब उनके परस्परमे जैसे प्रीति हुई थी,
वे सब समाचार हनुमानजी ने सिताजीसे कहे)॥

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दोहा – 13

सीताजी को विश्वास हो जाता है की हनुमानजी श्री राम के भक्त है

कपि के बचन सप्रेम सुनि उपजा मन बिस्वास
जाना मन क्रम बचन यह कृपासिंधु कर दास ॥13॥

हनुमानजीके प्रेमसहित वचन सुनकर
सीताजीके मनमे पक्का भरोसा आ गया और
उन्होंने जान लिया की यह मन, वचन और
कायासे कृपासिंधु श्रीरामजी के दास है॥


श्री राम, जय राम, जय जय राम

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माता सीता हनुमानजी को धन्यवाद देती है

हरिजन जानि प्रीति अति गाढ़ी।
सजल नयन पुलकावलि बाढ़ी॥
बूड़त बिरह जलधि हनुमाना।
भयहु तात मो कहुँ जलजाना॥

हनुमानजी को हरिभक्त जानकर सीताजीके मन में अत्यंत प्रीति बढ़ी,
शरीर अत्यंत पुलकित हो गया और नेत्रोमे जल भर आया॥

सीताजीने हनुमान से कहा की हे हनुमान!
मै विरहरूप समुद्रमें डूब रही थी, सो हे तात!
मुझको तिरानेके लिए तुम नौका हुए हो॥

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सीताजी प्रभु श्री राम के बारें में पूछती है

अब कहु कुसल जाउँ बलिहारी।
अनुज सहित सुख भवन खरारी॥
कोमलचित कृपाल रघुराई।
कपि केहि हेतु धरी निठुराई॥

अब तुम मुझको बताओ कि
सुखधाम, खर के शत्रु श्रीराम लक्ष्मणसहित कुशल तो है॥

हे हनुमान! रामचन्द्रजी तो बड़े दयालु और बड़े कोमलचित्त है।
फिर यह कठोरता आपने क्यों धारण कि है? ॥

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भगवान राम की कृपा से भक्त सदा सुखी

सहज बानि सेवक सुखदायक।
कबहुँक सुरति करत रघुनायक॥
कबहुँ नयन मम सीतल ताता।
होइहहिं निरखि स्याम मृदु गाता॥

यह तो उनका सहज स्वभावही है कि जो उनकी सेवा करता है
उनको वे सदा सुख देते रहते है॥

सो हे हनुमान! वे रामचन्द्रजी कभी मुझको भी याद करते है?॥
कभी मेरे भी नेत्र रामचन्द्रजीके कोमल श्याम शरिरको देखकर शीतल होंगे॥

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सीताजी का दुःख

बचनु न आव नयन भरे बारी।
अहह नाथ हौं निपट बिसारी॥
देखि परम बिरहाकुल सीता।
बोला कपि मृदु बचन बिनीता॥

सीताजीकी उस समय यह दशा हो गयी कि
मुखसे वचन निकलना बंद हो गया और नेत्रोमें जल भर आया।
इस दशा में सीताजीने प्रार्थना की, कि हे नाथ!
मुझको आप बिल्कुल ही भूल गए॥

सीताजीको विरह्से अत्यंत व्याकुल देखकर
हनुमानजी बड़े विनयके साथ कोमल वचन बोले॥

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हनुमानजी श्री राम के बारें में बताते है

मातु कुसल प्रभु अनुज समेता।
तव दुख दुखी सुकृपा निकेता॥
जनि जननी मानह जियँ ऊना।
तुम्ह ते प्रेमु राम कें दूना॥

हे माता! लक्ष्मणसहित रामचन्द्रजी सब प्रकार से कुशल है,
केवल एक आपके दुःख से तो वे कृपानिधान अवश्य दुखी है।
बाकी उनको कुछ भी दुःख नहीं है॥

हे माता! आप अपने मनको उन मत मानो
(अर्थात मन मे ग्लानि न मानिए, रंज मत करो,
मन छोटा करके दुःख मत कीजिए),
क्योंकि रामचन्द्रजीका प्यार आपकी ओर आपसे भी दुगुना है॥

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दोहा – 14

बजरंगबली श्री राम का संदेशा सुनाते है

रघुपति कर संदेसु अब सुनु जननी धरि धीर।
अस कहि कपि गदगद भयउ भरे बिलोचन नीर ॥14॥

हे माता! अब मै आपको जो रामचन्द्रजीका संदेशा सुनाता हूं,
सो आप धीरज धारण करके उसे सुनो,
ऐसे कह्तेही हनुमानजी प्रेम से गदगद हो गए और
नेत्रोमे जल भर आया ॥14॥


श्री राम, जय राम, जय जय राम

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प्रभु श्री रामचन्द्रजी का संदेशा

श्री राम का माता सीता के लिए संदेशा

कहेउ राम बियोग तव सीता।
मो कहुँ सकल भए बिपरीता॥
नव तरु किसलय मनहुँ कृसानू।
कालनिसा सम निसि ससि भानू॥

हनुमानजी ने सीताजी से कहा कि हे माता!
रामचन्द्रजी ने जो सन्देश भेजा है वह सुनो।

रामचन्द्रजी ने कहा है कि
तुम्हारे वियोगमें मेरे लिए सभी बाते विपरीत हो गयी है॥

वृक्षो के नए-नए कोमल पत्ते मानो अग्नि के समान हो गए है।
रात्रि मानो कालरात्रि बन गयी है।
चन्द्रमा सूरजके समान दिख पड़ता है॥

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प्रभु राम का सीताजी के लिए संदेशा

कुबलय बिपिन कुंत बन सरिसा।
बारिद तपत तेल जनु बरिसा॥
जे हित रहे करत तेइ पीरा।
उरग स्वास सम त्रिबिध समीरा॥

कमलों के वन मानो भालोके समूहके समान हो गए है।
मेघकी वृष्टि मानो तापे हुए तेलके समान लगती है,
(मेघ मानो खौलता हुआ तेल बरसाते है)॥

मै जिस वृक्षके तले बैठता हूं, वही वृक्ष मुझको पीड़ा देता है और
शीतल, सुगंध, मंद पवन मुझको साँपके श्वासके समान प्रतीत होता है॥

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श्री रामचन्द्रजी अपनी स्थिति बताते है

कहेहू तें कछु दुख घटि होई।
काहि कहौं यह जान न कोई॥
तत्व प्रेम कर मम अरु तोरा।
जानत प्रिया एकु मनु मोरा॥

और अधिक क्या कहूं?
क्योंकि कहनेसे कोई दुःख घट थोडाही जाता है?
परन्तु यह बात किसको कहूं! कोई नहीं जानता॥

मेरे और आपके प्रेमके तत्वको कौन जानता है! कोई नहीं जानता।
केवल एक मेरा मन तो उसको भलेही पहचानता है॥

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सीताजी संदेशा सुनकर भगवान् राम को स्मरण करती है

सो मनु सदा रहत तोहि पाहीं।
जानु प्रीति रसु एतनेहि माहीं॥
प्रभु संदेसु सुनत बैदेही।
मगन प्रेम तन सुधि नहिं तेही॥

पर वह मन सदा आपके पास रहता है।
इतने ही में जान लेना कि राम किस कदर प्रेमके वश है॥

रामचन्द्रजीके सन्देश सुनतेही सीताजी ऐसी प्रेममे मग्न हो गयी
कि उन्हें अपने शरीरकी भी सुध न रही॥

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हनुमानजी और माता सीता का संवाद

हनुमानजी माता सीता को धैर्य धरने के लिए कहते है

कह कपि हृदयँ धीर धरु माता।
सुमिरु राम सेवक सुखदाता॥
उर आनहु ताई।रघुपति प्रभु
सुनि मम बचन तजहु कदराई॥

उस समय हनुमानजीने सीताजीसे कहा कि हे माता!
आप सेवकजनोंके सुख देनेवाले
श्रीराम को याद करके मनमे धीरज धरो॥

श्रीरामचन्द्रजीकी प्रभुताको हृदयमें मानकर
मेरे वचनोको सुनकर विकलताको तज दो (छोड़ दो)॥

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दोहा – 15

भगवान् राम के बाणों से राक्षसों का संहार हो जायेगा

निसिचर निकर पतंग सम रघुपति बान कृसानु।
जननी हृदयँ धीर धरु जरे निसाचर जानु ॥15॥

हे माता! रामचन्द्रजीके बानरूप अग्निके आगे
इस राक्षस समूहको आप पतंगके समान जानो और
इन सब राक्षसोको जले हुए जानकर मनमे धीरज धरो ॥15॥


श्री राम, जय राम, जय जय राम

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अंधकार जैसे राक्षस और सूर्य जैसे श्री राम के बाण

जौं रघुबीर होति सुधि पाई।
करते नहिं बिलंबु रघुराई॥
रामबान रबि उएँ जानकी।
तम बरूथ कहँ जातुधान की॥1॥

हे माता ! जो रामचन्द्रजीको आपकी खबर मिल जाती
तो प्रभु कदापि विलम्ब नहीं करते॥

क्योंकि रामचन्द्रजी के बानरूप सूर्यके उदय होनेपर
राक्षसो की सेना रूपी अंधकार कहाँ रह सकता है?॥

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हनुमानजी भगवान् राम की आज्ञा के बारें में कहते है

अबहिं मातु मैं जाउँ लवाई।
प्रभु आयसु नहिं राम दोहाई॥
कछुक दिवस जननी धरु धीरा।
कपिन्ह सहित अइहहिं रघुबीरा॥2॥

हनुमानजी कहते है की हे माता!
मै आपको अभी ले जाऊं, परंतु करूं क्या?
रामचन्द्रजीकी आपको ले आनेकी आज्ञा नहीं है।
इसलिए मै कुछ कर नहीं सकता।
यह बात मै रामचन्द्रजीकी शपथ खाकर कहता हूँ॥

इसलिए हे माता! आप कुछ दिन धीरज धरो।
रामचन्द्रजी वानरोंकें साथ यहाँ आयेंगे ॥

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हनुमानजी का विशाल स्वरुप

हनुमानजी का छोटा रूप देखकर माता सीता को वानर सेना पर शंका

निसिचर मारि तोहि लै जैहहिं।
तिहुँ पुर नारदादि जसु गैहहिं॥
हैं सुत कपि सब तुम्हहि समाना।
जातुधान अति भट बलवाना॥3॥

और राक्षसोंको मारकर आपको ले जाएँगे।
तब रामचन्द्रजीका यह सुयश तीनो लोकोमें नारदादि मुनि गाएँगे॥

हनुमानजी की यह बात सुनकर सीताजी ने कहा की हे पुत्र!
सभी वानर तो तुम्हारे ही समान (नन्हे-नन्हे से) होगे और
राक्षस बड़े योद्धा और बलवान है।
फिर यह बात कैसे बनेगी? ॥

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हनुमानजी सीताजी को अपना विशाल स्वरुप दिखाते है

मोरें हृदय परम संदेहा।
सुनि कपि प्रगट कीन्ह निज देहा॥
कनक भूधराकार सरीरा।
समर भयंकर अतिबल बीरा॥4॥

इसका मेरे मनमे बड़ा संदेह है।
(कि तुम जैसे बंदर राक्षसो को कैसे जीतेंगे!)।

सीताजीका यह वचन सुनकर हनुमानजीने अपना शरीर प्रकट किया॥

हनुमानजी का वह विराट शरीर
सुवर्ण के पर्वत के समान विशाल ,
युद्धके बीच बड़ा विकराल,
रणके बीच बड़ा धीरजवाला,
युद्ध मे शत्रुओ के हृदय मे भय उत्पन्न करने वाला,
अत्यंत बलवान् और वीर था ॥

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बजरंगबली का विशाल रूप देखकर सीताजी को वानर सेना पर विश्वास

सीता मन भरोस तब भयऊ।
पुनि लघु रूप पवनसुत लयऊ॥5॥

हनुमानजीके उस शरीरको देखकर
सीताजीके मनमें पक्का भरोसा आ गया।
तब हनुमानजी ने अपना छोटा स्वरूप धर लिया॥

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दोहा – 16

प्रभु राम की कृपा से सब कुछ संभव

सुनु माता साखामृग नहिं बल बुद्धि बिसाल।
प्रभु प्रताप तें गरुड़हि खाइ परम लघु ब्याल॥16॥

हनुमानजीने कहा कि हे माता! सुनो,
वानरोंमे कोई विशाल बुद्धि का बल नहीं है।
परंतु प्रभुका प्रताप ऐसा है की उसके बलसे
छोटासा सांप गरूडको खा जाता है
(अत्यंत निर्बल भी महान् बलवान् को मार सकता है)॥16॥


श्री राम, जय राम, जय जय राम

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माता सीता का हनुमानजी को आशीर्वाद

मन संतोष सुनत कपि बानी।
भगति प्रताप तेज बल सानी॥
आसिष दीन्हि रामप्रिय जाना।
होहु तात बल सील निधाना॥1॥

भक्ति, प्रताप, तेज और बलसे मिली हुई हनुमानजी की वाणी सुनकर
सीताजीके मनमें बड़ा संतोष हुआ॥

फिर सीताजीने हनुमान को
श्री राम का प्रिय जानकर आशीर्वाद दिया कि
हे तात! तुम बल और शील के निधान होओ॥

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हनुमानजी – अजर, अमर और गुणों के भण्डार

अजर अमर गुननिधि सुत होहू।
करहुँ बहुत रघुनायक छोहू॥
करहुँ कृपा प्रभु अस सुनि काना।
निर्भर प्रेम मगन हनुमाना॥2॥

हे पुत्र! तुम अजर (जरारहित – बुढ़ापे से रहित),
अमर (मरणरहित) और गुणोंका भण्डार हो और
रामचन्द्रजी तुमपर सदा कृपा करें॥

प्रभु रामचन्द्रजी कृपा करेंगे, ऐसे वचन सुनकर
हनुमानजी प्रेमानन्दमें अत्यंत मग्न हुए॥

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हनुमानजी माता सीता को प्रणाम करते है

बार बार नाएसि पद सीसा।
बोला बचन जोरि कर कीसा॥
अब कृतकृत्य भयउँ मैं माता।
आसिष तव अमोघ बिख्याता॥3॥

और हनुमानजी ने वारंवार सीताजीके चरणोंमें शीश नवाकर,
हाथ जोड़कर, यह वचन बोले॥

हे माता! अब मै कृतार्थ हुआ हूँ,
क्योंकि आपका आशीर्वाद सफल ही होता है,
यह बात जगत् प्रसिद्ध है॥

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अशोकवन के फल और राक्षसों का संहार

हनुमानजी अशोकवन में लगे फलों को देखते है

सुनहु मातु मोहि अतिसय भूखा।
लागि देखि सुंदर फल रूखा॥
सुनु सुत करहिं बिपिन रखवारी।
परम सुभट रजनीचर भारी॥4॥

हे माता! सुनो, वृक्षोंके सुन्दर फल लगे देखकर मुझे अत्यंत भूख लग गयी है,
सो मुझे आज्ञा दो॥

तब सीताजीने कहा कि हे पुत्र! सुनो,
इस वनकी बड़े बड़े भारी योद्धा राक्षस रक्षा करते है॥

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हनुमानजी सीताजी से आज्ञा मांगते है

तिन्ह कर भय माता मोहि नाहीं।
जौं तुम्ह सुख मानहु मन माहीं॥5॥

तब हनुमानजी ने कहा कि हे माता !
जो आप मनमे सुख माने (प्रसन्न होकर आज्ञा दें),
तो मुझको उनका कुछ भय नहीं है॥

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दोहा – 17

प्रभु श्री राम के चरणों में मन रखकर कार्य करें

देखि बुद्धि बल निपुन कपि कहेउ जानकीं जाहु।
रघुपति चरन हृदयँ धरि तात मधुर फल खाहु॥17॥

तुलसीदासजी कहते है कि
हनुमानजीका विलक्षण बुद्धिबल देखकर
सीताजीने कहा कि हे पुत्र !
जाओ, रामचन्द्रजी के चरणों को हृदयमे रख कर मधुर मधुर फल खाओ ॥17॥


श्री राम, जय राम, जय जय राम

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हनुमानजी फल खाते है और कुछ राक्षसों का संहार करते है

चलेउ नाइ सिरु पैठेउ बागा।
फल खाएसि तरु तोरैं लागा॥
रहे तहाँ बहु भट रखवारे।
कछु मारेसि कछु जाइ पुकारे॥1॥

सीताजी के वचन सुनकर उनको प्रणाम करके
हनुमानजी बाग के अन्दर घुस गए।
फल फल तो सब खा गए और वृक्षोंको तोड़ मरोड़ दिया॥

जो वहां रक्षाके के लिए राक्षस रहते थे
उनमे से कुछ को मार डाला और
कुछ ने जाकर रावण से पुकार की
(रावण के पास गए और कहा)॥

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राक्षस रावण को हनुमानजी के बारे में बताते है

नाथ एक आवा कपि भारी।
तेहिं असोक बाटिका उजारी॥
खाएसि फल अरु बिटप उपारे।
रच्छक मर्दि मर्दि महि डारे॥2॥

कि हे नाथ! एक बड़ा भारी वानर आया है ।
उसने तमाम अशोकवनका सत्यानाश कर दिया है॥

उसने फल फल तो सारे खा लिए है, और वृक्षोंको उखड दिया है।
और रखवारे राक्षसोंको पटक पटक कर मार गिराया है,
उनको मसल-मसलकर जमीन पर डाल दिया है॥

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रावण और राक्षसों को भेजता है

सुनि रावन पठए भट नाना।
तिन्हहि देखि गर्जेउ हनुमाना॥
सब रजनीचर कपि संघारे।
गए पुकारत कछु अधमारे॥3॥

यह बात सुनकर रावण ने बहुत से राक्षस योद्धा भेजे।
उनको देखकर युद्धके उत्साहसे हनुमानजीने भारी गर्जना की॥

हनुमानजीने उन तमाम राक्षसोंको मार डाला।
जो कुछ अधमरे रह गए थे,
वे वहा से पुकारते हुए भागकर गए॥

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अक्षयकुमार का प्रसंग

रावण अक्षय कुमार को भेजता है

पुनि पठयउ तेहिं अच्छकुमारा।
चला संग लै सुभट अपारा॥
आवत देखि बिटप गहि तर्जा।
ताहि निपाति महाधुनि गर्जा॥4॥

फिर रावण ने मंदोदरिके पुत्र अक्षय कुमार को भेजा।
वह भी असंख्य योद्धाओं को संग लेकर गया॥

उसे आते देखतेही हनुमानजीने हाथमें वृक्ष लेकर उसपर प्रहार किया और
उसे मारकर फिर बड़े भारी शब्दसे (महाध्वनि से, जोर से) गर्जना की॥

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दोहा – 18

हनुमानजी अक्षय कुमार का संहार करते है

कछु मारेसि कछु मर्देसि कछु मिलएसि धरि धूरि।
कछु पुनि जाइ पुकारे प्रभु मर्कट बल भूरि॥18॥

हनुमानजीने कुछ राक्षसोंको मारा और कुछ को कुचल डाला और
कुछ को धूल में मिला दिया।

और जो बच गए थे वे जाकर रावण के आगे पुकारे कि
हे नाथ! वानर बड़ा बलवान है।
उसने अक्षयकुमारको मारकर सारे राक्षसोंका संहार कर डाला ॥


श्री राम, जय राम, जय जय राम

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मेघनाद और ब्रह्मास्त्र का प्रसंग

रावण मेघनाद को भेजता है

सुनि सुत बध लंकेस रिसाना।
पठएसि मेघनाद बलवाना॥
मारसि जनि सुत बाँधेसु ताही।
देखिअ कपिहि कहाँ कर आही॥

रावण राक्षसोंके मुखसे अपने पुत्रका वध सुनकर बड़ा गुस्सा हुआ और
महाबली मेघनादको भेजा॥

और मेघनादसे कहा कि हे पुत्र!
उसे मारना मत किंतु बांधकर पकड़ लें आना,
क्योंकि मैं भी उसे देखूं तो सही वह वानर कहाँ का है॥

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मेघनाद हनुमानजी को बंदी बनाने के लिए आता है

चला इंद्रजित अतुलित जोधा।
बंधु निधन सुनि उपजा क्रोधा॥
कपि देखा दारुन भट आवा।
कटकटाइ गर्जा अरु धावा॥

इन्द्रजीत (इंद्र को जीतनेवाला) योद्धा मेघनाद
असंख्य योद्धाओ को संग लेकर चला।
भाई के वध का समाचार सुनकर उसे बड़ा गुस्सा आया॥

हनुमानजी ने उसे देखकर
यह कोई दारुण भट (भयानक योद्धा) आता है
ऐसे जानकार कटकटाके महाघोर गर्जना की और दौड़े॥

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हनुमानजी ने मेघनाद के रथ को नष्ट किया

अति बिसाल तरु एक उपारा।
बिरथ कीन्ह लंकेस कुमारा॥
रहे महाभट ताके संगा।
गहि गहि कपि मर्दई निज अंगा॥

एक बड़ा भारी वृक्ष उखाड़ कर
उससे लंकेश्र्वर रावण के पुत्र मेघनाद को
विरथ अर्थात रथहीन, बिना रथ का कर दिया॥

उसके साथ जो बड़े बड़े महाबली योद्धा थे,
उन सबको पकड़ पकड़कर हनुमानजी ने अपने शरीर से मसल डाला॥

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हनुमानजी ने मेघनाद को घूंसा मारा

तिन्हहि निपाति ताहि सन बाजा।
भिरे जुगल मानहुँ गजराजा॥
मुठिका मारि चढ़ा तरु जाई।
ताहि एक छन मुरुछा आई॥

ऐसे उन राक्षसोंको मारकर हनुमानजी मेघनादके पास पहुँचे।
फिर वे दोनों ऐसे भिड़े कि मानो दो गजराज आपस में भीड़ रहे है॥

हनुमानजी मेघनादको एक घूँसा मारकर वृक्ष पर जा चढ़े और
मेघनादको उस प्रहार से एक क्षणभर के लिए मूर्च्छा आ गयी।

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मेघनाद हनुमानजी से जीत नहीं पाया

उठि बहोरि कीन्हिसि बहु माया।
जीति न जाइ प्रभंजन जाया॥

फिर मेघनादने सचेत होकर बहुत माया रची, अनेक मायाये फैलायी
पर वह हनुमानजीसे किसी प्रकार जीत नहीं पाया॥

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दोहा – 19

मेघनादने ब्रम्हास्त्र चलाया

ब्रह्म अस्त्र तेहि साँधा कपि मन कीन्ह बिचार।
जौं न ब्रह्मसर मानउँ महिमा मिटइ अपार ॥19॥

मेघनाद अनेक अस्त्र चलाकर थक गया,
तब उसने ब्रम्हास्त्र चलाया।
उसे देखकर हनुमानजी ने मनमे विचार किया कि
इससे बंध जाना ही ठीक है।

क्योंकि जो मै इस ब्रम्हास्त्रको नहीं मानूंगा
तो इस अस्त्रकी अपार और अद्भुत महिमा घट जायेगी ॥19॥


श्री राम, जय राम, जय जय राम

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मेघनाद हनुमानजी को बंदी बनाकर रावणकी सभा में ले जाता है

ब्रह्मबान कपि कहुँ तेहिं मारा।
परतिहुँ बार कटकु संघारा॥
तेहिं देखा कपि मुरुछित भयऊ।
नागपास बाँधेसि लै गयऊ॥

मेघनादने हनुमानजीपर ब्रम्हास्त्र चलाया,
उस ब्रम्हास्त्रसे हनुमानजी गिरने लगे
तो गिरते समय भी उन्होंने अपने शरीरसे बहुतसे राक्षसोंका संहार कर डाला॥

जब मेघनादने जान लिया कि हनुमानजी अचेत हो गए है,
तब वह उन्हें नागपाशसे बांधकर लंकामे ले गया॥

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हनुमानजी ने अपने आप को क्यों ब्रह्मास्त्र में बँधा लिया?

जासु नाम जपि सुनहु भवानी।
भव बंधन काटहिं नर ग्यानी॥
तासु दूत कि बंध तरु आवा।
प्रभु कारज लगि कपिहिं बँधावा॥

महादेवजी कहते है कि हे पार्वती! सुनो,
जिनके नामका जप करनेसे ज्ञानी लोग भवबंधन को काट देते है

  • (जिनका नाम जपकर ज्ञानी और विवेकी मनुष्य संसार अर्थात जन्म-मरण के बंधन को काट डालते है)॥

उस प्रभुका दूत (हनुमानजी) भला बंधन में कैसे आ सकता है?
परंतु अपने प्रभुके कार्यके लिए हनुमान् जी ने स्वयं अपनेको बँधा लिया॥

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हनुमानजी रावण की सभा देखते है

कपि बंधन सुनि निसिचर धाए।
कौतुक लागि सभाँ सब आए॥
दसमुख सभा दीखि कपि जाई।
कहि न जाइ कछु अति प्रभुताई॥

हनुमानजी को बंधा हुआ सुनकर सब राक्षस देखनेको दौड़े और
कौतुकके लिए सब सभामे आये॥

हनुमानजी ने जाकर रावण की सभा देखी,
तो उसकी प्रभुता और ऐश्वर्य किसी कदर कही जाय ऐसी नहीं थी॥

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रावण की सभा का वर्णन

कर जोरें सुर दिसिप बिनीता।
भृकुटि बिलोकत सकल सभीता॥
देखि प्रताप न कपि मन संका।
जिमि अहिगन महुँ गरुड़ असंका॥

तमाम देवता और दिक्पाल बड़े विनय के साथ हाथ जोड़े सामने खड़े
उसकी भ्रूकुटीकी ओर भयसहित देख रहे है॥

यद्यपि हनुमानजी ने उसका ऐसा प्रताप देखा,
परंतु उनके मन में ज़रा भी डर नहीं था।
हनुमानजी उस सभामें राक्षसोंके बीच ऐसे निडर खड़े थे कि
जैसे गरुड़ सर्पोके बीच निडर रहा करता है॥

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दोहा – 20

रावण हनुमानजी की ओर देखकर हँसता है

कपिहि बिलोकि दसानन बिहसा कहि दुर्बाद।
सुत बध सुरति कीन्हि पुनि उपजा हृदयँ बिसाद ॥20॥

रावण हनुमानजी की और देखकर हँसा और
कुछ दुर्वचन भी कहे,
परंतु फिर उसे पुत्रका मरण याद आजानेसे
उसके हृदयमे बड़ा संताप पैदा हुआ॥


श्री राम, जय राम, जय जय राम

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हनुमानजी और रावण का संवाद

रावण हनुमानजीसे उनके बारे में पूछता है?

चौपाई

कह लंकेस कवन तैं कीसा।
केहि कें बल घालेहि बन खीसा॥
की धौं श्रवन सुनेहि नहिं मोही।
देखउँ अति असंक सठ तोही॥

रावण ने हनुमानजी से कहा कि हे वानर!
तू कौन है और कहांसे आया है?
और तूने किसके बल से मेरे वनका विध्वंस कर दिया है॥

मैं तुझे अत्यंत निडर देख रहा हूँ।
क्या तूने कभी मेरा नाम अपने कानों से नहीं सुना है?॥

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हनुमानजी श्री राम के बारे में बताते है

मारे निसिचर केहिं अपराधा।
कहु सठ तोहि न प्रान कइ बाधा॥
सुनु रावन ब्रह्मांड निकाया।
पाइ जासु बल बिरचति माया॥

तुझको हम नहीं मारेंगे, परन्तु सच कह दे कि
तूने हमारे राक्षसोंको किस अपराध के लिए मारा है?

रावणके ये वचन सुनकर
हनुमानजीने रावण से कहा कि हे रावण! सुन,
यह माया (प्रकृति) जिस परमात्माके बल (चैतन्यशक्ति) को पाकर
अनेक ब्रम्हांडसमूह रचती है॥

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श्री राम का बल और सामर्थ्य

जाकें बल बिरंचि हरि ईसा।
पालत सृजत हरत दससीसा॥
जा बल सीस धरत सहसानन।
अंडकोस समेत गिरि कानन॥

जिसके बलसे ब्रह्मा, विष्णु और महेश
ये तीनो देव जगतको रचते है,
पालते है और संहार करते है॥

और जिनकी सामर्थ्यसे शेषजी अपने सिर पर
वन और पर्वतोंसहित इस सारे ब्रम्हांडको धारण करते है॥

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भगवान राम के अवतार का कारण

धरइ जो बिबिध देह सुरत्राता।
तुम्ह से सठन्ह सिखावनु दाता॥
हर कोदंड कठिन जेहिं भंजा।
तेहि समेत नृप दल मद गंजा॥

और जो देवताओके रक्षा के लिए और
तुम्हारे जैसे दुष्टोको दंड देनेके लिए
अनेक शरीर (अवतार) धारण करते है॥

जिसने महादेवजीके अति कठिन धनुषको तोड़कर
तेरे साथ तमाम राजसमूहोके मदको भंजन किया (गर्व चूर्ण कर दिया) है॥

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खर दूषन त्रिसिरा अरु बाली।
बधे सकल अतुलित बलसाली॥

और जिन्होने खर, दूषण, त्रिशिरा और
बालि ऐसे बड़े बलवाले योद्धओको मारा है॥

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दोहा – 21

रावण का साम्राज्य, भगवान् राम के बल के थोड़े से अंश के बराबर

जाके बल लवलेस तें जितेहु चराचर झारि।
तास दूत मैं जा करि हरि आनेहु प्रिय नारि ॥21॥

और हे रावण! सुन,
जिसके बलके लवलेश अर्थात किन्चित्मात्र, थोडेसे अंश से
तूने तमाम चराचर जगत को जीता है,
उस परमात्मा का मै दूत हूँ।
जिनकी प्यारी सीता को तू हर ले आया है ॥21॥


श्री राम, जय राम, जय जय राम

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रावण का सहस्रबाहु और बालि से युद्ध

जानउँ मैं तुम्हारि प्रभुताई।
सहसबाहु सन परी लराई॥
समर बालि सन करि जसु पावा।
सुनि कपि बचन बिहसि बिहरावा॥

हे रावण! तुम्हारी प्रभुता तो मैंने तभी से जान ली है कि
जब तुम्हे सहस्रबाहुके साथ युद्ध करनेका काम पड़ा था॥

और मुझको यह बातभी याद है कि
तुमने बालिसे लड़ कर जो यश प्राप्त किया था।

हनुमानजी के ये वचन सुनकर रावण ने हँसी में ही उड़ा दिए॥

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हनुमानजी ने अशोकवन क्यों उजाड़ा?

खायउँ फल प्रभु लागी भूँखा।
कपि सुभाव तें तोरेउँ रूखा॥
सब कें देह परम प्रिय स्वामी।
मारहिं मोहि कुमारग गामी॥

तब फिर हनुमानजी ने कहा कि हे रावण!
मुझको भूख लग गयी थी
इसलिए तो मैंने आपके बाग़ के फल खाए है और
जो वृक्षोको तोडा है सो तो केवल मैंने अपने वानर स्वाभावकी चपलतासे तोड़ डाले है॥

और जो मैंने आपके राक्षसोंको मारा
उसका कारण तो यह है की हे रावण!
अपना देह तो सबको बहुत प्यारा लगता है,
सो वे खोटे रास्ते चलने वाले राक्षस मुझको मारने लगे॥

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हनुमानजी ने राक्षसों को क्यों मारा?

जिन्ह मोहि मारा ते मैं मारे।
तेहि पर बाँधेउँ तनयँ तुम्हारे॥
मोहि न कछु बाँधे कइ लाजा।
कीन्ह चहउँ निज प्रभु कर काजा॥

तब मैंने अपने प्यारे शरीरकी रक्षा करनेके लिए
जिन्होंने मुझको मारा था उनको मैंने भी मारा।
इसपर आपके पुत्र ने मुझको बाँध लिया है॥

हनुमानजी कहते है कि मुझको बंध जाने से कुछ भी लज्जा नहीं आती
क्योंकि मै अपने स्वामीका कार्य करना चाहता हूँ॥

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हनुमानजी रावण को समझाते है

बिनती करउँ जोरि कर रावन।
सुनहु मान तजि मोर सिखावन॥
देखहु तुम्ह निज कुलहि बिचारी।
भ्रम तजि भजहु भगत भय हारी॥

हे रावण! मै हाथ जोड़कर आपसे प्रार्थना करता हूँ।
सो अभिमान छोड़कर मेरी शिक्षा सुनो॥

और अपने मनमे विचार करके
तुम अपने आप खूब अच्छी तरह देख लो और
सोचनेके बाद भ्रम छोड़कर
भक्तजनोंके भय मिटानेवाले प्रभुकी सेवा करो॥

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ईश्वर से कभी बैर नहीं करना चाहिए

जाकें डर अति काल डेराई।
जो सुर असुर चराचर खाई॥
तासों बयरु कबहुँ नहिं कीजै।
मोरे कहें जानकी दीजै॥

हे रावण! जो देवता, दैत्य और सारे चराचरको खा जाता है,
वह काल भी जिसके सामने अत्यंत भयभीत रहता है॥

उस परमात्मासे कभी बैर नहीं करना चाहिये।
इसलिए जो तू मेरा कहना माने
तो सीताजीको रामचन्द्रजीको दे दो॥

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दोहा – 22

हनुमानजी रावण को भगवान् की शरण में जाने के लिए कहते है

प्रनतपाल रघुनायक करुना सिंधु खरारि।
गएँ सरन प्रभु राखिहैं तव अपराध बिसारि ॥22॥

हे रावण! खर को मारनेवाले रघुवंशमणि रामचन्द्रजी
भक्तपालक और करुणाके सागर है।

इसलिए यदि तू उनकी शरण चला जाएगा,
तो वे प्रभु तेरे अपराधको माफ़ करके
तुम्हे अपनी शरण मे रख लेंगे॥22॥


श्री राम, जय राम, जय जय राम

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श्रीराम को मन में धारण करके कार्य करें

राम चरन पंकज उर धरहू।
लंका अचल राजु तुम्ह करहू॥
रिषि पुलस्ति जसु बिमल मयंका।
तेहि ससि महुँ जनि होहु कलंका॥

इसलिए तू रामचन्द्रजीके चरणकमलोंको हृदयमें धारण कर और
उनकी कृपासे लंकामें अविचल राज कर॥

महामुनि पुलस्त्यजीका यश निर्मल चन्द्रमाके समान परम उज्वल है,
इसलिए तू उस कुलके बीचमें कलंक के समान मत हो॥

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राम नाम बिना वाणी कैसी लगती है

राम नाम बिनु गिरा न सोहा।
देखु बिचारि त्यागि मद मोहा॥
बसन हीन नहिं सोह सुरारी।
सब भूषन भूषित बर नारी॥

हे रावण! तू अपने मनमें विचार करके
मद और मोहको त्यागकर, अच्छी तरह जांचले कि
रामके नाम बिना वाणी कभी शोभा नहीं देती॥

हे रावण! चाहे स्त्री सब अलंकारोसे अलंकृत और सुन्दर क्यों न होवे
परंतु वस्त्रके बिना वह कभी शोभायमान नहीं होती।
ऐसेही रामनाम बिना वाणी शोभायमान नहीं होती॥

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राम नाम भूलने का क्या परिणाम होता है

राम बिमुख संपति प्रभुताई।
जाइ रही पाई बिनु पाई॥
सजल मूल जिन्ह सरितन्ह नाहीं।
बरषि गएँ पुनि तबहिं सुखाहीं॥

हे रावण! जो पुरुष रामचन्द्रजीसे विमुख है
उसकी संपदा और प्रभुता पानेपर भी न पानेके बराबर है।
क्योंकि वह स्थिर नहीं रहती किन्तु तुरंत चली जाती है॥

श्री राम से विमुख पुरूष की संपत्ति और प्रभुता
रही हुई भी चली जाती है और
उसकी पाना न पाने के समान है।

देखो, जिन नदियों के मूल में कोई जलस्रोत नहीं है,
(अर्थात् जिन्हे केवल बरसात ही आसरा है),
वहां बरसात हो जाने के बाद
फिर सब जल सुख ही जाता है, कही नहीं रहता॥

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भगवान् राम से भूलने वाले की क्या गति होती है

सुनु दसकंठ कहउँ पन रोपी।
बिमुख राम त्राता नहिं कोपी॥
संकर सहस बिष्नु अज तोही।
सकहिं न राखि राम कर द्रोही॥

हे रावण! सुन, मै प्रतिज्ञा कर कहता हूँ कि
रामचन्द्रजीसे विमुख पुरुषका रखवारा कोई नहीं है॥

हे रावण! ब्रह्मा, विष्णु और महादेव भी
रामचन्द्रजीसे द्रोह करनेवाले को बचा नहीं सकते॥

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दोहा – 23

अभिमान और अहंकार त्याग कर भगवान् की शरण में

मोहमूल बहु सूल प्रद त्यागहु तम अभिमान।
भजहु राम रघुनायक कृपा सिंधु भगवान ॥23॥

हे रावण! मोह्का मूल कारण और
अत्यंत दुःख देनेवाली अभिमानकी बुद्धिको छोड़कर
कृपाके सागर भगवान् श्री रघुवीरकुलनायक रामचन्द्रजीकी सेवा कर ॥23॥
(मोह ही जिनका मूल है ऐसे बहुत पीड़ा देने वाले, तमरूप अभिमान का त्याग कर दो)


श्री राम, जय राम, जय जय राम

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हनुमानजी के सच्चे वचन अहंकारी रावण की समझ में नहीं आते है

जदपि कही कपि अति हित बानी।
भगति बिबेक बिरति नय सानी॥
बोला बिहसि महा अभिमानी।
मिला हमहि कपि गुर बड़ ग्यानी॥

यद्यपि हनुमानजी रावणको अति हितकारी और भक्ति, ज्ञान,
धर्म और नीतिसे भरी वाणी कही,
परंतु उस अभिमानी अधमके उसके कुछ भी असर नहीं हुआ॥

इससे हँसकर बोला कि हे वानर!
आज तो हमको तु बडा ज्ञानी गुरु मिला॥

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रावण हनुमानजी को डराता है

मृत्यु निकट आई खल तोही।
लागेसि अधम सिखावन मोही॥
उलटा होइहि कह हनुमाना।
मतिभ्रम तोर प्रगट मैं जाना॥

हे नीच! तू मुझको शिक्षा देने लगा है.
सो हे दुष्ट! कहीं तेरी मौत तो निकट नहीं आ गयी है?॥

रावणके ये वचन सुन हनुमान्‌ने कहा कि
इससे उलटा ही होगा (अर्थात् मृत्यु तेरी निकट आई है, मेरी नही)।
हे रावण! अब मैंने तेरा बुद्धिभ्रम (मतिभ्रम) स्पष्ट रीतिसे जान लिया है॥

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रावण हनुमानजी को मारने का हुक्म देता है

सुनि कपि बचन बहुत खिसिआना।
बेगि न हरहु मूढ़ कर प्राना॥
सुनत निसाचर मारन धाए।
सचिवन्ह सहित बिभीषनु आए॥

हनुमान्‌के वचन सुनकर रावणको बड़ा कोध आया,
जिससे रावणने राक्षसोंको कहा कि हे राक्षसो!
इस मूर्खके प्राण जल्दी ले लो अर्थात इसे तुरंत मार डालो॥

इस प्रकार रावण के वचन सुनतेही राक्षस मारनेको दौड़ें
तब अपने मंत्रियोंके साथ विभीषण वहां आ पहुँचे॥

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विभीषण रावणको दुसरा दंड देने के लिए समझाता है

नाइ सीस करि बिनय बहूता।
नीति बिरोध न मारिअ दूता॥
आन दंड कछु करिअ गोसाँई।
सबहीं कहा मंत्र भल भाई॥

बड़े विनयके साथ रावणको प्रणाम करके
बिभीषणने कहा कि यह दूत है।
इसलिए इसे मारना नही चाहिये;
क्योंकि यह बात नीतिसे विरुद्ध है॥

हे स्वामी! इसे आप कोई दूसरा दंड दे दीजिये पर मारें मत।
बिभीषणकी यह बात सुनकर सब राक्षसोंने कहा कि
हे भाइयो! यह सलाह तो अच्छी है॥

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रावण हनुमानजी को दुसरा दंड देने का सोचता है

सुनत बिहसि बोला दसकंधर।
अंग भंग करि पठइअ बंदर॥

रावण इस बातको सुनकर बोला कि
जो इसको मारना ठीक नहीं है,
तो इस बंदरका कोई अंग भंग करके इसे भेज दो॥

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दोहा – 24

राक्षस हनुमानजी की पूंछ में आग लगाने का सुझाव देते है

कपि कें ममता पूँछ पर सबहि कहउँ समुझाइ।
तेल बोरि पट बाँधि पुनि पावक देहु लगाइ ॥24॥

सब लोगोने सोच कर रावणसे कहा कि
वानरका ममत्व पूंछ पर बहुत होता है।
इसलिए इसकी पूंछमें तेलसे भीगेहुए कपडे लपेटकर
आग लगा दो ॥24॥


श्री राम, जय राम, जय जय राम




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