सुन्दरकाण्ड अर्थ सहित – 04



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अहंकारी रावण और उसके अज्ञानी मंत्री

श्रवन सुनी सठ ता करि बानी।
बिहसा जगत बिदित अभिमानी॥
सभय सुभाउ नारि कर साचा।
मंगल महुँ भय मन अति काचा॥1॥

कवि कहता है कि
वो शठ (मूर्ख और जगत प्रसिद्ध अभिमानी रावण)
मन्दोदरीकी यह वाणी सुनकर हँसा,
क्योंकि उसके अभिमानकौ तमाम संसार जानता है॥

और बोला कि जगत्‌में जो यह बात कही जाती है कि
स्त्रीका स्वभाव डरपोक होता है सो यह बात सच्ची है।
और इसीसे तेरा मन मंगलकी बातमें अमंगल समझता है॥

मंगल मे भी भय करती हो।
तुम्हारा मन (ह्रदय) बहुत ही कच्चा (कमजोर) है

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जौं आवइ मर्कट कटकाई।
जिअहिं बिचारे निसिचर खाई॥
कंपहिं लोकप जाकी त्रासा।
तासु नारि सभीत बड़ि हासा॥2॥

रावण बोला, अब वानरोकी सेना यहां आवेगी
तो क्या बिचारी वह जीती रह सकेगी,
क्योंकि राक्षस उसको आते ही खा जायेंगे॥

जिसकी त्रासके मारे लोकपाल कांपते है
उसकी स्त्रीका भय होना यह तो एक बड़ी हँसीकी बात है॥

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अस कहि बिहसि ताहि उर लाई।
चलेउ सभाँ ममता अधिकाई॥
मंदोदरी हृदयँ कर चिंता।
भयउ कंत पर बिधि बिपरीता॥3॥

वह दुष्ट मंदोदारीको ऐसे कह,
उसको छातीमें लगाकर मनमें बड़ी ममता रखता हुआ सभामें गया॥

परन्नु मन्दोदरीने उस वक़्त समझ लिया कि
अब उसके पति पर विधाता प्रतिकूल हो गए है॥

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बैठेउ सभाँ खबरि असि पाई।
सिंधु पार सेना सब आई॥
बूझेसि सचिव उचित मत कहहू।
ते सब हँसे मष्ट करि रहहू॥4॥

ज्यों ही वह सभा मे जाकर बैठा,
वहां ऐसी खबर आयी कि
सब सेना समुद्र के उस पार आ गयी है॥

तब रावणने सब मंत्रियोंसे पूछा कि
तुम अपना अपना जो योग्य मत हो वह कहो
(अब क्या करना चाहिए?)।

तब वे सब मंत्री हँसे और चुप लगा कर रह गए
(इसमें सलाह की कौन-सी बात है?)॥

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जितेहु सुरासुर तब श्रम नाहीं।
नर बानर केहि लेखे माही॥5॥

फिर बोले की हे नाथ!
जब आपने देवता और दैत्योंको जीता उसमें भी आपको श्रम नही हुआ
तो मनुष्य और वानर तो कौन गिनती है॥

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दोहा – 37

सचिव बैद गुर तीनि जौं प्रिय बोलहिं भय आस।
राज धर्म तन तीनि कर होइ बेगिहीं नास॥37॥

जो मंत्री, भय वा लोभसे राजाको सुहाती बात कहता है,
तो उसके राजका तुरंत नाश हो जाता है, और

जो वैद्य रोगीको सुहाती बात कहता है
तो रोगीका वेगही नाश हो जाता है, तथा

जो गुरु शिष्यके सुहाती बात कहता है,
उसके धर्मका शीघ्रही नाश हो जाता है ॥37॥

Or

मंत्री, वैद्य और गूरू –
ये तीन यदि भय या लाभ की आशा से

हित की बात न कहकर,
प्रिय बोलते है, सुहाती कहने लगते है,

तो क्रमशः राज्य, शरीर और धर्म
इन तीन का शीघ्र ही नाश हो जाता है॥37॥


श्री राम, जय राम, जय जय राम

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सोइ रावन कहुँ बनि सहाई।
अस्तुति करहिं सुनाइ सुनाई॥
अवसर जानि बिभीषनु आवा।
भ्राता चरन सीसु तेहिं नावा॥1॥

सो रावणके यहां वैसीही सहाय बन गयी
अर्थात् सब मंत्री सुना सुना कर रावणकी स्तुति करने लगे॥

उस अवसरको जानकर विभीषण वहां आया और
बड़े भाईके चरणों में उसने सिर नवाया॥

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विभीषण का रावण को समझाना

पुनि सिरु नाइ बैठ निज आसन।
बोला बचन पाइ अनुसासन॥
जौ कृपाल पूँछिहु मोहि बाता।
मति अनुरुप कहउँ हित ताता॥2॥

फिर प्रणाम करके
वह अपने आसनपर जा बैठा॥

और रावणकी आज्ञा पाकर यह वचन बोला, हे कृपालु!
आप मुझसे जो बात पूछते हो सो हे तात!
मैं भी मेरी बुद्धिके अनुसार आपके हित की बात कहूंगा॥

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जो आपन चाहै कल्याना।
सुजसु सुमति सुभ गति सुख नाना॥
सो परनारि लिलार गोसाईं।
तजउ चउथि के चंद कि नाई॥3॥

हे तात! जो आप अपना कल्याण, सुयश,
सुमति, शुभ-गति, और नाना प्रकारका सुख चाहते हो॥

तब तो हे स्वामी!
परस्त्रीके ललाट को चौथके चांदकी तरह त्याग दो॥

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चौदह भुवन एक पति होई।
भूतद्रोह तिष्टइ नहिं सोई॥
गुन सागर नागर नर जोऊ।
अलप लोभ भल कहइ न कोऊ॥4॥

चाहो कोई एकही आदमी चौदहा लोकोंका स्वामी हो जाए,
परंतु जो प्राणीमात्रसे वैर रखता है,
वह स्थिर नहीं रहता अर्थात् तुरंत नष्ट हो जाता हैँ॥

जो आदमी गुणोंका सागर और चतुर है,
परंतु वह यदि थोड़ा भी लोभ कर जाय
तो उसे कोई भी अच्छा नहीं कहता॥

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दोहा – 38

काम क्रोध मद लोभ सब नाथ नरक के पंथ।
सब परिहरि रघुबीरहि भजहु भजहिं जेहि संत॥38॥

हे नाथ! ये सदग्रन्थ अर्थात् वेद आदि शास्त्र ऐसे कहते हैं कि
काम, कोध, मद और लोभ
ये सब नरक के मार्ग हैं,

इसलिए इन्हें छोड़कर
रामचन्द्रजीके चरणोंकी सेवा करो,

श्री राम चन्द्रजी को भजिए,
जिन्हे संत (सत्पुरूष) भजते है ॥38॥


श्री राम, जय राम, जय जय राम

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तात राम नहिं नर भूपाला।
भुवनेस्वर कालहु कर काला॥
ब्रह्म अनामय अज भगवंता।
ब्यापक अजित अनादि अनंता॥1॥

हे तात! राम मनुष्य और राजा नहीं हैं,
किंतु वे साक्षात समस्त लोको के स्वामी, त्रिलोकीनाथ और कालके भी काल है॥

जो साक्षात् परब्रह्म, निर्विकार, अजन्मा,
सर्वव्यापक, अजेय, आदि और अनंत ब्रह्म है॥

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गो द्विज धेनु देव हितकारी।
कृपासिंधु मानुष तनुधारी॥
जन रंजन भंजन खल ब्राता।
बेद धर्म रच्छक सुनु भ्राता॥2॥

वे कृपासिंधु गौ, ब्राह्मण, देवता और
पृथ्वीका हित करनेके लिये,
दुष्टोके दलका संहार करनेके लिये,
वेद और धर्मकी रक्षा करनेके लिये प्रकट हुए हे॥

Or

उन कृपा के समुन्द्र भगवान् ने
पृथ्वी, ब्राह्मण, गो और देवताओ का हित करने के लिए ही
मनुष्य शरीर धारण किया है।
हे भाई! सुनिए, वे सेवको को आनन्द देने वाले,
दुष्टो के समूह का नाश करने वाले वेद तथा धर्म की रक्षा करने वाले है॥2॥

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ताहि बयरु तजि नाइअ माथा।
प्रनतारति भंजन रघुनाथा॥
देहु नाथ प्रभु कहुँ बैदेही।
भजहु राम बिनु हेतु सनेही॥3॥

सो शरणगतोंके संकट मिटानेवाले
उन रामचन्द्रजीको वैर छोड़कर प्रणाम करो॥

हे नाथ! रामचन्द्रजी को सीता दे दीजिए और
कामना छोडकर, स्नेह रखनेवाले रामका भजन करो॥

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सरन गएँ प्रभु ताहु न त्यागा।
बिस्व द्रोह कृत अघ जेहि लागा॥
जासु नाम त्रय ताप नसावन।
सोइ प्रभु प्रगट समुझु जियँ रावन॥4॥

हे नाथ! वे शरण जानेपर ऐसे अधर्मीको भी नहीं त्यागते कि
जिसको विश्वद्रोह करनेका पाप
(संपूर्ण जगत् से द्रोह करने का पाप) लगा हो॥

हे रावण! आप अपने मनमें निश्चय समझो कि
जिनका नाम लेनेसे तीनों प्रकारके ताप नाश हो जाते हैं
वे ही प्रभु आज पृथ्वीपर मनुष्य रूप मे प्रकट हुए हैं॥

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दोहा – 39A

बार बार पद लागउँ बिनय करउँ दससीस।
परिहरि मान मोह मद भजहु कोसलाधीस॥39 (क)॥

हे रावण! मैं आपके वारंवार पावों में पड़कर
(बार-बार आपके चरण लगता हूँ और)
विनती करता हूँ,
सो मेरी विनती सुनकर आप मान, मोह, और
मदको छोड़ श्री रामचन्द्रजी की सेवा करो ॥39(क)॥

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दोहा – 39B

मुनि पुलस्ति निज सिष्य सन कहि पठई यह बात।
तुरत सो मैं प्रभु सन कही पाइ सुअवसरु तात॥39 (ख)॥

पुलस्त्य ऋषीने अपने शिष्यको भेजकर
यह बात कहला भेजी थी
सो अवसर पाकर यह बात हे रावण!
मैंने आपसे कही है ॥39(ख)॥


श्री राम, जय राम, जय जय राम

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माल्यावान का रावण को समझाना

माल्यवंत अति सचिव सयाना।
तासु बचन सुनि अति सुख माना॥
तात अनुज तव नीति बिभूषन।
सो उर धरहु जो कहत बिभीषन॥

वहां माल्यावान नाम एक बुद्धिमान मंत्री बैठा हुआ था।
वह विभीषणके वचन सुनकर अतिप्रसन्न हुआ॥

और उसने रावणसे कहा कि
तात! आपका छोटा भाई बड़ा नीति जाननेवाला हैँ,
इस वास्ते बिभीषण जो बात कहता है,
उसी बातको आप अपने मनमें धारण करो॥

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रिपु उतकरष कहत सठ दोऊ।
दूरि न करहु इहाँ हइ कोऊ॥
माल्यवंत गह गयउ बहोरी।
कहइ बिभीषनु पुनि कर जोरी॥

माल्यवान्‌की यह बात सुनकर रावणने कहा कि
हे राक्षसो! ये दोनों नीच शत्रुकी बड़ाई करते हैं,
उनकी महिमा का बखान कर रहे है।

तुममेंसे कोई भी उनको यहां से निकाल क्यों नहीं देते,
यह क्या बात है॥

तब माल्यवान् तो उठकर अपने घरको चला गया और
बिभीषणने हाथ जोड़कर फिर कहा॥

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सुमति कुमति सब कें उर रहहीं।
नाथ पुरान निगम अस कहहीं॥
जहाँ सुमति तहँ संपति नाना।
जहाँ कुमति तहँ बिपति निदाना॥

विभीषण कहते है – हे नाथ!
वेद और पुरानोमें ऐसा कहा है कि
सुबुद्धि (अच्छी बुद्धि) और कुबुद्धि (खोटि बुद्धि)
सबके मनमें रहती है।

जहाँ सुमति है, वहां संपदा है (सुख की स्थिति) और
जहाँ कुबुद्धि है, वहां विपत्ति (दुःख) है॥

जहाँ सुबुद्धि है, वहाँ नाना प्रकार की संपदाएँ (सुख की स्थिति) रहती है और जहाँ कुबुद्धि है वहाँ परिणाम मे विपत्ति (दुःख) रहती है।

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तव उर कुमति बसी बिपरीता।
हित अनहित मानहु रिपु प्रीता॥
कालराति निसिचर कुल केरी।
तेहि सीता पर प्रीति घनेरी॥

हे रावण!
आपके हृदयमें कुबुद्धि आ बसी है,
इसीसे आप हित को अहित और
शत्रु को मित्र मान रहे है॥

जो राक्षसोंके कुलकी कालरात्रि है,
(जो राक्षस कुल के लिए कालरात्रि के समान है),
उस सीतापर आपकी बहुत प्रीति है,
यह कुबुद्धि नहीं तो और क्या है॥

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दोहा – 40

तात चरन गहि मागउँ राखहु मोर दुलार।
सीता देहु राम कहुँ अहित न होइ तुम्हार ॥40॥

हे तात! में चरण पकडकर आपसे प्रार्थना करता हूँ,
सो मेरी प्रार्थना अंगीकार करो।

आप रामचंद्रजीको सीताजी दे दीजिए,
जिससे आपका अहित न हो,
जिससे आपका बहुत भला होगा ॥40॥


श्री राम, जय राम, जय जय राम

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विभीषण का अपमान

बुध पुरान श्रुति संमत बानी।
कही बिभीषन नीति बखानी॥
सुनत दसानन उठा रिसाई।
खल तोहि निकट मृत्यु अब आई॥

सयाने बिभीषणने नीतिको कहकर
वेद और पुराणके संमत वाणी कही॥

पंडितो, पुराणो और वेदो द्वारा सम्मत (अनुमोदित)
वाणी से विभीषण ने नीति बखानकर कही।

जिसको सुनकर रावण गुस्सा होकर उठ खड़ा हुआ और बोला कि
हे दुष्ट! तेरी मृत्यु अब निकट आ गयी दीखती है॥

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जिअसि सदा सठ मोर जिआवा।
रिपु कर पच्छ मूढ़ तोहि भावा॥
कहसि न खल अस को जग माहीं।
भुज बल जाहि जिता मैं नाहीं॥

हे नीच! सदा तू जीविका तो मेरी पाता है
(अर्थात् मेरे ही अन्न से पल रहा है) और
शत्रुका पक्ष तुझे अच्छा लगता है॥

हे दुष्ट! तू यह नही कहता कि
जिसको हमने अपने भुजबलसे नहीं जीता
ऐसा जगत्‌में कौन है? ॥

बता न, जगत् मे ऐसा कौन है,
जिसे मैने अपनी भुजाओ के बल से न जीता हो?

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मम पुर बसि तपसिन्ह पर प्रीती।
सठ मिलु जाइ तिन्हहि कहु नीती॥
अस कहि कीन्हेसि चरन प्रहारा।
अनुज गहे पद बारहिं बारा॥

हे शठ (मुर्ख)!
मेरी नगरीमें रहकर जो तू तपस्वीसे प्रीति करता है तो हे नीच!
उससे जा मिल और उसीसे नीतिका उपदेश कर॥

ऐसे कहकर रावण ने उन्हे लात मारी,
परंतु इतने पर भी बिभीषणने तो बार-बार उसके चरण ही पकड़े॥

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उमा संत कइ इहइ बड़ाई।
मंद करत जो करइ भलाई॥
तुम्ह पितु सरिस भलेहिं मोहि मारा।
रामु भजें हित नाथ तुम्हारा॥

शिवजी कहते हैं, है पार्वती!
सत्पुरुषोंकी यही बड़ाई है कि
बुरा करनेवालों की भलाई ही सोचते है
और करते हैं॥

विभीषण ने कहा, हे रावण!
आप मेरे पिताके बराबर हो इस वास्ते
आपने जो मुझको मारा वह ठीक ही है,
परंतु आपका भला तो रामचन्द्रजीके भजन से ही होगा॥

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सचिव संग लै नभ पथ गयऊ।
सबहि सुनाइ कहत अस भयऊ॥

ऐसा कहकर बिभीषण अपने मंत्रियोंको संग लेकर
आकाश मार्ग मे गए और
जाते समय सबको सुनाकर वे ऐसा कहने लगे॥

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दोहा – 41

रामु सत्यसंकल्प प्रभु सभा कालबस तोरि।
मैं रघुबीर सरन अब जाउँ देहु जनि खोरि ॥41॥

कि हे रावण!
रामचन्द्रजी सत्यप्रतिज्ञ है,
सत्यसंकल्प एवं सर्वसमर्थ प्रभु है और
तेरी सभा कालके आधीन है।

और में अब रामचन्द्रजीके शरण जाता हूँ,
सो मुझको अपराध मत लगाना
मुझे दोष न देना॥41॥


श्री राम, जय राम, जय जय राम

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विभीषण का प्रभु श्रीरामकी शरण के लिए प्रस्थान

अस कहि चला बिभीषनु जबहीं।
आयूहीन भए सब तबहीं॥
साधु अवग्या तुरत भवानी।
कर कल्यान अखिल कै हानी॥

जिस वक़्त विभीषण ऐसे कहकर लंकासे चले
उसी समय तमाम राक्षस आयुहीन हो गये
(उनकी मृत्यु निश्र्चित हो गई)॥

महादेवजीने कहा कि हे पार्वती!
साधू पुरुषोकी अवज्ञा करनी ऐसी ही बुरी है कि
वह तुरंत तमाम कल्याणको नाश कर देती है॥

साधु का अपमान तुरन्त ही
संपूर्ण कल्याण की हानि (नाश) कर देता है

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रावन जबहिं बिभीषन त्यागा।
भयउ बिभव बिनु तबहिं अभागा॥
चलेउ हरषि रघुनायक पाहीं।
करत मनोरथ बहु मन माहीं॥

रावणने जिस समय बिभीषणका परित्याग किया
उसी क्षण वह अभागा, मंदभागी
वैभव अर्थात ऐश्र्वर्य से हीन हो गया॥

बिभीषण मनमें अनेक प्रकारके मनोरथ करते हुए
आनंदके साथ रामचन्द्रजीके पास चले॥

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देखिहउँ जाइ चरन जलजाता।
अरुन मृदुल सेवक सुखदाता॥
जे पद परसि तरी रिषनारी।
दंडक कानन पावनकारी॥

विभीषण मनमें विचार करने लगे कि
आज जाकर मैं रघुनाथजीके चरण कमलो के दर्शन करूँगा।

कोमल और लाल वर्ण के सुन्दर चरण,
जो सेवको को सुख देने वाले है॥

कैसे हे चरणकमल कि जिनका स्पर्श पाकर
गौतम ऋषिकी पत्नी अहल्या तर गई (ऋषिके शापसे पार उतरी),
और जिनसे दंडक वन पवित्र हुआ है॥

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जे पद जनकसुताँ उर लाए।
कपट कुरंग संग धर धाए॥
हर उर सर सरोज पद जेई।
अहोभाग्य मैं देखिहउँ तेई॥

जिनको सीताजी अपने हृदयमें सदा लगाये रहतीं है.
जो कपटी हरिण ( मारीच राक्षस) के पीछे दौड़े॥

रूप हृदयरूपी सरोवर भीतर कमलरूप हैं,
उन चरणोको जाकर मैं देखूंगा।
अहो! मेरा बड़ा भाग्य हे॥

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दोहा – 42

जिन्ह पायन्ह के पादुकन्हि भरतु रहे मन लाइ।
ते पद आजु बिलोकिहउँ इन्ह नयनन्हि अब जाइ ॥42॥

जिन चरणोकी पादुकाओमें भरतजी ने
रातदिन अपना मन लगा रखा है,
आज मैं जाकर इन्ही नेत्रोसे
उन चरणोंको देखूंगा ॥42॥


श्री राम, जय राम, जय जय राम

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विभीषण वानरसेना के पास पहुंचते है

ऐहि बिधि करत सप्रेम बिचारा।
आयउ सपदि सिंदु एहिं पारा॥
कपिन्ह बिभीषनु आवत देखा।
जाना कोउ रिपु दूत बिसेषा॥

इस प्रकार प्रेमसहित अनेक प्रकारके विचार करते हुए
विभीषण तुरंत समुद्रके इस पार आए॥

वानरो ने विभीषण को आते देखा
तो जाना कि यह कोई शत्रुका दूत है॥

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ताहि राखि कपीस पहिं आए।
समाचार सब ताहि सुनाए॥
कह सुग्रीव सुनहु रघुराई।
आवा मिलन दसानन भाई॥

वानर उनको वही रखकर सुग्रीवके पास आये और
जाकर उनके सब समाचार कह सुनाए॥

तब सुग्रीवने जाकर रामचन्द्रजीसे कहा कि
हे प्रभु! रावणका भाई आपसे मिलने आया है॥

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कह प्रभु सखा बूझिऐ काहा।
कहइ कपीस सुनहु नरनाहा॥
जानि न जाइ निसाचर माया।
कामरूप केहि कारन आया॥

तब रामचन्द्रजीने कहा कि हे सखा!
तुम्हारी क्या राय है (तुम क्या समझते हो)?

तब सुग्रीवने रामचन्द्रजीसे कहा कि
हे महाराज! सुनिए,॥

राक्षसोंकी माया जाननेमें नहीं आ सकती।
इसी वास्ते यह नहीं कह सकते कि
यह मनोवांछित रूप धरकर (इच्छानुसार रूप बदलने वाला)
यहां क्यों आया है?॥

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भेद हमार लेन सठ आवा।
राखिअ बाँधि मोहि अस भावा॥
सखा नीति तुम्ह नीकि बिचारी।
मम पन सरनागत भयहारी॥

मेरे मनमें तो यह जँचता है कि
यह शठ हमारा भेद लेने को आया है।
इस वास्ते इसको बांधकर रख देना चाहिये॥

तब रामचन्द्रजीने कहा कि हे सखा!
तुमने यह नीति बहुत अच्छी विचारी,
परंतु मेरा प्रण शरणागतोंका भय मिटानेका है,
उनके भय को हर लेना है॥

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सुनि प्रभु बचन हरष हनुमाना।
सरनागत बच्छल भगवाना॥

रामचन्द्रजीके वचन सुनकर हनुमानजीको बड़ा आनंद हुआ
और मन ही मन कहने लगे कि
भगवान् सच्चे शरणागतवत्सल हैं
(शरण में आए हुए पर पिता की भाँति प्रेम करनेवाले)॥

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दोहा – 43

सरनागत कहुँ जे तजहिं निज अनहित अनुमानि।
ते नर पावँर पापमय तिन्हहि बिलोकत हानि ॥43॥

कहा है कि जो आदमी अपने अहितको विचार कर
(अपने अहित का अनुमान करके)
शरणागतको त्याग देते हैं,
उन मनुष्योको पामर (पागल) और पापरूप जानना चाहिये
क्योंकि उनको देखने ही से हानि होती है, पाप लगता है॥43॥


श्री राम, जय राम, जय जय राम

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भगवान रामकी शरण में कौन जा सकता है

कोटि बिप्र बध लागहिं जाहू।
आएँ सरन तजउँ नहिं ताहू॥
सनमुख होइ जीव मोहि जबहीं।
जन्म कोटि अघ नासहिं तबहीं॥

प्रभुने कहा कि चाहे कोई महापापी होवे
अर्थात् जिसको करोड़ों ब्रह्महत्याका पाप लगा हुआ हो और
वह भी यदि मेरे शरण चला आए,
तो भी मै उसको किसी कदर छोंड़ नहीं सकता,
शरण मे आने पर मै उसे भी नही त्यागता। ॥

यह जीव जब मेरे सन्मुख हो जाता है,
तब मैं उसके करोड़ों जन्मोंके पापोको नाश कर देता हूं॥

जीव ज्यो ही मेरे सम्मुख होता है,
त्यो ही उसको करोड़ो जन्मो के पाप नष्ट हो जाते है।

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पापवंत कर सहज सुभाऊ।
भजनु मोर तेहि भाव न काऊ॥
जौं पै दुष्ट हृदय सोइ होई।
मोरें सनमुख आव कि सोई॥

पापी पुरुषोंका यह सहज स्वभाव है कि
उनको किसी प्रकारसे मेरा भजन अच्छा नहीं लगता॥

हे सुग्रीव! जो पुरुष (वह रावण का भाई) दुष्ट हृदय का होता
क्या वह मेरे सम्मुख आ सकेगा? कदापि नहीं॥

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निर्मल मन जन सो मोहि पावा।
मोहि कपट छल छिद्र न भावा॥
भेद लेन पठवा दससीसा।
तबहुँ न कछु भय हानि कपीसा॥

हे सुग्रीव! जो आदमी निर्मल अंतःकरणवाला होगा,
वही मुझको पावेगा,
क्योंकि मुझको छल, छिद्र और कपट
कुछ भी अच्छा नहीं लगता॥

कदाचित् रावणने इसको भेद लेनेके लिए भेजा होगा,
फिर भी हे सुग्रीव! हमको उसका न तो कुछ भय है और
न किसी प्रकारकी हानि है॥

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जग महुँ सखा निसाचर जेते।
लछिमनु हनइ निमिष महुँ तेते॥
जौं सभीत आवा सरनाईं।
रखिहउँ ताहि प्रान की नाईं॥

क्योंकि जगत्‌में जितने राक्षस है,
उन सबोंको लक्ष्मण एक क्षणभरमें मार डालेगा॥

और उनमेंसे भयभीत होकर जो मेरे शरण आजायगा
उसको तो में अपने प्राणोंके बराबर रखूँगा॥

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दोहा – 44

उभय भाँति तेहि आनहु हँसि कह कृपानिकेत।
जय कृपाल कहि कपि चले अंगद हनू समेत ॥44॥

हँसकर कृपानिधान श्रीरामने कहा कि हे सुग्रीव!
चाहो वह शुद्ध मनसे आया हो
अथवा भेदबुद्धि विचारकर आया हो,
दोनो ही स्थितियों में उसको यहां ले आओ।

रामचन्द्रजीके ये वचन सुनकर अंगद और हनुमान् आदि सब बानर
हे कृपालु! आपकी जय हो, ऐसे कहकर चले ॥44॥

तब अंगद और हनुमान् सहित सुग्रीव जी
कपालु श्री राम जी की जय हो, कहते हुए चले।


श्री राम, जय राम, जय जय राम

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विभीषण को भगवान रामके दर्शन

सादर तेहि आगें करि बानर।
चले जहाँ रघुपति करुनाकर॥
दूरिहि ते देखे द्वौ भ्राता।
नयनानंद दान के दाता॥

वे वानर आदरसहित विभीषणको अपने आगे लेकर
उस स्थानको चले कि जहां करुणानिधान
श्री रघुनाथजी विराजमान थे॥

विभीषणने नेत्रोंको आनन्द देनेवाले
उन दोनों भाइयोंको दूर ही से देखा॥

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बहुरि राम छबिधाम बिलोकी।
रहेउ ठटुकि एकटक पल रोकी॥
भुज प्रलंब कंजारुन लोचन।
स्यामल गात प्रनत भय मोचन॥

फिर वह छविके धाम श्रीरामचन्द्रजीको देखकर
पलकोको रोककर एकटक देखते खड़े रहे॥

श्रीरघुनाथजीका स्वरूप कैसा है,
भगवान् की विशाल भुजाएँ है,
लाल कमल के समान नेत्र है,
मेघसा सधन श्याम शरीर है,
जो शरणागतोंके भयको मिटानेवाला है॥

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सघ कंध आयत उर सोहा।
आनन अमित मदन मन मोहा॥
नयन नीर पुलकित अति गाता।
मन धरि धीर कही मृदु बाता॥

जिसके सिंहकेसे कंधे है,
विशाल वक्षःस्थल (चौड़ी छाती) शोभायमान है,
मुख ऐसा है कि जिसकी छविको देखकर
असंख्य कामदेव मोहित हो जाते हैं॥

उस स्वरूपका दर्शन होतेही
विभीषणको नेत्रोंमें जल आ गया।
शरीर अत्यंत पुलकित हो गया,
तथापि उसने मनमें धीरज धरकर ये सुकोमल वचन कहे॥

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नाथ दसानन कर मैं भ्राता।
निसिचर बंस जनम सुरत्राता॥
सहज पापप्रिय तामस देहा।
जथा उलूकहि तम पर नेहा॥

हे देवताओंके पालक!
मेरा राक्षसोंके वंशमें तो जन्म है और हे नाथ! मैं रावणका भाई॥

यह मेरा तामस शरीर है और
स्वभावसेही पाप मुझको प्रिय लगता है,
सो यह बात ऐसी है कि
जैसे उल्लूका अंधकारपर सदा स्नेह रहता है,
ऐसे मेरे पाप पर प्यार है॥

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दोहा – 45

श्रवन सुजसु सुनि आयउँ प्रभु भंजन भव भीर।
त्राहि त्राहि आरति हरन सरन सुखद रघुबीर ॥45॥

तथापि हे प्रभु! हे भय और संकट मिटानेवाले!
मै कानोंसे आपका सुयश सुनकर आपके शरण आया हूँ।

सो हे आर्ति (दुःख) हरण हारे,
हे दुखियो के दुःख दूर करने वाले,
हे शरणागतोंको सुख देनेवाले प्रभु!
मेरी रक्षा करो, रक्षा करो ॥45॥


श्री राम, जय राम, जय जय राम

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विभीषण को भगवान रामकी शरण प्राप्ति

अस कहि करत दंडवत देखा।
तुरत उठे प्रभु हरष बिसेषा॥
दीन बचन सुनि प्रभु मन भावा।
भुज बिसाल गहि हृदयँ लगावा॥

ऐसे कहते हुए बिभीषणको दंडवत करते देखकर
प्रभु अत्यंत हर्षित होकर तुरन्त उठ खड़े हए॥

और बिभीषणके दीन वचन सुनकर प्रभुके मनमें वे बहुत भाए।
प्रभुने अपनी विशाल भुजासे उनको उठाकर अपनी छातीसे लगाया॥

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अनुज सहित मिलि ढिग बैठारी।
बोले बचन भगत भयहारी॥
कहु लंकेस सहित परिवारा।
कुसल कुठाहर बास तुम्हारा॥

लक्ष्मण सहित प्रभुने उससे मिलकर उसको अपने पास बिठाया,
फिर भक्तोंके हित करनेवाले प्रभुने ये वचन कहे॥

कि हे लंकेश विभीषण! आपके परिवारसहित कुशल तो है?
क्योंकि आपका रहना कुमार्गियोंके बीचमें है॥

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खल मंडली बसहु दिनु राती।
सखा धरम निबहइ केहि भाँती॥
मैं जानउँ तुम्हारि सब रीती।
अति नय निपुन न भाव अनीती॥

रात दिन तुम दुष्टोंकी मंडलीके बीच रहते हो
इससे, हे सखा! आपका धर्म कैसे निभता होगा॥

मैने तुम्हारी सब गति (रीति, आचार-व्यवहार) जानता हूँ।
तुम बडे नीतिनिपुण हो और
तुम्हारा अभिप्राय अन्यायपर नहीं है (तुम्हें अनीति नहीं सुहाती)॥

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बरु भल बास नरक कर ताता।
दुष्ट संग जनि देइ बिधाता॥
अब पद देखि कुसल रघुराया।
जौं तुम्ह कीन्हि जानि जन दाया॥

रामचन्द्रजीके ये वचन सुनकर विभीषणने कहा कि हे प्रभु!
चाहे नरकमें रहना अच्छा है, परंतु दुष्टकी संगति अच्छी नहीं.
इसलिये हे विधाता! कभी दुष्टकी संगति मत देना॥

हे रघुनाथजी!
आपने अपना सेवक जानकर जो मुझपर दया की,
उससे आपके दर्शन हुए।
हे प्रभु!
अब में आपके चरणोके दर्शन करनेसे कुशल हूँ॥

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दोहा – 46

तब लगि कुसल न जीव कहुँ सपनेहुँ मन बिश्राम।
जब लगि भजत न राम कहुँ सोक धाम तजि काम ॥46॥

हे प्रभु! यह मनुष्य जब तक शोकके धामरूप काम
अर्थात् लालसाको छोंड कर
श्री राम जी को नही भजता,
श्रीरामचन्द्रजीके चरणोंकी सेवा नहीं करता,
तब तक इस जीवको स्वप्रमें भी न तो कुशल है और
न कहीं मनको विश्राम (शांति) है ॥46॥


श्री राम, जय राम, जय जय राम

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भगवान् श्री राम की महिमा

तब लगि हृदयँ बसत खल नाना।
लोभ मोह मच्छर मद माना॥
जब लगि उर न बसत रघुनाथा।
धरें चाप सायक कटि भाथा॥

जब तक धनुष बाण धारण किये और
कमरमें तरकस कसे हुए श्रीरामचन्द्रजी
हृदयमें आकर नहीं बिराजते,
तब तक लोभ, मोह, मत्सर, मद और मान
ये अनेक दुष्ट हृदयके भीतर निवास कर सकते हैं।

और जब श्री राम आकर हृदयमें विराजते है,
तब ये सारे विकार भाग जाते हैं॥

अनेको दुष्ट जैसे लोभ, मोह, मत्सर (द्वेष, ईर्ष्या, घृणा),
मद और मान आदि, तभी तक हृदय मे बसते है,
जब तक कि श्री रघुनाथ जी हृदय मे नही बसते।

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ममता तरुन तमी अँधिआरी।
राग द्वेष उलूक सुखकारी॥
तब लगि बसति जीव मन माहीं।
जब लगि प्रभु प्रताप रबि नाहीं॥

जब तक जीवके हृदयमें
प्रभुका प्रताप रुपी सूर्य उदय नहीं होता,
तब तक रागद्वेषरूप उल्लुओं को सुख देनेवाली
अंधकारमय रात्रि रहा करती है॥

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अब मैं कुसल मिटे भय भारे।
देखि राम पद कमल तुम्हारे॥
तुम्ह कृपाल जा पर अनुकूला।
ताहि न ब्याप त्रिबिध भव सूला॥

हे राम!
अब मैंने आपके चरणकमलोंका दर्शन कर लिया है,
इससे अब मैं कुशल हूं और मेरा
विकट भय भी निवृत्त हो गया है॥

हे प्रभु! हे दयालु!
आप जिसपर अनुकूल रहते हो
उसको तीन प्रकारके भय और दुःख
(आध्यात्मिक, आधिदैविक और आधिभौतिक ताप),
कभी नहीं व्यापते॥

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मैं निसिचर अति अधम सुभाऊ।
सुभ आचरनु कीन्ह नहिं काऊ॥
जासु रूप मुनि ध्यान न आवा।
तेहिं प्रभु हरषि हृदयँ मोहि लावा॥

हे प्रभु! मैं जातिका राक्षस हूं।
मेरा स्वभाव अति अधम है।
मैंने कोईभी शुभ आचरन नहीं किया है॥

तिसपरभी प्रभुने कृपा करके आनंदसे मुझको छातीसे लगाया कि
जिस प्रभुके स्वरूपको ध्यान पाना मुनिलोगोंको कठिन है॥

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दोहा – 47

अहोभाग्य मम अमित अति राम कृपा सुख पुंज।
देखेउँ नयन बिरंचि सिव सेब्य जुगल पद कंज ॥47॥

हे कृपा और सुख के पुंज श्री रामजी!
आज मेरा भाग्य बड़ा अमित और अपार हैं,
मेरा अत्यंत असीम सौभाग्य है,
क्योकि ब्रह्माजी और महादेवजी
जिन चरणारविन्द-युगलकी (युगल चरण कमलों कि) सेवा करते हैं,
उन चरणकमलोंका मैंने अपने नेत्रोंसे दर्शन किया ॥47॥


श्री राम, जय राम, जय जय राम

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प्रभु श्री रामचंद्रजी की महिमा

सुनहु सखा निज कहउँ सुभाऊ।
जान भुसुंडि संभु गिरिजाऊ॥
जौं नर होइ चराचर द्रोही।
आवै सभय सरन तकि मोही॥

बिभीषणकी भक्ति देखकर रामचन्द्रजीने कहा कि
हे सखा! सुनो, मै तुम्हे अपना स्वभाव कहता हूँ,
जिसे काकभुशुण्डि, शिवजी और पार्वतीजी भी जानती है।

प्रभु कहते हैं कि
जो मनुष्य चराचरसे (जड़-चेतन) द्रोह रखता हो,
(कोई मनुष्य संपूर्ण ज़ड़ –चेतन जगत् का द्रोही हो),
और वह भयभीत होकर मेरे शरण आ जाए तो॥

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तजि मद मोह कपट छल नाना।
करउँ सद्य तेहि साधु समाना॥
जननी जनक बंधु सुत दारा।
तनु धनु भवन सुहृद परिवारा॥

मद, मोह, कपट और नानाप्रकारके छलको त्याग दे, तो हे सखा!
मैं उसको साधु पुरुषके समान कर देता हूँ॥

देखो, माता, पिता, बंधू, पुत्र, स्त्री,
शरीर, धन, घर, मित्र और परिवार

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सब कै ममता ताग बटोरी।
मम पद मनहि बाँध बरि डोरी॥
समदरसी इच्छा कछु नाहीं।
हरष सोक भय नहिं मन माहीं॥

इन सबके ममतारूप तागोंको इकट्ठा करके
एक सुन्दर डोरी बट (डोरी बनाकर) और
उससे अपने मनको मेरे चरणोंमें बांध दे।

अर्थात् सबमेंसे ममता छोड़कर केवल मुझमें ममता रखें,
जैसे, त्वमेव माता पिता त्वमेव त्वमेव बंधूश्चा सखा त्वमेव। त्वमेव विद्या द्रविणं त्वमेव त्वमेव सर्व मम देवदेव॥

जो भक्त समदर्शी है और जिसके किसी प्रकारकी इच्छा नहीं हे तथा
जिसके मनमें हर्ष, शोक, और भय नहीं है॥

Or

इस सबको ममत्व रूपी तागो में बटोरकर और
उन सबकी एक डोरी बनाकर
उसके द्वारा जो अपने मन को मेरे चरणो मे बाँध देता है।
(सारे सांसारिक संबंधो का केन्द्र मुझे बना लेता है),
जो समद्रशी है, जिसे कुछ इच्छा नही है और
जिसके मन मे हर्ष, शोक और भय नही है।

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अस सज्जन मम उर बस कैसें।
लोभी हृदयँ बसइ धनु जैसें॥
तुम्ह सारिखे संत प्रिय मोरें।
धरउँ देह नहिं आन निहोरें॥

ऐसे सत्पुरुष मेरे हृदयमें कैसे रहते है
कि जैसे लोभी आदमीके मन में धन सदा बसा रहता है ॥

हे बिभीषण! तुम्हारे जैसे जो प्यारे सन्त भक्त हैं
उन्हीके लिए मैं देह धारण करता हूं और
दूसरा मेरा कुछ भी प्रयोजन नहीं है॥

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दोहा – 48

सगुन उपासक परहित निरत नीति दृढ़ नेम।
ते नर प्रान समान मम जिन्ह कें द्विज पद प्रेम ॥48॥

जो लोग सगुण उपासना करते हैं, बड़े हितकारी हैं,
नीतिमें निरत है, नियममें दृढ़ है और
जिनकी ब्राह्मणोंके चरणकमलों में प्रीति है,
वे मनुष्य मुझको प्राणों के समान प्यारे लगते हें ॥48॥


श्री राम, जय राम, जय जय राम




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