<< दुर्गा सप्तशती अध्याय 4
दुर्गा सप्तशती अध्याय की लिस्ट – Index
दुर्गा सप्तशती अध्याय 5 में –
- देवताओंद्वारा देवीकी स्तुति,
- या देवी सर्वभूतेषु मंत्र
- चण्ड-मुण्डके मुखसे अम्बिकाके रूपकी प्रशंसा सुनकर,
- शुम्भका उनके पास दूत भेजना और
- दूतका निराश लौटना
दुर्गा सप्तशती अध्याय 5 का विनियोग और ध्यान
॥विनियोगः॥
ॐ अस्य श्रीउत्तरचरित्रस्य रूद्र ऋषिः, महासरस्वती देवता, अनुष्टुप्
छन्दः, भीमा शक्तिः, भ्रामरी बीजम्, सूर्यस्तत्त्वम्, सामवेदः स्वरूपम्,
महासरस्वतीप्रीत्यर्थे उत्तरचरित्रपाठे विनियोगः।
विनियोग
- ॐ – इस उत्तर चरित्रके रुद्र ऋषि हैं,
- महासरस्वती देवता हैं,
- अनुष्टप छन्द है,
- भीमा शक्ति है,
- भ्रामरी बीज है,
- सूर्य तत्त्व है और
- सामवेद स्वरूप है।
- महासरस्वतीकी प्रसत्रताके लिये,
- उत्तर चरित्रके पाठमें,
- इसका विनियोग किया जाता है।
॥ध्यानम्॥
ॐ घण्टाशूलहलानि शङ्खमुसले चक्रं धनुः सायकं
हस्ताब्जैर्दधतीं घनान्तविलसच्छीतांशुतुल्यप्रभाम्।
गौरीदेहसमुद्भवां त्रिजगतामाधारभूतां महा-
पूर्वामत्र सरस्वतीमनुभजे शुम्भादिदैत्यार्दिनीम्॥
ध्यान
- जो अपने करकमलोंमें,
- घण्टा, शूल, हल, शंख,
- मूसल, चक्र, धनुष और
- बाण धारण करती हैं।
- शरद-ऋतुके शोभासम्पत्र चन्द्रमाके समान,
- जिनकी मनोहर कान्ति है,
- जो तीनों लोकोंकी आधारभूता और शुम्भ आदि दैत्योंका नाश करनेवाली हैं तथा
- गौरीके शरीरसे जिनका प्राकट्य हुआ है,
- उन महासरस्वती देवीका,
- मैं निरन्तर भजन करता (करती) हूँ।
ऊं नमश्चंडिकायैः नमो नमः
दुर्गा सप्तशती अध्याय 5 – देवीकी स्तुति – या देवी सर्वभूतेषु
शुम्भ और निशुम्भ असुरों को बल का घमंड
ॐ क्लीं ऋषिरुवाच॥१॥
पुरा शुम्भनिशुम्भाभ्यामसुराभ्यां शचीपतेः।
त्रैलोक्यं यज्ञभागाश्च हृता मदबलाश्रयात्॥२॥
- महर्षि मेधा कहते हैं –
- पूर्वकाल में शुम्भ और निशुम्भ नामक असुरों ने,
- अपने बल के घमंड में आकर,
- शचीपति इंद्र के हाथ से,
- तीनों लोकों का राज्य और
- यज्ञभाग छीन लिए।
तावेव सूर्यतां तद्वदधिकारं तथैन्दवम्।
कौबेरमथ याम्यं च चक्राते वरुणस्य च॥३॥
- वे दोनों,
- सूर्य, चंद्रमा, कुबेर, यम और
- वरुण के अधिकार का भी,
- उपयोग करने लगे।
- वायु और अग्नि का कार्य भी,
- वे ही करने लगे।
तावेव पवनर्द्धिं च चक्रतुर्वह्निकर्म च।
ततो देवा विनिर्धूता भ्रष्टराज्याः पराजिताः॥४॥
- उन दोनों ने सब देवताऒं को,
- अपमानित, राज्यभ्रष्ट,
- पराजित तथा अधिकारहीन करके,
- स्वर्ग से निकाल दिया।
इंद्र आदि देवता, माँ जगदम्बा की शरण में जाते है
हृताधिकारास्त्रिदशास्ताभ्यां सर्वे निराकृताः।
महासुराभ्यां तां देवीं संस्मरन्त्यपराजिताम्॥५॥
- उन दोनों असुरों से,
- तिरस्कृत देवताऒं ने,
- अपराजिता देवी का स्मरण किया और सोचा –
तयास्माकं वरो दत्तो यथाऽऽपत्सु स्मृताखिलाः।
भवतां नाशयिष्यामि तत्क्षणात्परमापदः॥६॥
- “जगदम्बा ने वर दिया था कि
- आपत्ति काल में स्मरण करने पर,
- मैं तुम्हारी आपत्तियों का नाश कर दूंगी।”
देवताओं द्वारा माँ भगवती की स्तुति
इति कृत्वा मतिं देवा हिमवन्तं नगेश्वरम्।
जग्मुस्तत्र ततो देवीं विष्णुमायां प्रतुष्टुवुः॥७॥
- यह विचारकर देवता गिरिराज हिमालयपर गए और
- वहां भगवती विष्णु माया की स्तुति करने लगे।
जगदम्बा देवी को नमस्कार
देवा ऊचुः॥८॥
नमो देव्यै महादेव्यै शिवायै सततं नमः।
नमः प्रकृत्यै भद्रायै नियताः प्रणताः स्मताम्॥९॥
- देवता बोले – देवी को नमस्कार है,
- महादेवी शिवा को सर्वदा नमस्कार है।
- प्रकृति एवं भद्रा को प्रणाम है।
- हमलोग नियमपूर्वक जगदम्बाको
- नमस्कार करते हैं।
माँ गौरी को नमस्कार
रौद्रायै नमो नित्यायै गौर्ये धात्र्यै नमो नमः।
ज्योत्स्नायै चेन्दुरूपिण्यै सुखायै सततं नमः॥१०॥
- नित्या, गौरी एवं धात्री को
- बारम्बार नमस्कार है।
- ज्योत्सनामयी, चद्ररूपिणी एवं
- सुख स्वरूपा देवी को
- सतत प्रणाम है।
लक्ष्मी माता को नमस्कार
कल्याण्यै प्रणतां वृद्ध्यै सिद्ध्यै कुर्मो नमो नमः।
नैर्ऋत्यै भूभृतां लक्ष्म्यै शर्वाण्यै ते नमो नमः॥११॥
- शरणागतों का कल्याण करने वाली,
- वृद्धि एवं सिद्धिरूपा देवी को
- हम बारम्बार नमस्कार करते हैं।
- नैर्ऋती (राक्षसों की लक्ष्मी), राजाऒं की लक्ष्मी तथा
- शर्वाणी (शिवपत्नी)-स्वरूपा,
- आप जगदम्बा को
- बार-बार नमस्कार है।
माँ दुर्गा को नमस्कार
दुर्गायै दुर्गपारायै सारायै सर्वकारिण्यै।
ख्यात्यै तथैव कृष्णायै धूम्रायै सततं नमः॥१२॥
- दुर्गा, दुर्गपारा (दुर्गम संकट से पार उतारनेवाली),
- सारा (सबकी सारभूता), सर्वकारिणी,
- ख्याति, कृष्णा और धूम्रा देवी को
- सर्वदा नमस्कार है।
अतिसौम्यातिरौद्रायै नतास्तस्यै नमो नमः।
नमो जगत्प्रतिष्ठायै देव्यै कृत्यै नमो नमः॥१३॥
- अत्यंत सौम्य तथा
- अत्यंत रौद्ररूपा देवी को
- हम नमस्कार करते हैं,
- उन्हें हमारा बारम्बार प्रणाम है।
जगत की आधार, विष्णु माया को नमस्कार
या देवी सर्वभूतेषु विष्णुमायेति शब्दिता।
नमस्तस्यै॥१४॥
नमस्तस्यै॥१५॥
नमस्तस्यै नमो नमः॥१६॥
- जगत की आधारभूता कृति देवी को
- बारम्बार नमस्कार है।
- जो देवी सब प्राणियों में,
- विष्णु माया के नाम से कही जाती हैं,
- उनको नमस्कार, उनको नमस्कार,
- उनको बारम्बार नमस्कार है।
सब प्राणियों में चेतना स्वरूप
या देवी सर्वभूतेषु चेतनेत्यभिधीयते।
नमस्तस्यै॥१७॥
नमस्तस्यै॥१८॥
नमस्तस्यै नमो नमः॥१९॥
- जो देवी सब प्राणियों में चेतना कहलाती हैं,
- उनको नमस्कार, उनको नमस्कार,
- उनको बारम्बार नमस्कार है।
बुद्धिरूप
या देवी सर्वभूतेषु बुद्धिरूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै॥२०॥
नमस्तस्यै॥२१॥
नमस्तस्यै नमो नमः॥२२॥
- जो देवी सब प्राणियों में बुद्धिरूप से स्थित हैं,
- उनको नमस्कार, उनको नमस्कार,
- उनको बारम्बार नमस्कार है।
निद्रा रूप
या देवी सर्वभूतेषु निद्रारूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै॥२३॥
नमस्तस्यै॥२४॥
नमस्तस्यै नमो नमः॥२५॥
- जो देवी सब प्राणियों में निद्रा रूप से स्थित हैं,
- उनको नमस्कार, उनको नमस्कार,
- उनको बारम्बार नमस्कार है।
क्षुधा रूप
या देवी सर्वभूतेषु क्षुधारूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै॥२६॥
नमस्तस्यै॥२७॥
नमस्तस्यै नमो नमः॥२८॥
- जो देवी सब प्राणियों में क्षुधा रूप से स्थित हैं,
- उनको नमस्कार, उनको नमस्कार,
- उनको बारम्बार नमस्कार है।
छाया रूप
या देवी सर्वभूतेषु छायारूपेण संस्थिता॥
नमस्तस्यै॥२९॥
नमस्तस्यै॥३०॥
नमस्तस्यै नमो नमः॥३१॥
- जो देवी सब प्राणियों में छाया रूप से स्थित हैं,
- उनको नमस्कार, उनको नमस्कार,
- उनको बारम्बार नमस्कार है।
शक्ति रूप
या देवी सर्वभूतेषु शक्तिरूपेण संस्थिता॥
नमस्तस्यै॥३२॥
नमस्तस्यै॥३३॥
नमस्तस्यै नमो नमः॥३४॥
- जो देवी सब प्राणियों में शक्ति रूप से स्थित हैं,
- उनको नमस्कार, उनको नमस्कार,
- उनको बारम्बार नमस्कार है।
तृष्णा रूप
या देवी सर्वभूतेषु तृष्णारूपेण संस्थिता॥
नमस्तस्यै॥३५॥
नमस्तस्यै॥३६॥
नमस्तस्यै नमो नमः॥३७॥
- जो देवी सब प्राणियों में तृष्णा रूप से स्थित हैं,
- उनको नमस्कार, उनको नमस्कार,
- उनको बारम्बार नमस्कार है।
क्षान्ति, क्षमा रूप
या देवी सर्वभूतेषु क्षान्तिरूपेण संस्थिता॥
नमस्तस्यै॥३८॥
नमस्तस्यै॥३९॥
नमस्तस्यै नमो नमः॥४०॥
- जो देवी सब प्राणियों में क्षमा रूप से स्थित हैं,
- उनको नमस्कार, उनको नमस्कार,
- उनको बारम्बार नमस्कार है।
जाती अर्थात जन्म रूप
या देवी सर्वभूतेषु जातिरूपेण संस्थिता॥
नमस्तस्यै॥४१॥
नमस्तस्यै॥४२॥
नमस्तस्यै नमो नमः॥४३॥
- जो देवी सब प्राणियों में जातिरूप से स्थित हैं,
- उनको नमस्कार, उनको नमस्कार,
- उनको बारम्बार नमस्कार है।
- जाति अर्थात : जन्म, सभी वस्तुओ का मूल कारण
- जातिरूपेण अर्थात जो देवी सभी प्राणियों का मूल कारण है
या देवी सर्वभूतेषु लज्जारूपेण संस्थिता॥
नमस्तस्यै॥४४॥
नमस्तस्यै॥४५॥
नमस्तस्यै नमो नमः॥४६॥
- जो देवी सब प्राणियों में लज्जा रूप से स्थित हैं,
- उनको नमस्कार, उनको नमस्कार,
- उनको बारम्बार नमस्कार है।
या देवी सर्वभूतेषु शान्तिरूपेण संस्थिता॥
नमस्तस्यै॥४७॥
नमस्तस्यै॥४८॥
नमस्तस्यै नमो नमः॥४९॥
- जो देवी सब प्राणियों में शान्ति रूप से स्थित हैं,
- उनको नमस्कार, उनको नमस्कार,
- उनको बारम्बार नमस्कार है।
या देवी सर्वभूतेषु श्रद्धारूपेण संस्थिता॥
नमस्तस्यै॥५०॥
नमस्तस्यै॥५१॥
नमस्तस्यै नमो नमः॥५२॥
- जो देवी सब प्राणियों में श्रद्धा रूप से स्थित हैं,
- उनको नमस्कार, उनको नमस्कार,
- उनको बारम्बार नमस्कार है।
या देवी सर्वभूतेषु कान्तिरूपेण संस्थिता॥
नमस्तस्यै॥५३॥
नमस्तस्यै॥५४॥
नमस्तस्यै नमो नमः॥५५॥
- जो देवी सब प्राणियों में कांति रूप से स्थित हैं,
- उनको नमस्कार, उनको नमस्कार,
- उनको बारम्बार नमस्कार है।
या देवी सर्वभूतेषु लक्ष्मीरूपेण संस्थिता॥
नमस्तस्यै॥५६॥
नमस्तस्यै॥५७॥
नमस्तस्यै नमो नमः॥५८॥
- जो देवी सब प्राणियों में लक्ष्मी रूप से स्थित हैं,
- उनको नमस्कार, उनको नमस्कार,
- उनको बारम्बार नमस्कार है।
या देवी सर्वभूतेषु वृत्तिरूपेण संस्थिता॥
नमस्तस्यै॥५९॥
नमस्तस्यै॥६०॥
नमस्तस्यै नमो नमः॥६१॥
- जो देवी सब प्राणियों में वृत्ति रूप से स्थित हैं,
- उनको नमस्कार, उनको नमस्कार,
- उनको बारम्बार नमस्कार है।
या देवी सर्वभूतेषु स्मृतिरूपेण संस्थिता॥
नमस्तस्यै॥६२॥
नमस्तस्यै॥६३॥
नमस्तस्यै नमो नमः॥६४॥
- जो देवी सब प्राणियों में स्मृति रूप से स्थित हैं,
- उनको नमस्कार, उनको नमस्कार,
- उनको बारम्बार नमस्कार है।
या देवी सर्वभूतेषु दयारूपेण संस्थिता॥
नमस्तस्यै॥६५॥
नमस्तस्यै॥६६॥
नमस्तस्यै नमो नमः॥६७॥
- जो देवी सब प्राणियों में दया रूप से स्थित हैं,
- उनको नमस्कार, उनको नमस्कार,
- उनको बारम्बार नमस्कार है।
या देवी सर्वभूतेषु तुष्टिरूपेण संस्थिता॥
नमस्तस्यै॥६८॥
नमस्तस्यै॥६९॥
नमस्तस्यै नमो नमः॥७०॥
- जो देवी सब प्राणियों में तुष्टि रूप से स्थित हैं,
- उनको नमस्कार, उनको नमस्कार,
- उनको बारम्बार नमस्कार है।
या देवी सर्वभूतेषु मातृरूपेण संस्थिता॥
नमस्तस्यै॥७१॥
नमस्तस्यै॥७२॥
नमस्तस्यै नमो नमः॥७३॥
- जो देवी सब प्राणियों में मातारूप से स्थित हैं,
- उनको नमस्कार, उनको नमस्कार,
- उनको बारम्बार नमस्कार है।
या देवी सर्वभूतेषु भ्रान्तिरूपेण संस्थिता॥
नमस्तस्यै॥७४॥
नमस्तस्यै॥७५॥
नमस्तस्यै नमो नमः॥७६॥
- जो देवी सब प्राणियों में भ्रांति रूप से स्थित हैं,
- उनको नमस्कार, उनको नमस्कार,
- उनको बारम्बार नमस्कार है।
इन्द्रियाणामधिष्ठात्री भूतानां चाखिलेषु या।
भूतेषु सततं तस्यै व्याप्तिदेव्यै नमो नमः॥७७॥
- जो जीवों के इंद्रिय वर्ग की अधिष्ठात्री देवी एवं
- सब प्राणियों में सदा व्याप्त रहने वाली हैं,
- उन व्याप्ति देवी को बारम्बार नमस्कार है।
चितिरूपेण या कृत्स्नमेतद् व्याप्य स्थिता जगत्।
नमस्तस्यै॥७८॥
नमस्तस्यै॥७९॥
नमस्तस्यै नमो नमः॥८०॥
- जो देवी चैतन्य रूप से,
- इस सम्पूर्ण जगत को व्याप्त करके स्थित हैं,
- उनको नमस्कार, उनको नमस्कार,
- उनको बारम्बार नमस्कार है।
स्तुता सुरैः पूर्वमभीष्टसंश्रयात्तथा सुरेन्द्रेण दिनेषु सेविता।
करोतु सा नः शुभहेतुरीश्वरी शुभानि भद्राण्यभिहन्तु चापदः॥८१॥
- पूर्वकाल में अपने अभीष्ट की प्राप्ति होने से,
- देवताऒं ने जिनकी स्तुति की तथा
- देवराज इंद्र ने बहुत दिनोंतक जिनका ध्यान किया,
- वह कल्याण की साधनभूता ईश्वरी,
- हमारा कल्याण और मंगल करें तथा
- सारी आपत्तियों का नाश कर डाले।
या साम्प्रतं चोद्धतदैत्यतापितैरस्माभिरीशा च सुरैर्नमस्यते।
या च स्मृता तत्क्षणमेव हन्ति नः सर्वापदो भक्तिविनम्रमूर्तिभिः॥८२॥
- उद्दंड दैत्यों से सताए हुए हम सभी देवता,
- जिन परमेश्वरी को इस समय नमस्कार करते हैं तथा
- जो भक्ति से, विनम्र पुरुषों द्वारा,
- स्मरण की जाने पर,
- तत्काल ही सभी संकटों का नाश कर देती हैं,
- वे जगदम्बा हमारा संकट दूर करें।
देवी पार्वती, अम्बिका, कौशिकी और कालिका
ऋषिरुवाच॥८३॥
एवं स्तवादियुक्तानां देवानां तत्र पार्वती।
स्नातुमभ्याययौ तोये जाह्नव्या नृपनन्दन॥८४॥
- मेधा ऋषि कहते हैं – राजन!
- इस प्रकार जब देवता स्तुति कर रहे थे,
- उस समय पार्वती देवी,
- गंगाजी के जल में स्नान करने के लिए वहां आईं।
साब्रवीत्तान् सुरान् सुभ्रूर्भवद्भिः स्तूयतेऽत्र का।
शरीरकोशतश्चास्याः समुद्भूताब्रवीच्छिवा॥८५॥
- उन सुंदर भौंहों वाली भगवती ने देवताऒं से पूछा –
- “आपलोग यहां किसकी स्तुति करते हैं?”
- तब उन्हीं के शरीर कोश से प्रकट हुई शिवा देवी बोलीं –
स्तोत्रं ममैतत् क्रियते शुम्भदैत्यनिराकृतैः।
देवैः समेतैः समरे निशुम्भेन पराजितैः॥८६॥
- “शुम्भ दैत्य से तिरस्कृत और
- युद्ध में निशुम्भ से पराजित हो,
- यहाँ एकत्रित हुए ये समस्त देवता मेरी ही स्तुति कर रहे हैं।”
शरीरकोशाद्यत्तस्याः पार्वत्या निःसृताम्बिका।
कौशिकीति समस्तेषु ततो लोकेषु गीयते॥८७॥
- पार्वतीजी के शरीर कोश से,
- अम्बिका का प्रादुर्भाव हुआ था,
- इसलिए वे समस्त लोकों में “कौशिकी” कही जाती हैं।
तस्यां विनिर्गतायां तु कृष्णाभूत्सापि पार्वती।
कालिकेति समाख्याता हिमाचलकृताश्रया॥८८॥
- कौशिकी के प्रकट होने के बाद,
- पार्वती देवी का शरीर काले रंग का हो गया,
- अत: वे हिमालयपर रहनेवाली,
- कालिका देवीके नामसे विख्यात हुईं।
चंड-मुंड ने माँ अम्बिका को हिमालय पर्वत पर देखा
ततोऽम्बिकां परं रूपं बिभ्राणां सुमनोहरम्।
ददर्श चण्डो मुण्डश्च भृत्यौ शुम्भनिशुम्भयोः॥८९॥
- तदनंतर, शुम्भ-निशुम्भ के भृत्य,
- चंड-मुंड वहां आए और
- उन्होंने परम मनोहर रूप धारण करने वाली,
- अम्बिका देवी को देखा।
चंड-मुंड, शुम्भ राक्षस को माँ अम्बिका के बारे में बताते है
ताभ्यां शुम्भाय चाख्याता अतीव सुमनोहरा।
काप्यास्ते स्त्री महाराज भासयन्ती हिमाचलम्॥९०॥
- वे शुम्भ के पास जाकर बोले –
- “महाराज! एक अत्यंत मनोहर स्त्री है,
- जो अपनी दिव्य कांति से,
- हिमालय को प्रकाशित कर रही है।”
नैव तादृक् क्वचिद्रूपं दृष्टं केनचिदुत्तमम्।
ज्ञायतां काप्यसौ देवी गृह्यतां चासुरेश्वर॥९१॥
- वैसा उत्तम रूप,
- कहीं किसी ने भी नहीं देखा होगा।
- असुरेश्वर! पता लगाइए,
- वह देवी कौन है और उसे ले लीजिये।
स्त्रीरत्नमतिचार्वङ्गी द्योतयन्ती दिशस्त्विषा।
सा तु तिष्ठति दैत्येन्द्र तां भवान् द्रष्टुमर्हति॥९२॥
- स्त्रियों में तो वह रत्न है,
- उसका प्रत्येक अंग बहुत ही सुंदर तथा
- वह अपनी प्रभा से संपूर्ण दिशाऒं में प्रकाश फैला रही है।
- दैत्यराज! अभी वह हिमालय पर ही मौजूद है।
चंड-मुंड द्वारा असुर शुम्भ और निशुम्भ की प्रशंसा
यानि रत्नानि मणयो गजाश्वादीनि वै प्रभो।
त्रैलोक्ये तु समस्तानि साम्प्रतं भान्ति ते गृहे॥९३॥
- हे प्रभो! तीनों लोकों में मणि, हाथी और
- घोड़े आदि जितने भी रत्न हैं,
- वे सब इस समय आपके चरणों में शोभा पाते हैं।
ऐरावतः समानीतो गजरत्नं पुरन्दरात्।
पारिजाततरुश्चायं तथैवोच्चैःश्रवा हयः॥९४॥
- हाथियों में रत्नभूत ऐरावत,
- यह पारिजात का वृक्ष और
- यह उच्चैश्रवा घोड़ा –
- यह सब आपने इंद्र से ले लिया है।
विमानं हंससंयुक्तमेतत्तिष्ठति तेऽङ्गणे।
रत्नभूतमिहानीतं यदासीद्वेधसोऽद्भुतम्॥९५॥
- हंसों से जुता हुआ यह विमान भी,
- आपके आंगन में शोभा पाता है।
- यह रत्नभूत अद्भुत विमान,
- जो पहले ब्रह्माजी के पास था,
- अब आपके यहां लाया गया है।
- यह महापद्म नामक निधि,
- आप कुबेर से छीन लाए हैं।
निधिरेष महापद्मः समानीतो धनेश्वरात्।
किञ्जल्किनीं ददौ चाब्धिर्मालामम्लानपङ्कजाम्॥९६॥
- समुद्रने भी,
- आपको किंजल्किनी नाम की माला भेंट की है,
- जो केसरों से सुशोभित है और
- जिसके कमल कभी कुम्हलाते नहीं हैं।
छत्रं ते वारुणं गेहे काञ्चनस्रावि तिष्ठति।
तथायं स्यन्दनवरो यः पुराऽऽसीत्प्रजापतेः॥९७॥
- सुवर्ण की वर्षा करनेवाला,
- वरुण का छत्र भी
- आपके घर में शोभा पाता है।
- तथा यह श्रेष्ठ रथ,
- जो पहले प्रजा पतीके अधिकार में था,
- अब आपके पास मौजूद है।
मृत्योरुत्क्रान्तिदा नाम शक्तिरीश त्वया हृता।
पाशः सलिलराजस्य भ्रातुस्तव परिग्रहे॥९८॥
निशुम्भस्याब्धिजाताश्च समस्ता रत्नजातयः।
वह्निरपि ददौ तुभ्यमग्निशौचे च वाससी॥९९॥
- दैत्येश्वर!
- मृत्यु की उत्क्रांतिदा नामक शक्ति भी,
- आपने छीन ली है तथा
- वरुण का पाश और
- समुद्र में होने वाले सब प्रकार के रत्न,
- आपके भाई निशुम्भके अधिकारमें हैं।
- अग्नि ने भी स्वत: शुद्ध किए हुए,
- दो वस्त्र आपकी सेवामें अर्पित किए हैं।
एवं दैत्येन्द्र रत्नानि समस्तान्याहृतानि ते।
स्त्रीरत्नमेषा कल्याणी त्वया कस्मान्न गृह्यते॥१००॥
- है दैत्यराज! इस प्रकार सभी रत्न आपने एकत्र कर लिए हैं।
- फिर जो यह स्त्रियों में रत्नरूप कल्याणमयी देवी हैं,
- इसे आप क्यों नहीं अपने अधिकारमें कर लेते?
ऋषिरुवाच॥१०१॥
निशम्येति वचः शुम्भः स तदा चण्डमुण्डयोः।
प्रेषयामास सुग्रीवं दूतं देव्या महासुरम्॥१०२॥
- मेधा ऋषि कहते हैं – चंड-मुंड का यह वचन सुनकर,
- शुम्भ ने महादैत्य सुग्रीव को,
- दूत बनाकर देवी के पास भेजा और कहा –
इति चेति च वक्तव्या सा गत्वा वचनान्मम।
यथा चाभ्येति सम्प्रीत्या तथा कार्यं त्वया लघु॥१०३॥
- – तुम मेरी ये-ये बातें कहना और
- ऐसा उपाय करना,
- जिससे प्रसन्न होकर,
- वह शीघ्र ही यहां आ जाए।
स तत्र गत्वा यत्रास्ते शैलोद्देशेऽतिशोभने।
सा देवी तां ततः प्राहश्लक्ष्णं मधुरया गिरा॥१०४॥
- वह दूत,
- पर्वत के रमणीय प्रदेश में जहां देवी मौजूद थीं,
- वहां गया और
- मधुर वाणी में कोमल वचन बोला।
दूत उवाच॥१०५॥
देवि दैत्येश्वरः शुम्भस्त्रैलोक्ये परमेश्वरः।
दूतोऽहं प्रेषितस्तेन त्वत्सकाशमिहागतः॥१०६॥
- दूत बोला –
- “देवि! दैत्यराज शुम्भ इस समय तीनों लोकों के परमेश्वर हैं।
- मैं उन्हीं का भेजा दूत हूं और
- यहां तुम्हारे पास आया हूं।”
अव्याहताज्ञः सर्वासु यः सदा देवयोनिषु।
निर्जिताखिलदैत्यारिः स यदाह श्रृणुष्व तत्॥१०७॥
- उनकी आज्ञा सदा सब देवता एक स्वर से मानते हैं।
- कोई उसका उल्लंघन नहीं कर सकता।
- वे सम्पूर्ण देवताऒं को परास्त कर चुके हैं।
- उन्होंने तुम्हारे लिए जो संदेश दिया है, उसे सुनो –
मम त्रैलोक्यमखिलं मम देवा वशानुगाः।
यज्ञभागानहं सर्वानुपाश्नामि पृथक् पृथक्॥१०८॥
- “सम्पूर्ण त्रिलोकी मेरे अधिकार में है।
- देवता भी मेरी आज्ञाके अधीन चलते हैं।
- सभी यज्ञों के भागों को मैं ही पृथक-पृथक भोगता हूं।
त्रैलोक्ये वररत्नानि मम वश्यान्यशेषतः।
तथैव गजरत्नं च हृत्वा देवेन्द्रवाहनम्॥१०९॥
- तीनों लोकों में जितने श्रेष्ठ रत्न हैं,
- वे सब मेरे अधिकार में हैं।
- देवराज इंद्र का वाहन ऐरावत,
- जो हाथियों में रत्नके समान है,
- मैंने छीन लिया है।
क्षीरोदमथनोद्भूतमश्वरत्नं ममामरैः।
उच्चैःश्रवससंज्ञं तत्प्रणिपत्य समर्पितम्॥११०॥
- क्षीर सागर का मंथन करने से जो अश्वरत्न उच्चैश्रवा प्रकट हुआ था,
- उसे देवताऒं ने मेरे पैरों पर पड़कर समर्पित किया है।
यानि चान्यानि देवेषु गन्धर्वेषूरगेषु च।
रत्नभूतानि भूतानि तानि मय्येव शोभने॥१११॥
- सुंदरी! उनके सिवा और भी जितने रत्नभूत पदार्थ,
- देवताऒं, गधर्वों और नागों के पास थे,
- वे सब मेरे ही पास आ गए हैं।
स्त्रीरत्नभूतां त्वां देवि लोके मन्यामहे वयम्।
सा त्वमस्मानुपागच्छ यतो रत्नभुजो वयम्॥११२॥
- देवि! हम लोग तुम्हें संसार की स्त्रियों में रत्न मानते हैं,
- अत: तुम हमारे पास आ जाऒ,
- क्योंकि रत्नों का उपभोग करनेवाले हम ही हैं।
मां वा ममानुजं वापि निशुम्भमुरुविक्रमम्।
भज त्वं च चञ्चलापाङ्गि रत्नभूतासि वै यतः॥११३॥
- चंचल कटाक्षों वाली सुंदरी!
- तुम मेरी या मेरे भाई महापराक्रमी निशुम्भ की सेवा में आ जाऒ,
- क्योंकि तुम रत्न स्वरूपा हो।
परमैश्वर्यमतुलं प्राप्स्यसे मत्परिग्रहात्।
एतद् बुद्ध्या समालोच्य मत्परिग्रहतां व्रज॥११४॥
- मेरा वरण करने से तुम्हें तुलनारहित महान ऐश्वर्य की प्राप्ति होगी।
- अपनी बुद्धि से यह विचारकर तुम मेरी पत्नी बन जाऒ।
ऋषिरुवाच॥११५॥
इत्युक्ता सा तदा देवी गम्भीरान्तःस्मिता जगौ।
दुर्गा भगवती भद्रा ययेदं धार्यते जगत्॥११६॥
- मेधा ऋषि कहते हैं – दूत के यों कहने पर कल्याणमयी भगवती दुर्गादेवी,
- जो इस जगत को धारण करती हैं,
- मन-ही-मन गम्भीर भाव से मुस्कराई और
- इस प्रकार बोलीं –
देव्युवाच॥११७॥
सत्यमुक्तं त्वया नात्र मिथ्या किञ्चित्त्वयोदितम्।
त्रैलोक्याधिपतिः शुम्भो निशुम्भश्चापि तादृशः॥११८॥
- देवी ने कहा – दूत! तुमने सत्य कहा है,
- इसमें तनिक भी मिथ्या नहीं है।
- शुम्भ तीनों लोकों का स्वामी है और
- निशुम्भ भी उसी के समान पराक्रमी है
किं त्वत्र यत्प्रतिज्ञातं मिथ्या तत्क्रियते कथम्।
श्रूयतामल्पबुद्धित्वात्प्रतिज्ञा या कृता पुरा॥११९॥
- किंतु इस विषयमें मैंने जो प्रतिज्ञा कर ली है,
- उसे मिथ्या कैसे करूँ?
- मैंने अपनी अल्पबुद्धि के कारण,
- पहले से जो प्रतिज्ञा कर रखी है उसे सुनो।
यो मां जयति संग्रामे यो मे दर्पं व्यपोहति।
यो मे प्रतिबलो लोके स मे भर्ता भविष्यति॥१२०॥
- “जो मुझे संग्राम में जीत लेगा,
- जो मेरे अभिमान को चूर कर देगा तथा
- संसार में जो मेरे समान बलवान होगा,
- वही मेरा स्वामी होगा।”
तदागच्छतु शुम्भोऽत्र निशुम्भो वा महासुरः।
मां जित्वा किं चिरेणात्र पाणिं गृह्णातु मे लघु॥१२१॥
- “इसलिए शुम्भ अथवा निशुम्भ स्वयं ही यहां पधारें और
- मुझे जीतकर मेरा पाणिग्रहण कर लें,
- इसमें विलम्ब की क्या आवश्यकता?”
दूत उवाच॥१२२॥
अवलिप्तासि मैवं त्वं देवि ब्रूहि ममाग्रतः।
त्रैलोक्ये कः पुमांस्तिष्ठेदग्रे शुम्भनिशुम्भयोः॥१२३॥
- दूत बोला – देवि! तुम घमंड में भरी,
- मेरे सामने ऐसी बातें न करो।
- तीनों लोकों में कौन ऐसा पुरुष है,
- जो शुम्भ-निशुम्भके सामने खड़ा हो सके।
अन्येषामपि दैत्यानां सर्वे देवा न वै युधि।
तिष्ठन्ति सम्मुखे देवि किं पुनः स्त्री त्वमेकिका॥१२४॥
- देवि! अन्य दैत्यों के सामने भी सारे देवता युद्ध में नहीं ठहर सकते,
- फिर तुम अकेली स्त्री होकर कैसे ठहर सकती हो।
इन्द्राद्याः सकला देवास्तस्थुर्येषां न संयुगे।
शुम्भादीनां कथं तेषां स्त्री प्रयास्यसि सम्मुखम्॥१२५॥
- जिन शुम्भ आदि दैत्यों के सामने,
- इंद्र आदि सब देवता भी युद्ध में खड़े नहीं हुए,
- उनके सामने तुम स्त्री होकर कैसे जाऒगी।
सा त्वं गच्छ मयैवोक्ता पार्श्वं शुम्भनिशुम्भयोः।
केशाकर्षणनिर्धूतगौरवा मा गमिष्यसि॥१२६॥
- इसलिए तुम मेरे ही कहने से शुम्भ-निशुम्भ के पास चलो।
- ऐसा करने से तुम्हारे गौरवकी रक्षा होगी,
- अन्यथा जब वे केश पकड़कर घसीटेंगे,
- तब तुम्हें अपनी प्रतिष्ठा खोकर जाना पड़ेगा।
देव्युवाच॥१२७॥
एवमेतद् बली शुम्भो निशुम्भश्चातिवीर्यवान्।
किं करोमि प्रतिज्ञा मे यदनालोचिता पुरा॥१२८॥
- देवी ने कहा – तुम्हारा कहना ठीक है,
- शुम्भ बलवान हैं।
- निशुम्भ भी पराक्रमी है;
- किंतु मैंने पहले ही प्रतिज्ञा कर ली है।
स त्वं गच्छ मयोक्तं ते यदेतत्सर्वमादृतः।
तदाचक्ष्वासुरेन्द्राय स च युक्तं करोतु तत्॥ॐ॥१२९॥
- मैंने तुमसे जो कुछ कहा है,
- वह सब अपने स्वामी से कहना।
- वे जो उचित जान पड़े, करें।
इति श्रीमार्कण्डेयपुराणे सावर्णिके मन्वन्तरे देवीमाहात्म्ये देव्या
दूतसंवादो नाम पञ्चमोऽध्यायः॥५॥
- इस प्रकार श्रीमार्कंडेय पुराण में,
- सावर्णिक मन्वंतर की कथा के अंतर्गत,
- देवीमाहाम्य में
- “देवी-दूत-संवाद नामक”
- पांचवां अध्याय पूरा हुआ।
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