तुलसीदासजी दुष्टजनों को भी क्यों प्रणाम करते है?



बालकाण्ड के पिछले पेज में हमने देखा की
तुलसीदासजी सत्पुरुषों को प्रणाम क्यों करते है,
और सत्संग करने के लिए क्यों कहते है?

<<<< बाल काण्ड – सत्पुरुषों को प्रणाम क्यों करे?

लेकिन उन्होंने दुष्टजनों को भी प्रणाम किया है, क्यों?
इस पेज में देखेंगे की उन्होंने खलसमूहको भी क्यों वंदन किया है?


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सत्पुरुषोंको वंदन करके
अब दुष्ट जनोंको प्रणाम करते हैं.
मैं फिर सत्यभावसे खलसमूहको वंदन करता हूं. कि
जो निष्कारण दाहिने कहे मित्रोंके लिये भी
बाएं कहे टेढ़ होजाते हैं ॥ १ ॥

जो दूसरोंके नुकसानको तो अपना लाभ और
फायदेको अपना नुकसान मानते हैं

किसीको घर उजाड़ होता है
तो वे लोग बड़े खुश होते हैं और
बस जाता है तो बड़ा रज मानते हैं ॥२॥

श्रीशिवजी व श्रीविष्णुजीके सुयशरूप चंद्रमाके लिये तो
वे राहुके तुल्य हैं और
दूसरोंका काम बिगाड़नेमें वे सहस्रबाहु (कार्तवीर्य) के समान सुभट हैं ॥ ३ ॥

दूसरोंके दोषोंको देखनेके लिये
वे सहस्राक्ष यानी इंद्ररूप ही हैं और
दूसरोंका हित है सो तो उनके मनरूप मक्खीके लिये मानों घृत ही है.
जैसे मक्खी घृतसे मरजाती है
वैसे परहित देखकर उनका मन मुरझा जाता है ॥ ४ ॥

जिनका तेज अग्निके समान अतिप्रचंड और
क्रोध मानों यमराजके समान अतिदारुण है.
जो पाप और अवगुणरूप धनके तो साक्षात् कुबेर ही हैं ॥ ५ ॥

और सब लोगों के वास्ते जिनका उदय
केतु यानी दुमदार तारेके उदयके समान है,
जैसे केतुके उदयमें अवश्य उपद्रव होता है,
ऐसे खलोंके उदयमें जरूर उपद्रव होता है,
अतएव उन लोगोंका तो कुंभकर्णकी नाई सदा सोये पड़ा रहना ही अच्छा है ॥ ६ ॥


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जैसे पाला खेतीका नाश करनेके वास्ते
आपभी गल जाता है पर
खेतीका जरूर विध्वंस कर देता है
ऐसे खललोगभी पराये बिगाड़के वास्ते
अपना शरीर त्याग देते हैं
पर पराया बिगाड़ जरूर करते हैं ॥ ७ ॥

१. इसपर एक इतिहास है.
जैसे कि कोई मनुष्य परदेश जानेके लिये यात्रा करके चलाथा कि,
इतनेमें उसका शत्रु इसका अपशकुन अवश्य करना चाहिये ऐसे विचार, उसके संमुख गया.
तब उसने पूर्णांग देखके, अपशकुन न माना;
तबतो इसने चट खीसेसे चाकू निकाल, अपनी नाक काटडाली और
उसका अपशकुन कर दिया.


शेषजीके सरीखा अतिउत्कट जिनका क्रोध है
ऐसे शेषजीके समान गुणवाले खल लोगोंको मैं वंदन करता हूं.

शेषजी तौ श्रीरामचन्द्रजीके गुणवर्णनके लिये
सहस्र मुख धारण करते हैं और
खललोग पराया दोष कहनेके लिये हजार मुखकी सामर्थ्य रखते हैं ॥ ८ ॥


फिर पृथुराजाके समान गुणवाले खललोगोंको मैं वंदन करता हूं कि
जो परनिंदा सुननेके लिये दश सहस्र कानोंकी सामर्थ्य रखते हैं ॥ ९ ॥

२ पृथुने भी भगवान्का चरित्र सुननेके लिये भगवान्से दश सहस्र १०००० कान मांगे थे.
यह कथा श्रीमद्भागवतके ४ चतुर्थस्कन्धमें है.


फिर इंद्रजीके सदृश जो खल लोग हैं
उनसे मैं विनती करता हूं.

इंद्रजी जो हैं उनको सदा सुर कहे देवताओंकी अनीक कहे सेना अतिप्रिय है और
खल लोगोंको सुरा कहे मदिराका अनीक कहे समूह अतिप्रिय है ॥ १० ॥

जैसे इंद्रजीको वज्र सदा प्रिय है
ऐसे दुष्ट पुरुषोंको वचनरूप वज्र सदा प्रिय लगता है. और
खललोग पराया दोष देखनेमें सहस्रनयन यानी इंद्ररूप हैं ॥ ११ ॥


खल लोगोंकी यह रीति है कि
जब वे उदासीन, वैरी वा मित्र हर किसीका भला सुनते हैं
तब सुनतेही अपने आप जल जाते हैं.
अतएव दोनों हाथ पैर जोड़कर,
प्रीतिके साथ मैं उनसे प्रार्थना करता हूं ॥ ५ ॥


मैंने तो अपनी ओरसे अच्छी तरह निहोरे कर लिये हैं
पर वे तौ भूल कर भी अपनी ओर नहीं लावेंगे
अर्थात् मेरी विनती अंगीकार नहीं करेंगे ॥ १ ॥

चाहो कव्वेको भलेही बड़ी प्रीतिके साथ पालो
पर क्या वह कव्वा कभी निरामिष हो सकता है
यानी महा दुर्गंधित सड़े जानवरके मांसका खाना छोड़ देगा ?
कभी नहीं ॥ २ ॥

३ यहां – पायस – यह भी पाठ है.
इसका यह अर्थ होगा कि चाहै कौव्वेको, बड़े स्नेहके साथ,
खीर खिला खिला के पालो
पर वह कदापि निरामिष नहीं हो सकता.

आगे सत्पुरुष और दुष्टजनों में क्या फर्क है?