शिव पुराण – उमासंहिता – अध्याय 4 से 10



शिव पुराण के उमासंहिता खंड में
अध्याय 4 से 10 तक में
नरक और उसके बारे में वर्णन दिया गया है और
कैसे मनुष्य, पापी और पुण्यात्मा दोनों,
यमलोककी की यात्रा करते है।

यह सब बताकर
एक अध्याय में यह चेतावनी दी गयी है की –

इसलिये किये हुए पापका
प्रायश्चित्त कर लेना चाहिये।
अन्यथा सौ करोड़ कल्पोंमें भी
बिना भोगे हुए
पापका नाश नहीं हो सकता।


नरकोंकी अट्ठाईस कोटियां तथा प्रत्येकके पाँच-पाँच नायक

शिव पुराण – उमासंहिता – अध्याय 8 से

सनत्कुमारजी कहते हैं –

व्यासजी!
तदनन्तर यमदूत पापियोंको
अत्यन्त तपे हुए पत्थरपर बड़े वेगसे दे मारते हैं,
मानो वज्रसे बड़े-बड़े वृक्षोंको धराशायी कर दिया गया हो।

उस समय शरीरसे जर्जर हुआ देहधारी जीव
कानसे खून बहाने लगता है और
सुध-बुध खोकर निश्चेष्ट हो जाता है।

तब वायुका स्पर्श कराकर वे यमदूत
फिर उसे जीवित कर देते हैं और
उसके पापोंकी शुद्धिके लिये
उसे नरक-समुद्रमें डाल देते हैं।

पृथ्वीके नीचे नरककी सात कोटियाँ हैं,
जो सातवें तलके अन्तमें
घोर अन्धकारके भीतर स्थित हैं।

उन सबकी अट्ठाईस कोटियाँ हैं।

पहली कोटि घोरा कही गयी है।

दूसरी सुघोरा है,
जो उसके नीचे स्थित है।

तीसरी अतिघोरा, चौथी महाघोरा,
पाँचवीं घोररूपा, छठी तलातला,
सातवीं भयानका, आठवीं कालरात्रि,
नवीं भयोत्कटा, उसके नीचे दसवीं चण्डा,
उसके भी नीचे महाचण्डा, फिर चण्ड-कोलाहला तथा
उससे भिन्न प्रचण्डा है, जो चण्डोंकी नायिका कही गयी है;

उसके बाद पद्मा, पद्मावती, भीता और भीमा है,
जो भीषण नरकोंकी नायिका मानी गयी है।

अठारहवीं कराला, उन्नीसवीं विकराला और
बीसवीं नरककोटि वज्रा कही गयी है।

तदनन्तर त्रिकोणा, पंचकोणा, सुदीर्घा,
अखिलार्तिदा, समा, भीमबला, भीमा
तथा अट्ठाईसवीं दीप्तप्राया है।

इस प्रकार मैंने तुमसे
भयानक नरक-कोटियोंके नाम बताये हैं।

इनकी संख्या अट्ठाईस ही है।

ये पापियोंको यातना देनेवाली हैं।

उन कोटियोंके क्रमशः
पाँच-पाँच नायक जानने चाहिये।

अब उन सब कोटियोंके नाम बताये जाते हैं, सुनो।

उनमें प्रथम रौरव नरक है,
जहाँ पहुँचकर देहधारी जीव रोने लगते हैं।

महारौरवकी पीड़ासे तो महान् पुरुष भी रो देते हैं।

इसके बाद शीत और उष्ण नामक नरक है।

फिर सुघोर है।

रौरवसे सुघोरतक आदिके पाँच नरक नायक माने गये हैं।

इसके बाद कराल, विकराल, कुम्भीपाक, अतिदारुण, दुरिष्ट ….. आदि
(इस प्रकार 140 नामों की सूची है)

इस प्रकार ये अट्ठाईस नरक और
क्रमशः उनके पाँच-पाँच नायक कहे गये हैं।

उपर्युक्त २८ कोटियोंको छोड़कर लगभग सौ नरक माने जाते हैं और
महानरकमण्डल एक सौ चालीस नरकोंका बताया गया है।

यहाँ अट्ठाईस कोटियोंका पहले पृथक् वर्णन आया है,
फिर प्रत्येकके पाँच-पाँच नायक बताकर
ठीक एक सौ चालीस नरकोंका नामोल्लेख किया गया है।
कोटियोंकी संख्या मिला देनेसे सब एक सौ अड़सठ होते हैं।


पापियों और पुण्यात्माओंकी यमलोकयात्रा

शिव पुराण – उमासंहिता – अध्याय 7 से

सनत्कुमारजी कहते हैं –

व्यासजी!
मनुष्य चार प्रकारके पापोंसे यमलोकमें जाते हैं।

यमलोक अत्यन्त भयदायक और भयंकर है।

वहाँ समस्त देहधारियोंको विवश होकर जाना पड़ता है।

कोई ऐसे प्राणी नहीं हैं,
जो यमलोकमें न जाते हों।

किये हुए कर्मका फल
कर्ताको अवश्य भोगना पड़ता है,
इसका विचार करो।

जीवोंमें जो शुभ कर्म करनेवाले,
सौम्यचित्त और दयालु हैं,
वे सौम्यमार्गसे यमपुरीके पूर्व द्वारको जाते हैं।

जो पापी पापकर्मपरायण तथा दानसे रहित हैं,
वे भयानक दक्षिण मार्गसे यमलोककी यात्रा करते हैं।

मर्त्यलोकसे छियासी हजार योजनकी दूरी लाँघकर
नानारूपवाले यमलोककी स्थिति है, यह जानना चाहिये।

पुण्यकर्म करनेवाले लोगोंको तो वह नगर
निकटवर्ती-सा जान पड़ता है;
परंतु भयानक मार्गसे यात्रा करनेवाले पापियोंको वह
बहुत दूर स्थित दिखायी देता है।

वहाँका मार्ग कहीं तो तीखे काँटोंसे युक्त है;
कहीं कंकड़ोंसे व्याप्त है;
कहीं छूरेकी धारके समान तीखे पत्थर उस मार्गपर जड़े गये हैं,
कहीं बड़ी भारी कीचड़ फैली हुई है।

बड़े-छोटे पातकोंके अनुसार
वहाँकी कठिनाइयोंमें भी
भारीपन और हलकापन है।

कहीं-कहीं यमपुरीके मार्गपर
लोहेकी सूईके समान तीखे डाभ फैले हुए हैं।

तदनन्तर यमपुरीके मार्गकी भीषण यातनाओं और
कष्टोंका वर्णन करके सनत्कुमारजीने कहा –

व्यासजी!
जिन्होंने कभी दान नहीं किया है,
वे लोग ही इस प्रकार दुःख उठाते और
सुखकी याचना करते हुए उस मार्गपर जाते हैं।

जिन्होंने पहलेसे ही दानरूपी पाथेय (राहखर्च) ले रखा है,
वे सुखपूर्वक यमलोककी यात्रा करते हैं।

इस रीतिसे कष्ट उठाकर पापी जीव
जब प्रेतपुरीमें पहुँच जाते हैं,
तब उनके विषयमें यमराजको सूचना दी जाती है।

उनकी आज्ञा पाकर
दूत उन पापियोंको
यमराजके आगे ले जाकर खड़े करते हैं।

वहाँ जो शुभ कर्म करनेवाले लोग होते हैं,
उनको यमराज स्वागतपूर्वक आसन देकर
पाद्य और अर्घ्य निवेदन करके
प्रिय बर्तावके द्वारा सम्मानित करते हैं और कहते हैं –

“वेदोक्त कर्म करनेवाले महात्माओ!
आप-लोग धन्य हैं,
जिन्होंने दिव्य सुखकी प्राप्तिके लिये
पुण्यकर्म किया है।

अतः आपलोग दिव्यांगनाओंके भोगसे भूषित
तथा सम्पूर्ण मनोवांछित पदार्थोंसे सम्पन्न निर्मल स्वर्ग-लोकमें जाइये।

वहाँ महान् भोगोंका उपभोग करके
अन्तमें पुण्यके क्षीण हो जानेपर
जो कुछ थोड़ा-सा अशुभ शेष रह जाय;
उसे फिर यहाँ आकर भोगियेगा।”

जो धर्मात्मा मनुष्य होते हैं,
वे मानो यमराजके लिये मित्रके समान हैं।

वे यमराजको सुखपूर्वक
सौम्य धर्मराजके रूपमें देखते हैं।

किंतु जो क्रूर कर्म करनेवाले हैं,
वे यमराजको भयानक रूपमें देखते हैं।

उनकी दृष्टिमें यमराजका मुख
दाढ़ोंके कारण विकराल जान पड़ता है।

नेत्र टेढ़ी भौंहोंसे युक्त प्रतीत होते हैं।

उनके केश ऊपरको उठे होते हैं।

दाढ़ी-मूँछ बड़ी-बड़ी होती है।

ओठ ऊपरकी ओर फड़कते रहते हैं।

उनके अठारह भुजाएँ होती हैं,
वे कुपित तथा काले कोयलोंके ढेर-से दिखायी देते हैं।

उनके हाथोंमें सब प्रकारके अस्त्र-शस्त्र उठे होते हैं।

वे सब प्रकारके दण्डका भय दिखाकर
उन पापियोंको डाँटते रहते हैं।

बहुत बड़े भैंसेपर आरूढ़, लाल वस्त्र और
लाल माला धारण करके
बहुत ऊँचे महामेरुके समान दृष्टिगोचर होते हैं।

उनके नेत्र प्रज्वलित अग्निके समान
उद्दीप्त दिखायी देते हैं।

उनका शब्द
प्रलयकालके मेघकी गर्जनाके समान
गम्भीर होता है।

वे ऐसे जान पड़ते हैं मानो
महासागरको पी रहे हैं,
गिरिराजको निगल रहे हैं और
मुँहसे आग उगल रहे हैं।

उनके समीप प्रलयकालकी अग्निके समान प्रभावाले
मृत्यु देवता खड़े रहते हैं।

काजलके समान काले कालदेवता और
भयानक कृतान्त देवता भी रहते हैं।

इनके सिवा मारी, उग्र महामारी,
भयंकर कालरात्रि, अनेक प्रकारके रोग
तथा भाँति-भाँतिके भयावह कुष्ठ मूर्तिमान् हो
हाथोंमें शक्ति, शूल, अंकुश, पाश, चक्र और खड्‌ग लिये खड़े रहते हैं।

वज्रतुल्य मुख धारण करनेवाले रुद्रगण
क्षुर, तरकश और धनुष धारण किये
वहाँ उपस्थित होते हैं।

सभी नाना प्रकारके आयुध धारण करनेवाले;
महान् वीर एवं भयंकर हैं।

इनके अतिरिक्त असंख्य महावीर यमदूत,
जिनकी अंगकान्ति काले कोयलेके समान काली होती है,
सम्पूर्ण अस्त्र-शस्त्र लिये बड़े भयंकर जान पड़ते हैं।

ऐसे परिवारसे घिरे हुए
घोर यमराज तथा भीषण चित्रगुप्तको
पापिष्ठप्राणी देखते हैं।

यमराज उन पापकर्मियोंको बहुत डाँटते हैं और
भगवान् चित्रगुप्त धर्मयुक्त वचनोंद्वारा उन्हें समझाते हैं।


नरकमें गिरानेवाले पापोंका संक्षिप्त परिचय

शिव पुराण – उमासंहिता – अध्याय 4, 5, 6 से

सनत्कुमारजी कहते हैं –

व्यासजी!
जो पापपरायण जीव महानरकके अधिकारी हैं,
उनका संक्षेपसे परिचय दिया जाता है;
सावधान होकर सुनो।

चित्तके द्वारा अनिष्ट-चिन्तन,
पराये धनको अपहरण करनेकी इच्छा,
न करनेयोग्य कर्ममें प्रवृत्त होनेका दुराग्रह तथा
परस्त्रीको प्राप्त करनेका संकल्प –

ये चार प्रकारके मानसिक पापकर्म हैं।

असंगत प्रलाप (बेसिर-पैरकी बातें),
असत्य-भाषण,
अप्रिय बोलना और
पीठ-पीछे चुगली खाना –

ये चार वाचिक (वाणीद्वारा होनेवाले) पापकर्म हैं।

अभक्ष्य-भक्षण,
प्राणियोंकी हिंसा,
व्यर्थके कार्योंमें लगना और
दूसरोंके धनको हड़प लेना –

ये चार प्रकारके शारीरिक पापकर्म हैं।

इस प्रकार ये बारह कर्म बताये गये,
जो मन, वाणी और शरीर
इन तीन साधनोंसे सम्पन्न होते हैं।

जो संसार-सागरसे पार उतारनेवाले महादेवजीसे द्वेष करते हैं,
वे सब-के-सब नरकोंके समुद्रमें गिरनेवाले हैं।

उनको बड़ा भारी पातक लगता है।

जो शिवज्ञानका उपदेश देनेवाले
तपस्वीकी, गुरुजनोंकी और
पिता-ताऊ आदिकी निन्दा करते हैं,
वे उन्मत्त मनुष्य नरक-समुद्रमें गिरते हैं।

ब्रह्महत्यारा, मदिरा पीनेवाला,
सुवर्ण चुरानेवाला,
गुरुपत्नीगामी
तथा इन चारोंसे सम्पर्क रखनेवाला पाँचवीं श्रेणीका पापी –

ये सब-के-सब महापातकी कहे गये हैं।


जो मनुष्य गौओं, ब्राह्मणकन्याओं, स्वामी, मित्र
तथा तपस्वी महात्माओंके कार्य नष्ट कर देते हैं,
वे नरकगामी माने गये हैं।

मनुष्य जब मरता है
तब उसका कमाया हुआ धन घरमें ही रह जाता है।

भाई-बन्धु भी श्मशानतक जाकर लौट आते हैं,
केवल उसके किये हुए पाप और पुण्य ही
परलोकके पथपर जानेवाले उस जीवके साथ जाते हैं।

जिस-किसी पराये द्रव्यको
सरसों बराबर भी चुरा लेनेपर
मनुष्य नरकमें गिरते हैं, इसमें संशय नहीं है।

इस तरहके पापोंसे युक्त मनुष्य
मरनेके पश्चात् यातना भोगनेके लिये नूतन शरीर पाता है,
जिसमें सम्पूर्ण आकार अभिव्यक्त रहते हैं।

इसलिये किये हुए
पापका प्रायश्चित्त कर लेना चाहिये।

अन्यथा सौ करोड़ कल्पोंमें भी बिना भोगे हुए
पापका नाश नहीं हो सकता।

जो मन, वाणी और शरीरद्वारा स्वयं पाप करता,
दूसरेसे कराता तथा किसीके दुष्कर्मका अनुमोदन करता है,
उसके लिये पापगति (नरक) ही फल है।


विभिन्न पापोंके कारण मिलनेवाली नरकयातनाका वर्णन

शिव पुराण – उमासंहिता – अध्याय 9, 10 से

सनत्कुमारजी कहते हैं –

व्यासजी!
इन सब भयानक पीड़ादायक नरकोंमें
पापी जीवोंको अत्यन्त भीषण नरकयातना भोगनी पड़ती है।

जो मिथ्या आगम (पाखण्डियोंके शास्त्र) में प्रवृत्त होता है,
वह द्विजिह्व नामक नरकमें जाता है और
जिह्वाके आकारमें आधे कोसतक फैले हुए
तीक्ष्ण हलोंद्वारा वहाँ उसे विशेष पीड़ा दी जाती है।

जो क्रूर मनुष्य माता-पिता और गुरुको डाँटता है,
उसके मुँहमें कीड़ोंसे युक्त विष्ठा ठूँसकर
उसे खूब पीटा जाता है।

जो मनुष्य शिवमन्दिर, बगीचे, बावड़ी,
कूप, तड़ाग तथा ब्राह्मणके स्थानको नष्ट-भ्रष्ट कर देते और
वहाँ स्वेच्छानुसार रमण करते हैं,
वे नाना प्रकारके भयंकर कोल्हू आदिके द्वारा
पेरे और पकाये जाते हैं
तथा प्रलयकाल-पर्यन्त नरकाग्नियोंमें पकते रहते हैं।

परस्त्रीगामी पुरुष
उस-उस रूपसे ही व्यभिचार करते हुए
मारे-पीटे जाते हैं।

पुरुष अपने पहले-जैसे शरीरको धारण करके
लोहेकी बनी और खूब तपायी हुई नारीका
गाढ़ आलिंगन करके सब ओरसे जलते रहते हैं।

वे उस दुराचारिणी स्त्रीका
गाढ़ आलिंगन करते और रोते हैं।

जो सत्पुरुषोंकी निन्दा सुनते हैं,
उनके कानोंमें लोहे या ताँबे आदिकी बनी हुई कीलें
आगसे खूब तपाकर भर दी जाती हैं;
इनके सिवा जस्ते, शीशे और पीतलको गलाकर
पानीके समान करके उनके कानमें भरा जाता है।

फिर बारंबार गरम दूध और
खूब तपाया हुआ तेल
उनके कानोंमें डाला जाता है।

फिर उन कानोंपर
वज्रका-सा लेप कर दिया जाता है।

इस तरह क्रमशः उनके कानोंको
उपर्युक्त वस्तुओंसे भरकर
उनको नरकोंमें यातनाएँ दी जाती हैं।

क्रमशः सभी नरकोंमें सब ओर ये यातनाएँ प्राप्त होती हैं
और सभी नरकोंकी यातनाएँ बड़ा कष्ट देनेवाली होती हैं।

जो माता-पिताके प्रति भौंहें टेढ़ी करते
अथवा उनकी ओर उद्दण्डतापूर्वक दृष्टि डालते
या हाथ उठाते हैं,
उनके मुखोंको
अन्ततक लोहेकी कीलोंसे
दृढ़तापूर्वक भर दिया जाता है।

जो मनुष्य लुभाकर स्त्रियोंकी ओर अपलक दृष्टिसे देखते हैं,
उनकी आँखोंमें
तपाकर आगके समान लाल की हुई सुइयाँ
भर दी जाती हैं।

जो देवता, अग्नि, गुरु
तथा ब्राह्मणोंको अग्रभाग निवेदन किये बिना ही भोजन कर लेते हैं,
उनकी जिह्वा और मुखमें
लोहेकी सैकड़ों कीलें तपाकर ठूँस दी जाती हैं।

जो लोग धर्मका उपदेश करनेवाले महात्मा कथावाचककी निन्दा करते हैं,
देवता, अग्नि और गुरुके भक्तोंकी तथा सनातन धर्मशास्त्रकी भी खिल्लियाँ उड़ाते हैं,
उनकी छाती, कण्ठ, जिह्वा, दाँतोंकी संधि, तालु, ओठ, नासिका, मस्तक
तथा सम्पूर्ण अंगोंकी संधियोंमें आगके समान तपायी हुई
तीन शाखावाली लोहेकी कीलें मुद्‌गरोंसे ठोकी जाती हैं।

उस समय उन्हें बहुत कष्ट होता है।

तत्पश्चात् सब ओरसे
उनके घावोंपर तपाया हुआ
नमक छिड़क दिया जाता है।

फिर उस शरीरमें
सब ओर बड़ी भारी यातनाएँ होती हैं।

जो पापी शिव-मन्दिरके पास
अथवा देवताके बगीचोंमें मल-मूत्रका त्याग करते हैं,
उनके लिंग और अण्डकोशको लोहेके मुद्‌गरोंसे चूर-चूर कर दिया जाता है
तथा आगसे तपायी हुई सुइयाँ उसमें भर दी जाती हैं,
जिससे मन और इन्द्रियोंको महान् दुःख होता है।

जो धन रहते हुए भी तृष्णाके कारण उसका दान नहीं करते
और भोजनके समय घरपर आये हुए अतिथिका अनादर करते हैं,
वे पापका फल पाकर अपवित्र नरकमें गिरते हैं।

जो लोग यत्नपूर्वक भगवान् शंकरकी पूजा करके
विधिवत् अग्निमें आहुति दे शिवसम्बन्धी मन्त्रोंद्वारा समर्पित करते हैं,
वे यमराजको नहीं देखते और स्वर्गमें जाते हैं।


देवता, पितर, मनुष्य, प्रेत, भूत, गुह्यक, पक्षी, कृमि और कीट – ये सभी गृहस्थसे अपनी जीविका चलाते हैं।

स्वाहाकार, स्वधाकार, वषट्‌कार तथा हन्तकार—ये धर्ममयी धेनुके चार स्तन हैं।

स्वाहाकार नामक स्तनका पान देवता करते हैं, स्वधाका पितर लोग, वषट्‌कारका दूसरे-दूसरे देवता और भूतेश्वर तथा हन्तकार नामक स्तनका सदा ही मनुष्यगण पान करते हैं।

जो मानव श्रद्धा-पूर्वक इस धर्ममयी धेनुका सदा ठीक समयपर पालन करता है, वह अग्निहोत्री हो जाता है।

जो स्वस्थ रहते हुए भी उसका त्याग कर देता है, वह अन्धकारपूर्ण नरकमें डूबता है।

इसलिये उन सबको बलि देनेके पश्चात् द्वारपर खड़ा हो क्षणभर अतिथिकी प्रतीक्षा करे।

यदि कोई भूखसे पीड़ित अतिथि या उसी गाँवका निवासी पुरुष मिल जाय तो उसे अपने भोजनसे पहले यथाशक्ति शुभ अन्नका भोजन कराये।

जिसके घरसे अतिथि निराश होकर लौटता है, उसे वह अपना पाप दे बदलेमें उसका पुण्य लेकर चला जाता है।


आगे अध्याय 11 से 16 में यह बताया गया है की इस घोर नर्क की यातना से कैसे बच सकते है।

आगे के अध्यायों में

यमलोकके मार्गमें सुविधा प्रदान करनेवाले विविध दानोंका वर्णन

जलदान, जलाशय-निर्माण, वृक्षारोपण, सत्यभाषण और तपकी महिमा

वेद और पुराणोंके स्वाध्याय तथा विविध प्रकारके दानकी महिमा, नरकोंका वर्णन तथा उनमें गिरानेवाले पापोंका दिग्दर्शन, पापोंके लिये सर्वोत्तम प्रायश्चित्त शिवस्मरण तथा ज्ञानके महत्त्वका प्रतिपादन।