सत्यनारायण कथा



सत्यनारायण कथा – अध्याय 1

ऋषियों ने, सूतजी से, मनुष्यों के उद्धार के लिए सरल मार्ग पूछा

व्यासजी ने कहा –
एक समय नैमिषारण्य तीर्थ में शौनकादिक अट्ठासी हजार ऋषियो ने,
पुराणवेत्ता श्री सूतजी से पूछा –

हे सूतजी!, इस कलियुग में, वेद -विद्या-रहित मनुष्यों को प्रभु भक्ति किस प्रकार मिलेगी तथा उनका उद्धार कैसे होगा?

हे मुनिश्रेष्ठ! कोई ऐसा व्रत अथवा तप कहिए,
जिसके करने से थोड़े ही समय में पुण्य प्राप्त हो
तथा मनवांछित फल भी मिले।

ऐसी कथा सुनने की हमारी प्रबल इच्छा है।


सूतजी, नारदजी और भगवान् विष्णु की कथा बताते है

सर्वशास्त्रज्ञाता श्री सूतजी ने कहा- हे वैष्णवों में पूज्य!
आप सबने, प्राणियों के हित की बात पूछी है।

अब मैं श्रेष्ठ व्रत को आप लोगों से कहूंगा,
जिसे नारद जी ने श्री लक्ष्मीनारायण भगवान से पूछा था और
श्री लक्ष्मीपति ने मुनिश्रेष्ठ नारद जी को बताया था।


नारदजी पृथ्वी पर आते है

एक समय योगिराज नारद,
दुसरों के हित की इच्छा से सभी लोकों में घूमते हुए
मृत्युलोक में आ पहुंचे।


नारदजी, पृथ्वी पर मनुष्यों को दुखी देखते है

यहां अनेक योनियों में जन्मे प्रायः सभी मनुष्यों को
अपने कर्मों के अनुसार अनेक दुखों से पीड़ित देख कर,
उन्होंने विचार किया कि किस यत्न के करने से
निश्चय ही प्राणियों के दुखो का नाश हो सकेगा।


नारद मुनि, विष्णु भगवान् के पास जाते है

ऐसा मन में विचारकर श्री नारद विष्णुलोक गए।

वहां श्वेतवर्ण और चार भुजाओं वाले, देवों के ईश भगवान नारायण को,
जिनके हाथों में शंख, चक्र, गदा और पद्म थे तथा वरमाला पहने हुए थे,
देखकर स्तुति करने लगे।

नारदजी ने कहा – हे भगवन!
आप अत्यंत शक्ति से संपन्न हैं,
मन तथा वाणी भी आपको नहीं पा सकती,
आपका आदि-मध्य-अंत भी नहीं है।

आप निर्गुण स्वरूप सृष्टि के कारण,
भक्तों के दुखों को नष्ट करने वाले हो।

आपको मेरा नमस्कार है।


भगवान्, नारदजी से उनके आने का कारण पूछते है

नारदजी से इस प्रकार की स्तुति सुनकर,
विष्णु भगवान बोले- हे मुनिश्रेष्ठ! आपके मन में क्या है?

आपका किस काम के लिए यहां आगमन हुआ है?
निःसंकोच कहें।


नारदजी, भगवान् विष्णु से, मनुष्यों के दुःख कम करने का उपाय पूछते है

तब नारद मुनि ने कहा –
मृत्युलोक में सब मनुष्य जो अनेक योनियों में पैदा हुए हैं,
अपने-अपने कर्मों द्वारा अनेक प्रकार के दुखों से दुखी हो रहे हैं।

हे नाथ! यदि आप मुझ पर दया रखते हैं तो बताइए कि
उन मनुष्यों के सब दुख थोड़े से ही प्रयत्न से कैसे दूर हो सकते हैं।


सत्यनारायण भगवान की पूजा और व्रत का महत्व

श्री विष्णु भगवान ने कहा – हे नारद!
मनुष्यों की भलाई के लिए तुमने यह बहुत अच्छा प्रश्न किया है।

जिस व्रत के करने से मनुष्य मोह से छूट जाता है,
वह व्रत मैं तुमसे कहता हूं सुनो।

बहुत पुण्य देने वाला, स्वर्ग तथा मृत्युलोक दोनो में दुर्लभ एक उत्तम व्रत है,
जो आज मैं प्रेमवश होकर तुमसे कहता हूं।

श्री सत्यनारायण भगवान का यह व्रत, विधि-विधानपूर्वक संपन्न करके,
मनुष्य इस धरतीपर सुख भोगकर मरने पर मोक्ष को प्राप्त होता है।


नारद मुनि, भगवान से, व्रत के बारे में, विस्तार से बताने के लिए कहते है

श्री विष्णु भगवान के वचन सुनकर नारद मुनि बोले – हे भगवन!
उस व्रत का फल क्या है? क्या विधान है?

इससे पूर्व किसने यह व्रत किया है और किस दिन यह व्रत करना चाहिए?

कृपया मुझे विस्तार से बताएं।


सत्यनारायण व्रत कब और कैसे करें

श्रीविष्णु भगवान ने कहा – हे नारद!
दुख-शोक आदि दूर करने वाला यह व्रत सब स्थानों पर विजयी करने वाला है।

भक्ति और श्रद्धा के साथ किसी भी दिन मनुष्य
संध्या के समय ब्राह्मणों और बंधुओं के साथ
धर्मपरायण होकर श्री सत्यनारायण भगवान की पूजा करे।

भक्तिभाव से नैवेद्य, केले का फल, शहद, घी, शक्कर अथवा गुड़, दूध और गेहूं का आटा सवाया लेवे (गेहूं के अभाव में साठी का चूर्ण भी ले सकते हैं)।

इन सबको भक्तिभाव से भगवान को अर्पण करे।

बंधु-बांधवो सहित ब्राह्मणों को भोजन कराए।

इसके पश्चाघत स्वयं भोजन करे।

रात्रि में नाम संकीर्तन आदि का आयोजन कर,
श्री सत्यनारायण भगवान का स्मरण करता हुआ समय व्यतीत करे।

इस तरह जो मनुष्य व्रत करेंगे,
उनका मनोरथ निश्चणय ही पूर्ण होगा।


4. सत्यनारायण व्रत की महिमा

हे भक्तराज! तुमसे तो विकराल कलिकाल के कर्म छिपे नहीं हैं।

खान-पान और आचार-विचार को चाहते हुए भी, पवित्रता न रख पाने के कारण,

क्योंकि जीव मेरा नामस्मरण करके ही, अपना लोक-परलोक संवार सकेंगे,

इसलिए विशेषरूप से, कलिकाल में, मृत्युलोक में, यही एक लघु और आसान उपाय है, जिससे, अल्प समय और अल्प धन में, प्रत्येक जीव को, महान पुण्य प्राप्त हो सकता है।

॥ इतिश्री श्रीसत्यनारायण व्रत कथा का प्रथम अध्याय संपूर्ण॥


सत्यनारायण कथा अध्याय 2

1. ब्राह्मण की कथा, जिसने सबसे पहले सत्यनारायण व्रत किया

सूतजी, ऋषियों को, ब्राह्मण की कथा बताते है

सूतजी ने कहा- हे ऋषियो! जिन्होंने पहले समय में इस व्रत को किया है, उनका इतिहास कहता हूं, आप सब ध्यान से सुनें।

सुंदर काशीपुर नगरी में, एक अत्यंत निर्धन ब्राह्मण रहता था।

वह ब्राह्मण भूख और प्यास से बेचैन होकर, नित्य पृथ्वी पर घूमता था।


भगवान विष्णु, ब्राह्मण से, उसके दुःख का कारण पूछते है

ब्राह्मणों से प्रेम करने वाले, श्री विष्णु भगवान ने, ब्राह्मण को दुखी देखकर, एक दिन, बूढ़े ब्राह्मण का रूप धारण कर, निर्धन ब्राह्मण के पास जाकर, आदर के साथ पूछा –

हे विप्र! तुम नित्य ही दुखी होकर, पृथ्वी पर क्यों घूमते हो?

हे श्रेष्ठ ब्राह्मण, यह सब मुझसे कहो, मैं सुनना चाहता हूं।


ब्राह्मण, भगवान से, दुःख से छुटकारा पाने का उपाय पूछता है

दरिद्र ब्राह्मण ने कहा- मैं निर्धन ब्राह्मण हूं, भिक्षा के लिए पृथ्वी पर फिरता हूं।

भगवन! यदि आप इससे छुटकारा पाने का, कोई उपाय जानते हों तो, कृपा कर मुझे बताएं।

मैं आपकी शरण हूं।


विष्णु भगवान्, ब्राह्मण को सत्यनारायण पूजा और व्रत के लिए कहते है

वृद्ध ब्राह्मण का रूप धारण किए हुए, श्री विष्णु भगवान ने कहा – हे ब्राह्मण! श्री सत्यनारायण भगवान मनवांछित फल देने वाले हैं,

इसलिए, तुम उनका पूजन करो, जिसके करने से मनुष्य, सब दुखों से मुक्त हो जाता है।

इसी के साथ दरिद्र ब्राह्मण को, व्रत का सारा विधान बतलाकर, बूढ़े ब्राह्मण का रूप धारण करने वाले, श्री सत्यनारायण भगवान अंतर्धान हो गए।


ब्राह्मण सत्यनारायण व्रत करने का निश्चय करता है

जिस व्रत को, वृद्ध ब्राह्मण ने बतलाया है, मैं उसको अवश्य करूंगा, यह निश्चय कर वह दरिद्र ब्राह्मण, घर चला गया।

परंतु उस रात्रि, उस दरिद्र ब्राह्मण को, नींद नहीं आई।

अगले दिन वह जल्दी उठा और श्री सत्यनारायण भगवान का व्रत करने का निश्चय कर, भिक्षा मांगने के लिए चल दिया।


सत्यनारायण व्रत से, ब्राह्मण को दुखों से छुटकारा मिलता है

उस दिन उसको भिक्षा में बहुत धन मिला, जिससे उसने पूजा का सब सामान खरीदा और घर आकर अपने बंधु-बांधवो के साथ, भगवान श्रीसत्यनारायण का व्रत किया।

इसके करने से, वह दरिद्र ब्राह्मण, सब दु:खों से छूटकर, अनेक प्रकार की संपतियों से युक्त हो गया।

उस समय से, वह विप्र, हर महीने, व्रत करने लगा।


सत्यनारायण व्रत से लाभ

सत्यनारायण भगवान के व्रत को, जो शास्त्रविधि के अनुसार, श्रद्धापूर्वक करेगा, वह सब पापों से छूटकर, मोक्ष को प्राप्त होगा।

आगे जो मनुष्य, पृथ्वी पर, श्रीसत्यनारायण भगवान का व्रत करेगा, वह सब दुखों से छूट जाएगा।


इस तरह नारदजी से, सत्यनारायण भगवान का कहा हुआ, यह व्रत मैंने तुमसे कहा।

हे विप्रो! अब आप और क्या सुनना चाहते हैं, मुझे बताएं?


ब्राह्मण के बाद और किसने व्रत किया

ऋषियों ने कहा – हे मुनीश्वर! संसार में इस विप्र से सुनकर, किस-किस ने इस व्रत को किया, हम सब सुनना चाहते हैं।

इसके लिए हमारे मन में श्रद्धा है।


2. लकड़हारे की कथा

श्री सूतजी ने कहा – हे मुनियो! जिस-जिस प्राणी ने इस व्रत को किया है, उन सबकी कथा सुनो।


लकड़हारा ब्राह्मण के घर आता है

एक समय वह ब्राह्मण, धन और ऐश्वर्य के अनुसार, बंधु-बांधवों के साथ अपने घर पर व्रत कर रहा था।

उसी समय, एक लकड़ी बेचने वाला, बूढ़ा व्यक्ति वहां आया।

उसने सिर पर रखा लकड़ियों का गठ्ठर, बाहर रख दिया और विप्र के मकान में चला गया।

प्यास से दुखी लकड़हारे ने, विप्र को व्रत करते देखा।

वह प्यास को भूल गया।

उसने विप्र को नमस्कार किया और पूछा – हे विप्र! आप यह किसका पूजन कर रहे हैं?


ब्राह्मण, लकड़हारे को, सत्यनारायण पूजा के बारे में बताता है

इस व्रत को करने से क्या फल मिलता है? कृपा करके मुझे बताएं !

ब्राह्मण ने कहा – सब मनोकामनाओं को पूरा करने वाला, यह श्री सत्यनारायण भगवन का व्रत है।

इनकी ही कृपा से, मेरे यहां धन-धान्य आदि की वृद्धि हुई है।

विप्र से इस व्रत के बारे में जानकर, वह लकड़हारा बहुत प्रसन्न हुआ।

भगवान का चरणामृत ले और भोजन करने के बाद, वह अपने घर को चला गया।


लकड़हारा सत्यनारायण व्रत का संकल्प करता है

अगले दिन लकड़हारे ने, अपने मन में संकल्प किया कि, आज गांव में लकड़ी बेचने से जो धन मिलेगा, उसी से, भगवान सत्यनारायण का उत्तम व्रत करूंगा।

यह मन में विचार कर, वह लकड़हारा, लकड़ियों का गट्ठर अपने सिर पर रखकर, जिस नगर में धनवान लोक रहते थे, ऐसे सुंदर नगर में गया।

उस दिन से, उन लकड़ियों का दाम, पहले दिनों से चौगुना मिला।


लकड़हारा, भगवान् सत्यनारायण की व्रत की सामग्री लेता है

तब वह बूढ़ा लकड़हारा, अति प्रसन्न होकर पके केले, शक्कर, शहद घी, दूध, दही और गेहूं का चूर्ण इत्यादि श्री सत्यनारायण भगवान की व्रत के सभी सामग्री लेकर, अपने घर आ गया।

फिर उसने, अपने बंधु-बांधवों को बुलाकर, विधि-विधान के साथ, भगवान का पूजन और व्रत किया।


सत्यनारायण व्रत से लकड़हारे के दुःख दूर हो जाते है

उस व्रत के प्रभाव से, वह बूढ़ा लकड़हारा धन, पुत्र आदि से युक्त हुआ और संसार के समस्त सुख भोगकर, बैकुंठ को चला गया।

॥इतिश्री श्रीसत्यनारायण व्रत कथा का द्वितीय अध्याय संपूर्ण॥


सत्यनारायण कथा अध्याय 3

1. सूतजी, राजा उल्कामुख और साधु वैश्य की कथा बताते है

(वैश्य अर्थात – व्यापारी समुदाय, व्यापार करनेवाला)

बुद्धिमान और धार्मिक राजा उल्कामुख

श्री सूतजी ने कहा – हे श्रेष्ठ मुनियो! अब आगे की एक कथा कहता हूं।

पूर्वकाल में उल्कामुख नाम का, एक महान बुद्धिमान राजा था।

वह सत्यवक्ता और जितेंद्रिय था।

प्रतिदिन देवस्थानों पर जाता तथा गरीबों को धन देकर, उनके कष्ट दूर करता था।

उसकी पत्नी, कमल के समान मुख वाली और सती साध्वी थी।


भद्रशीला नदी के तट पर, उन दोनों ने, श्री सत्यनारायण भगवान का व्रत किया।


2. साधु वैश्य और सत्यनारायण व्रत

साधु वैश्य, राजा को, भगवान् सत्यनारायण का व्रत करते देखता है

उस समय वहां, साधु नामक एक वैश्य आया। वैश्य अर्थात – व्यापारी समुदाय, व्यापार करनेवाला

उसके पास, व्यापार के लिए, बहुत-सा धन था।

वह वैश्य, नाव को किनारे पर ठहराकर, राजा के पास आया।


साधु वैश्य, राजा को, सत्यनारायण व्रत के बारे में पूछता है

राजा को व्रत करते हुए देखकर, उसने विनय के साथ पूजा – हे राजन! भक्तियुक्त चित्त से यह आप क्या कर रहे हैं? मेरी सुनने की इच्छा है।

कृपया आप यह मुझे भी बताइए।


राजा उल्कामुख, साधु वैश्य को, सत्यनारायण व्रत का विधान बताते है

महाराज उल्कामुख ने कहा – हे साधु वैश्य! मैं अपने बंधु-बांधवों के साथ, पुत्रादि की प्राप्ति के लिए, महाशक्तिमान सत्यनारायण भगवान का, व्रत व पूजन कर रहा हूं।

राजा के वचन सुनकर, साधु नामक वैश्य ने आदर से कहा – हे राजन! मुझे भी इसका सब विधान बताएं।

मैं भी आपके कथनानुसार, इस व्रत को करूंगा।

मेरे भी कोई संतान नहीं है।

मुझे विश्वाास है, इससे निश्चय ही मेरे भी संतान होगी।

राजा ने सब विधान सुन, व्यापार से निवृत्त हो, वह वैश्य, आनंद के साथ अपने घर आया।


साधु वैश्य, पत्नी को, व्रत के बारे में बताता है

वैश्य ने अपनी पत्नी से, संतान देने वाले उस व्रत का समाचार सुनाया और प्रण किया कि, जब मेरे संतान होगी, तब मैं इस व्रत को करूंगा।

साधु ने यह वचन, अपनी पत्नीा लीलावती से भी कहे।


साधु वैश्य के घर, कन्या का जन्म

एक दिन उसकी पत्नी लीलावती, श्री सत्यनारायण भगवान की कृपा से, गर्भवती हो गई।

दसवें महीने में, उसने एक सुंदर कन्या को जन्म दिया।

दिनोंदिन वह कन्या इस तरह बढ़ने लगी, जैसे शुक्लपक्ष का चंद्रमा बढ़ता है।

कन्या का नाम, कलावती रखा गया।


वैश्य की पत्नी, उसे सत्यनारायण व्रत की याद दिलाती है

तब लीलावती ने मीठे शब्दों में, अपने पति को स्मरण दिलाया कि आपने जो भगवान का व्रत करने का संकल्प किया था, अब आप उसे पूरा करिये।

साधु वैश्य ने कहा – हे प्रिय! मैं कन्या के विवाह पर, इस व्रत को करूंगा।

इस प्रकार अपनी पत्नी को आश्वासन दे, वह व्यापार करने चला गया।


वैश्य की पुत्री कलावती का विवाह

कलावती पितृगृह में, वृद्धि को प्राप्त हो गई।

लौटने पर साधु ने जब नगर में, सखियों के साथ अपनी पुत्री को खेलते देखा तो दूत को बुलाकर कहा कि उसकी पुत्री के लिए, कोई सुयोग्य वर देखकर लाओ।

साधु नामक वैश्य की आज्ञा पाकर, दूत कंचन नगर पहुंचा और खोजकर और देख-भालकर, वैश्य की लड़की के लिए, एक सुयोग्य वणिक पुत्र ले आया।

उस सुयोग्य लड़के को देखकर, साधु नामक वैश्य ने, अपने बंधु-बांधवों सहित प्रसन्नचित्त होकर, अपनी पुत्री का विवाह उसके साथ कर दिया।

दुर्भाग्य से, वह विवाह के समय भी, सत्यनारायण भगवान का व्रत करना भूल गया।

इस पर श्री भगवान क्रोधित हो गए।

उन्होंने वैश्य को श्राप दिया कि तुम्हें दारुण दु:ख प्राप्त होगा।


3. वैश्य का दु:खो और तकलीफो से सामना

वैश्य, अपने दामाद के साथ, व्यापार के लिए जाता है

अपने कार्य में कुशल साधु नामक वैश्य, अपने जामाता सहित, नावों को लेकर, व्यापार करने के लिए, समुद्र के समीप स्थित, रत्न सारपुर नगर में गया।

दोनों ससुर-जमाई, चंद्रकेतु राजा के उस नगर में, व्यापार करने लगे।


चोर के कारण, वैश्य और उसका दामाद फंस जाते है

एक दिन, भगवान सत्यनारायण की माया से प्रेरित, एक चोर, राजा का धन चुराकर भागा जा रहा था।

राजा के दूतों को, अपने पीछे वेग से आते देखकर, चोर ने घबराकर, राजा के धन को, वहीं नाव में चुपचाप रख दिया, जहां वे ससुर-जमाई ठहरे हुए थे और भाग गया।

जब दूतों ने उस साधु वैश्य के पास, राजा के धन को रखा देखा तो ससुर-जामाता दोनों को बांधकर ले गए और

राजा के समीप जाकर बोले – हम ये दो चोर पकड़कर लाए हैं, देखकर आज्ञा दें।


तब राजा ने, बिना उनकी बात सुने ही, उन्हे कारागार में डालने की आज्ञा दे दी।

इस प्रकार राजा की आज्ञा से, उनको कठिन कारावास में डाल दिया गया तथा उनका धन भी छीन लिया गया।


सत्यनारायण भगवान के श्राप के कारण, साधु वैश्य की पत्नी लीलावती व पुत्री कलावती भी, घर पर बहुत दुखी हुई।

उनके घर में रखा धन, चोर चुराकर ले गए।


पुत्री कलावती, श्री सत्यनारायण व्रत देखती है

शारीरिक व मानसिक पीड़ा तथा भूख-प्यास से अति दुखित हो, भोजन की चिंता मे, कलावती कन्या, एक ब्राह्मण के घर गई।

उसने ब्राह्मण को, श्री सत्यनारायण भगवान का व्रत करते देखा।

उसने कथा सुनी तथा प्रसाद ग्रहण कर, रात को घर आई।

माता ने कलावती से पूछा – हे पुत्री! तू अब तक कहां रही व तेरे मन में क्या है?

कलावती बोली – हे माता! मैंने एक ब्राह्मण के घर, श्री सत्यनारायण भगवान का व्रत होते देखा है।

कन्या के वचन सुनकर, लीलावती ने, सत्यनारायण भगवान के पूजन की तैयारी की।


वैश्य की पत्नी और पुत्री, श्री सत्यनारायण का व्रत और पूजा करती है

उसने परिवार और बंधुओं सहित, श्री सत्यनारायण भगवान का पूजन व व्रत किया और वर मांगा की मेरे पति और दामाद, शीघ्र ही घर लौट आएं।

साथ ही प्रार्थना की कि, हम सबके अपराध क्षमा करो।

श्री सत्यनारायण भगवान, इस व्रत से संतुष्ट हो गए।


सत्यनारायण भगवान, राजा को, वैश्य को छोड़ने के लिए कहते है

उन्होंने राजा चंद्रकेतु को स्वप्न में, दर्शन देकर कहा – हे राजन! जिन दोनों वैश्यों को तुमने बंदी बना रखा है, वे निर्दोष हैं, उन्हें प्रातः ही छोड़ हो।

उनका सब धन, जो तुमने ग्रहण किया है, लौटा दो, अन्यथा मैं तेरा धन, राज्य, पुत्रादि सब नष्ट कर दूंगा।

राजा से ऐसे वचन कहकर, भगवान अंतर्धान हो गए।


सत्यनारायण भगवान् की कृपा से, वैश्य के दुःख दूर हो जाते है

राजा, वैश्य और दामाद को, कारावास से मुक्त कर देता है

प्रातः काल राजा चंद्रकेतु ने, सभा में सबको अपना स्वप्न सुनाया और सैनिकों को आज्ञा दी कि दोनों वणिक पुत्रों को, कैद से मुक्त कर, सभा में लाया जाए।

दोनों ने आते ही राजा को प्रणाम किया।

राजा ने कोमल वचनों में कहा – हे महानुभावो! तुम्हें भावीवश ऐसा कठिन दुख प्राप्त हुआ है।

अब तुम्हें कोई भय नहीं है, तुम मुक्त हो।


राजा वैश्य को उनका धन लौटा देता है

इसके बाद राजा ने, उनको नए-नए वस्त्राभूषण पहनवाए तथा उनका जितना धन लिया था, उससे दूना लौटाकर, आदर से विदा किया।

दोनों वैश्य, अपने घर को चल दिए।

॥इतिश्री श्रीसत्यनारायण व्रत कथा का तृतीय अध्याय संपूर्ण॥


सत्यनारायण कथा अध्याय 4

श्री सूतजी ने आगे कहा – वैश्य ने मंगलाचार करके यात्रा आरंभ की और अपने नगर को चला।

उनके थोड़ी दूर आगे बढ़ने पर, दंडी वेषधारी श्री सत्यनारायण भगवान ने उससे पूछा – हे साधु! तेरी नाव में क्या है?

अभिमानि वणिक हंसता हुआ बोला- हे दंडी!

आप क्यों पूछते हैं? क्या धन लेने की इच्छा है? मेरी नाव में तो बेल के पत्ते भरे हैं।

वैश्य का कठोर वचन सुनकर, दंडी वेशधारी श्री सत्यनारायण भगवान ने कहा – तुम्हारा वचन सत्य हो!

ऐसा कहकर, वह वहां से चले गए और कुछ दूर जाकर समुद्र के किनारे बैठ गए।


दंडी महाराज के जाने के पश्चात, वैश्य ने, नित्य-क्रिया से निवृत्त होने के बाद, नाव को ऊंची उठी देखकर अचंभा किया तथा नाव में बेल-पत्ते आदि देखकर, मूर्च्छित हो जमीन पर गिर पड़ा।

मूर्च्छा खुलने पर, अत्यंत शोक प्रकट करने लगा।

तब उसके जामाता ने कहा – आप शोक न करें।

यह दंडी महाराज का श्राप है, अतः उनकी शरण में ही चलना चाहिए, तभी हमारी मनोकामना पूरी होगी।


जामाता के वचन सुनकर, वह साधु नामक वैश्य, साधु महाराज के पास पहुंचा और

अत्यंत भक्तिभाव से प्रणाम करके बोला – मैंने जो आपसे असत्य वचन कहे थे, उनके लिए मुझे क्षमा करें।

ऐसा कहकर, महान शोकातुर हो रोने लगा।

तब दंडी भगवान बोले – हे वणिक पुत्र! मेरी आज्ञा से बार-बार तुझे दुख प्राप्त हुआ है, तू मेरी पूजा से विमुख हुआ है।

साधु नामक वैश्य ने कहा – हे भगवन! आपकी माया से ब्रह्मा आदि देवता भी, आपके रूप को नहीं जान पाते, तब मैं अज्ञानी भला कैसे जान सकता हूं।

आप प्रसन्न होइए, मैं अपनी सामर्थ्य के अनुसार, आपकी पूजा करूंगा।

मेरी रक्षा करो और पहले के समान मेरी नौका को, धन से पूर्ण कर दो।


उसके भक्तियुक्त वचन सुनकर, श्री सत्यनारायण भगवान प्रसन्न हो गए और उसकी इच्छानुसार वर देकर, अंतर्धान हो गए।

तब श्वसुर व जामाता दोनों ने, नाव पर आकर देखा कि नाव धन से परिपूर्ण है।

फिर वह, भगवान सत्यनारायण का पूजन कर, साथियों सहित अपने नगर को चला।


जब वह अपने नगर के निकट पहुंचा, तब उसने एक दूत को अपने घर भेजा।

दूत ने साधु नामक वैश्य के घर जाकर, उसकी पत्नीे को नमस्कार किया और कहा – आपके पति अपने दामाद सहित, इस नगर मे समीप आ गए हैं।

लीलावती और उसकी कन्या कलावती, उस समय भगवान का पूजन कर रही थीं।

दूत का वचन सुनकर, साधु की पत्नी ने बड़े हर्ष के साथ, सत्यदेव का पूजन पूर्ण किया और

अपनी पुत्री से कहा – मैं अपने पति के दर्शन को जाती हूं, तू कार्य पूर्ण कर शीघ्र आ जाना।


परंतु कलावती पूजन एवं प्रसाद छोड़कर, अपने पति के दर्शन के लिए चली गई।

प्रसाद की अवज्ञा के कारण सत्यदेव ने रुष्ट हो, उसके पति को नाव सहित पानी में डुबा दिया।

लीलावती, अपने पति को न देखकर, रोती हुई जमीन पर गिर पड़ी।

नौका को डूबा हुआ तथा कन्या को रोती हुई देख, साधु नामक वैश्य दुखित हो बोला – हे प्रभु! मुझसे या मेरे परिवार से, जो भूल हुई है, उसे क्षमा करो।

उसके दीन वचन सुनकर, सत्यदेव भगवान प्रसन्न हो गए।

आकाशवाणी हुई – हे वैश्य! तेरी कन्या मेरा प्रसाद छोड़कर आई है, इसलिए इसका पति अदृश्य हुआ है।

यदि वह घर जाकर, प्रसाद खाकर लौटे, तो इसे इसका पति अवश्य मिलेगा।

आकाशवाणी सुनकर, कलावती ने घर पहुंचकर, प्रसाद खाया और फिर आकर अपने पति के दर्शन किए।

तत्पश्चात साधु वैश्य ने, वहीं बंधु-बांधवों सहित, सत्यदेव का विधिपूर्वक पूजन किया।

वह इस लोक का सुख भोगकर, अंत में स्वर्गलोक को गया।

॥इतिश्री श्रीसत्यनारायण व्रत कथा का चतुर्थ अध्याय संपूर्ण॥


सत्यनारायण कथा अध्याय 5

श्री सूतजी ने आगे कहा- है ऋषियो! मैं एक और भी कथा कहता हूं, सुनो –

प्रजापालन में लीन तुंगध्वज नाम का, एक राजा था।

उसने भगवान सत्यदेव का, प्रसाद त्यागकर बहुत दुख पाया।


एक समय राजा वन में, वन्य पशुओं को मारकर, बड़ के वृक्ष के नीचे आया।

वहां उसने ग्वालों को, भक्तिभाव से बंधु-बांधवों सहित, श्रीसत्यनारायणजी का पूजन करते देखा।

परंतु राजा देखकर भी, अभिमानवश न तो वहां गया और न ही सत्यदेव भगवान को नमस्कार ही किया।

जब ग्वालों ने भगवान का प्रसाद, उसके सामने रखा, तो वह प्रसाद त्यागकर, अपने नगर को चला गया।

नगर में पहुंचकर उसने देखा कि उसका सबकुछ नष्ट हो गया है।

वह समझ गया कि यह सब भगवान सत्यदेव ने हि किया है।

तब वह उसी स्थान पर वापस आया और ग्वालों के समीप गया और विधिपूर्वक पूजन कर प्रसाद खाया,

तो सत्यनारायण की कृपा से, सबकुछ पहले जैसा ही हो गया और दीर्घकाल तक सुख भोगकर, मरने पर स्वर्गलोक को चला गया।


जो मनुष्य इस परम दुर्लभ व्रत को करेगा, श्री सत्यनारायण भगवान की कृपा से, उसे धन-धान्य की प्राप्ति होगी।

बंदी, बंधन से मुक्त होकर, निर्भय हो जाता है।

संतानहीन को, संतान प्राप्त होती है तथा सब मनोरथ पूर्ण होकर अंत में वह, बैकुंठ धाम को जाता है।


जिन्होंने पहले इस व्रत को किया, अब उनके दूसरे जन्म की कथा भी सुनिए।

शतानंद नामक वृद्ध ब्राह्मण ने यह व्रत किया, जिसने सुदामा के रूप में जन्म लेकर, श्रीकृष्ण की भक्ति कर मोक्ष प्राप्त किया।

उल्कामुख नाम के महाराज, इस व्रत के पुण्य से, राजा दशरथ बने और श्री रंगनाथ का पूजन कर मृत्यु के बाद बैकुंठलोक को प्राप्त हुए।

साधु नाम के वैश्य ने, सत्यप्रतिज्ञ राजा मोरध्वज बनकर, अपने पुत्र को आरे से चीरकर, मोक्ष प्राप्त किया। वह भी इसी व्रत का फल था।

इसी तरह महाराज तुंगध्वज, स्वयंभू मनु हुए, जिन्होंने बहुत से लोगों को, भगवान की भक्ति में लीन, कर मोक्ष प्राप्त किया।

लकड़हारा भील, अगले जन्म में गुह नामक निषाद राजा हुआ, जिसने भगवान राम के चरणों की सेवा कर, मोक्ष प्राप्त किया।

सत्यनारायण पूजा के लिए सामग्री

केले के खंभे, आम के पत्ते, पान, पंचपल्लव, बंदनवार,

कलश, पंचरत्‍न,

चावल, कपूर, धूप, दीप,

तुलसी दल, पुष्पो कि माला, गुलाब के फूल, श्रीफल, ऋतुफल,

नैवेद्य, पंचामृत (दूध, दही, शहद, शक्कर), केशर,

कलावा, अंग वस्त्र, यज्ञोपवीत, वस्त्र,

चौकी, भगवान सत्यनारायणकी तसवीर।


सत्यनारायण पूजा की विधि

व्रत करने वाला, पूर्णिमा व संक्रांति के दिन, सायंकाल के समय, स्नानादि से निवृत्त होकर,

पूजा-स्थान मे, आसन पर बैठकर, श्रद्धापूर्वक, श्री गणेश, गौर, वरुण, विष्णु आदि सब देवताओं का ध्यान करके पूजन करे और

संकल्प करे कि मै सत्यनारायण स्वामीका पूजन तथा कथा-श्रवण सदैव करूंगा।

पुष्प हाथ में लेकर, सत्यनारायण भगवानका का ध्यान करे,

यज्ञोपवीत, पुष्प, धूप, नैवेद्य आदि अर्पित कर, स्तुति करे-

हे भगवन ! मैने श्रद्धापूर्वक, फल, जल आदि सब सामग्री, आपको अर्पण की है, इसे स्वीकार कीजिए।

मेरा आपको बार-बार नमस्कार है। इसके बाद, सत्यनारायण जी की कथा पढ़े अथवा श्रवण करे।


सत्यनारायण भगवान की आरती