ध्यान कैसे करना चाहिये? जप, साकार और निराकार ध्यान


कुछ लोग निराकार शुद्ध ब्रह्मका ध्यान करते हैं,
कुछ साकार दो भुजावाले और
कुछ चतुर्भुजधारी भगवान् विष्णुका ध्यान करते हैं।

वास्तवमें भगवान् विष्णु, राम और कृष्ण जैसे एक हैं,
वैसे ही देवी माँ, शिवजी, गणेशजी और सूर्य भी, उनसे कोई भिन्न नहीं।


अठारह पुराणों में ईश्वर

एक ही परमात्माका निरूपण करनेके लिये
श्रीवेदव्यासजीने अठारह पुराणोंकी रचना की है।

जिस देवके नामसे जो पुराण बना,
उसमें उसीको सर्वोपरि, सृष्टिकर्ता,
सर्वगुणसम्पन्न ईश्वर बतलाया गया।

वास्तवमें नाम-रूपके भेदसे
सबमें उस एक ही परमात्माकी बात कही गयी है।

नाम-रूपकी भावना
साधक अपनी इच्छानुसार कर सकते हैं।

यदि कोई एक स्तम्भको ही परमात्मा मानकर उसका ध्यान करे,
तो वह भी परमात्माका ही ध्यान होता है।
किन्तु उसके लक्ष्यमें ईश्वरका पूर्ण भाव होना चाहिये।


साकार और निराकार ध्यान

साकार और निराकार ध्यान दोनों का फल एक ही है।

फर्क केवल साधन में है,
अर्थात ध्यान करने की क्रिया है।

साकारकी अपेक्षा,
निराकारका ध्यान कुछ कठिन है।

किन्तु अपनी–अपनी प्रीतिके अनुसार साधक,
निराकार या साकारका ध्यान कर सकते हैं।


निराकार के उपासक को साकारका तत्व जानना चाहिए

निराकार का ध्यान करने वाले,
यदि साकारका तत्त्व समझकर,
परमात्माको सर्वदेशी, विश्वरूप मानते हुए,
निराकारका ध्यान करें तो फल शीघ्र होता है।

साकारका तत्त्व न समझनेसे,
कुछ विलम्बसे सफलता होती है।


साकारके उपासक को भी निराकार ब्रह्म का तत्व जानना चाहिए

इसी प्रकार, साकारके ध्यान करनेवालो को,
निराकार, व्यापक ब्रह्मका तत्त्व जाननेकी आवश्यकता है।

इसीसे वह सुगमतापूर्वक,
शीघ्र सफलता प्राप्त कर सकता है।


साकार या निराकार में सुलभ मार्ग

निराकारके प्रभावको जानकर,
जो साकारका ध्यान किया जाता है,
वही ईश्वरकी शीघ्र प्राप्तिके लिये,
उत्तम और सुलभ साधन है।

वास्तवमें परमात्माका असली स्वरूप
इन दोनोंसे ही विलक्षण है,
जिसका ध्यान नहीं किया जा सकता।


भगवद गीता में ध्यान का महत्व

भगवान्‌ने गीतामें ध्यान का प्रभाव समझाकर,
ध्यान करनेकी ही बढ़ाई की है।

मय्यावेश्य मनो ये मां नित्ययुक्ता उपासते।
श्रद्धया परयोपेतास्ते मे युक्ततमा मता:॥ (१२।२)

हे अर्जुन! मेरेमें मनको एकाग्र करके,
निरन्तर मेरे भजन, ध्यानमें लगे हुए,
जो भक्तजन, अतिशय श्रेष्ठ श्रद्धासे युक्त हुए,
मुझ सगुणरूप परमेश्वरको भजते हैं,
वे मुझे योगियोंमें भी अति उत्तम योगी मान्य हैं,
अर्थात् उनको मैं अति श्रेष्ठ मानता हूँ।


निराकार का ध्यान

निराकारके ध्यान करनेकी कई युक्तियाँ हैं।

जिसको जो सुगम मालूम हो,
वह उसीका अभ्यास करे।
सबका फल एक ही है।

कुछ युक्तियाँ निचे दी गयी है –


गीता के अनुसार ध्यान कैसे करें?

साधकको भगवद गीताके अध्याय ६ – श्लोक ११ से १३ के अनुसार,
एकान्त स्थानमें बैठकर,
नेत्रोंकी दृष्टिको नासिकाके अग्रभागपर रखकर,
या आँखें बंदकर (अपनी इच्छानुसार) ध्यान करना चाहिए।


ध्यान कितने समय करें?

नियमपूर्वक प्रतिदिन कम से कम तीन घण्टे का समय,
ध्यानके अभ्यासमें बिताना चाहिये।

तीन घण्टे कोई न कर सके तो, दो करे,
दो नहीं तो एक घण्टे, अवश्य ध्यान करना चाहिये।

शुरू शुरू में मन न लगे, तो पंद्रह–बीस मिनटसे आरम्भ कर,
धीरे–धीरे ध्यानका समय बढ़ाते रहे।

बहुत शीघ्र प्राप्तिकी इच्छा रखनेवाले साधकोंके लिये,
तीन घण्टेका अभ्यास आवश्यक है।


निराकार ध्यान में ॐ कार जाप

ध्यानमें नाम जपसे बड़ी सहायता मिलती है।

ईश्वरके सभी नाम समान हैं,
परंतु निराकारकी उपासनामें ॐ कार प्रधान है।

योगदर्शनमें भी महर्षि पतंजलिने कहा है –

तस्य वाचक: प्रणव:॥
तज्जपस्तदर्थभावनम्॥

उसका वाचक प्रणव (ॐ) है,
उस प्रणवका जप करना और
उसके अर्थ (परमात्मा) का ध्यान करना चाहिये,
स्वरूपका ध्यान करना चाहिये।


ध्यान में नाम का जप

ध्यानका लक्ष्य ठीक करनेके लिये,
पतंजलिजीके कथनानुसार,
स्वरूपका ध्यान करते हुए,
नामका जप करना चाहिये।

ॐ की जगह कोई आनन्दमय ब्रह्मका जप करे,
तो भी कोई आपत्ति नहीं है।

भेद नामोंमें है,
फलमें कोई फर्क नहीं है।


ध्यान के समय जप कैसे करें? मन से, वाणी से या श्वास में?

मन और बुद्धि से जप

जप सबसे उत्तम वह होता है, जो मनसे होता है,
जिसमें जीभ हिलाने और
होठोंसे उच्चारण करनेकी कोई आवश्यकता नहीं होती।

ऐसे जपमें ध्यान और जप दोनों साथ ही हो सकते हैं।

अन्तःकरणके चार चीजों में, मन और बुद्धि दो प्रधान हैं।

बुद्धिसे
पहले परमात्माका स्वरूप निश्चय करके, उसमें बुद्धि स्थिर कर ले,
फिर मन से
उसी सर्वत्र परिपूर्ण आनन्दमयकी पुन:–पुन: आवृत्ति करते रहे।

यह जप भी है और ध्यान भी।

वास्तवमें आनन्दमयके जप और ध्यानमें, कोई खास अन्तर नहीं है।

दोनों काम एक साथ किये जा सकते हैं।


श्वास के द्वारा जप

दूसरी युक्ति श्वासके द्वारा जप करनेकी है।

श्वासोंके आते और जाते समय, कण्ठसे नामका जप करे।

जीभ और होठोंको बंदकर,
श्वासके साथ नामकी आवृत्ति (नामका जप) करते रहे,
यही प्राणजप है, इसको प्राणद्वारा उपासना कहते हैं।

यह जप भी उच्च श्रेणीका है।


वाणी से जप

यह न हो सके तो, मनमें ध्यान करे और
जीभसे उच्चारण करे।

परन्तु इनमें साधकके लिये अधिक सुगम और लाभप्रद
श्वासके द्वारा किया जानेवाला जप है।

यह तो जपकी बात हुई, असलमें जप तो निराकार और साकार,
दोनों प्रकारके ध्यानमें ही होना चाहिये।


निराकार ध्यान – नेति, नेति

अब निराकारके ध्यानके सम्बन्धमें –

एकान्त स्थानमें, स्थिर आसनसे बैठकर,
एकाग्रचित्तसे इस प्रकार अभ्यास करे।

जो कोई भी वस्तु, इन्द्रिय और मनसे प्रतीत हो,
उसीको कल्पित समझकर, उसका त्याग करते रहे।

जो कुछ प्रतीत होता है, सो है नहीं।

स्थूल शरीर, ज्ञानेन्द्रियाँ, मन, बुद्धि, आदि कुछ भी नहीं हैं।

इस प्रकार, सबका अभाव करते करते,
अभाव करनेवाले पुरुषकी वह वृत्ति,
अर्थात् दृश्यको अभाव करनेवाली वृत्ति भी शान्त हो जाती है।

उस वृत्तिका त्याग करना नहीं पड़ता, स्वयमेव हो जाता है।

इसीको वेदोंमें – नेति – नेति अर्थात ऐसा भी नहीं, ऐसा भी नहीं, कहा है।


त्याग स्वयं हो जाता है, वृत्तियाँ शांत हो जाती है

त्याग करनेमें तो त्याग करनेवाला,
त्याज्य वस्तु (जिसका त्याग कर रहे है) और
त्याग, यह त्रिपुटी आ जाती है।

इसलिये, त्याग करना नहीं पड़ता,
त्याग हो जाता है।

जैसे ईंधनके अभावमें अग्नि स्वयमेव शान्त हो जाती है,

इसी प्रकार विषयोंके सर्वथा अभावसे,
वृत्तियाँ भी सर्वथा शान्त हो जाती हैं।

शेषमें जो बचा रहता है,
वही परमात्माका स्वरूप है।

इसीको निर्बीज समाधि कहते हैं।

तस्यापि निरोधे सर्वनिरोधान्निर्बीज: समाधि:॥

संसारको जड़से उखाड़कर फेंक देनेपर, परमात्मा आप ही रह जाते हैं।

उपाधियोंका नाश होते ही सारा भेद मिटकर,
अपार एकरूप परमात्माका स्वरूप रह जाता है।

वही सब जगह परिपूर्ण, और सभी देश–कालमें व्याप्त है।

जब चिन्तनका सर्वथा त्याग हो जाता है,
तभी उस अचिन्त्य ब्रह्मका खजाना निकल पड़ता है और
साधक उसमें जाकर मिल जाता है।


अज्ञान मिट जाता है, विकार दूर हो जाते है

जबतक अज्ञानकी आड़से दूसरे पदार्थ भरे हुए थे,
तबतक वह खजाना अदृश्य था।

अज्ञान मिटनेपर एक ही वस्तु रह जाती है,
तब उसमें मिल जाना,
यानी सम्पूर्ण वृत्तियोंका शान्त होकर
एक ही वस्तुका रह जाना निश्चित है।

सब वस्तुओंका अभाव होनेपर प्राप्त होनेवाली चीज कैसी है,
उसका स्वरूप कोई नहीं कह सकता,
वह तो अत्यन्त विलक्षण है।

सूक्ष्मभावके तत्त्वज्ञ सूक्ष्मदर्शी महात्मागण उसे, –
सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म – कहते हैं।

वह अपार है, असीम है,
चेतन है, ज्ञाता है,
घन है, आनन्दमय है,
सुखरूप है, सत् है, नित्य है।

इस प्रकारके विशेषणोंसे वे विलक्षण वस्तुका निर्देश करते हैं।

उसकी प्राप्ति हो जानेपर फिर कभी पतन नहीं होता।

दुःख, क्लेश, दुर्गुण, शोक,
अल्पता, विक्षेप, अज्ञान और
पाप आदि, सब विकारोंकी
सदाके लिये आत्यन्तिक निवृत्ति हो जाती है।

एक सत्य, ज्ञान, बोध और आनन्दरूप ब्रह्मके बाहुल्यकी जागृति रहती है।

यह जागृति भी केवल समझानेके लिये ही है।
वास्तवमें तो कुछ कहा नहीं जा सकता।

अनादिमत्परं ब्रह्म न सत्तन्नासदुच्येते॥ (गीता १३ । १२)

वह आदिरहित परब्रह्म, अकथनीय होनेसे
न सत् कहा जाता है, और न असत् ही कहा जाता है।

यदि ज्ञानका भोक्ता कहें, तो कोई भोग नहीं है।
यदि ज्ञानरूप या सुखरूप कहें, तो कोई भोक्ता नहीं है।

भोक्ता, भोग और भोग्य,
सब कुछ एक ही रह जाता है।

वह एक ऐसी चीज है जिसमें त्रिपुटी रहती ही नहीं।

एक तो यह निराकारके ध्यानकी विधि है।


साकार ध्यान

अब साकारके ध्यानके सम्बन्धमें –

साकारकी उपासनाके फल दोनों प्रकारके होते हैं।

साधक यदि मुक्ति चाहता है और
शुद्ध ब्रह्ममें एकरूपसे मिलना चाहता है,
तो उसमें मिल जाता है, उसकी मुक्ति हो जाती है।

परन्तु यदि वह ऐसी इच्छा करता है कि,
मैं दास, सेवक या सखा बनकर,
भगवान्‌के समीप निवास कर प्रेमानन्दका भोग करूँ,
या अलग रहकर संसारमें भगवत्प्रेम प्रचाररूप परम सेवा करूँ,
तो उसको सालोक्य, सारूप्य, सामीप्य, सायुज्य आदि मुक्तियों में से
यथारुचि कोई सी मुक्ति मिल जाती है और
वह मृत्युके बाद भगवान्‌के परम नित्यधाममें चला जाता है।

महाप्रलयतक नित्यधाममें रहकर,
अन्तमें परमात्मामें मिल जाता है,
या संसारका उद्धार करनेके लिये,
कारक पुरुष बनकर जन्म भी ले सकता है।

परन्तु जन्म लेनेपर भी
वह किसी मोह माया में नहीं फँसता।

माया उसे किंचित् भी दुःख–कष्ट नहीं पहुँचा सकती,
वह नित्य मुक्त ही रहता है।

जिस नित्यधाममें ऐसा साधक जाता है,
वह परमधाम सर्वोपरि है, सबसे श्रेष्ठ है।

उससे परे
एक सच्चिदानन्दघन निराकार शुद्ध ब्रह्मके अतिरिक्त
और कुछ भी नहीं है।

वह सदासे है, सब लोक नाश होनेपर भी वह बना रहता है।

उसका स्वरूप कैसा है?

इस बातको वही जानता है, जो वहाँ पहुँच जाता है।

वहाँ जानेपर सारी भूलें मिट जाती हैं।

उसके सम्बन्धकी सम्पूर्ण भिन्न–भिन्न कल्पनाएँ,
वहाँ पहुँचनेपर एक यथार्थ सत्यस्वरूपमें परिणत हो जाती हैं।

महात्मागण कहते हैं कि,
वहाँ पहुँचे हुए भक्तोंको
प्राय: वह सब शक्तियाँ और सिद्धियाँ प्राप्त होती हैं, जो भगवान्‌में हैं,
परन्तु वे भक्त,
भगवान्‌के सृष्टिकार्यके विरुद्ध उनका उपयोग कभी नहीं करते।

उस महामहिम प्रभुके दास, सखा या सेवक बनकर,
जो उस परमधाममें सदा समीप निवास करते हैं,
वे सर्वदा उसकी आज्ञामें ही चलते हैं।

गीताके अध्याय 8 श्लोक 24, इस परमधाममें जानेवाले साधकके लिये ही है।

बृहदारण्यक और छान्दोग्य उपनिषद्‌में भी इस अर्चिमार्गका विस्तृत वर्णन है।

इस नित्यधामको ही, सम्भवत:
भगवान् श्रीकृष्णके उपासक गोलोक,
भगवान् श्रीरामके उपासक साकेतलोक कहते हैं।

वेदमें इसीको, सत्यलोक और ब्रह्मलोक कहा है।
(वह ब्रह्मलोक नहीं जिसमें ब्रह्माजी निवास करते हैं,
जिसका वर्णन गीता अध्याय 8 के 16 वें श्लोकके पूर्वार्धमें है।)

भगवान् साकाररूपसे अपने इसी नित्यधाममें विराजते हैं।
साकाररूप मानकर, नित्य परमधाम न मानना बड़ी भूलकी बात है।


भक्तियोग – List