मन को भगवान् में कैसे लगाएं


मन, संसार की बातें और भगवान् का चिंतन

मन की इच्छाओं के अनुरूप फल मिलता है

मन जिसकी लालसा करता है, उसे पाता है।

जगतमें दो बातें है –
एक सांसारिक वस्तुएं अर्थात मोह-माया, भोग पदार्थ
और दूसरे भगवान।

मन सांसारिक चीजों का चिंतन करता है, तो भोग मिलता है और
भगवान का चिंतन करता है, तो भगवान मिलते हैं।


मन, सांसारिक चीजों का या भगवान का, चिंतन क्यों करता है?

मन संसार की बातों का या कभी कभी ईश्वर का चिंतन क्यों करता है?

इसका उत्तर यह है कि,
आनंद के लिए, शाश्वत सुख के लिए।

बीच-बीच में जब मन को यह लगने लगता है कि,
सांसारिक बातों से मिलने वाला सुख या आनंद अखंड नहीं है,
बल्कि उसके परिणाम में क्लेश, भय, चिंता और दु:ख मिलता है,
तब उसमें अर्थात मनमे, भगवान की इच्छा जाग उठती है।

मन जिसके लिए उत्सुक होता है, उसे पाता है।

इस प्रकार मन भगवान के लिए उत्सुक होकर,
भगवान में लीन हो जाता है।

और आत्मा तो परमात्मा स्वरुप है,
इसलिए कह सकते हैं कि,
मन आत्मा में लीन हो जाता है।

इस मार्ग के साधक का जब मन व्याकुल होता है,
या उसे कोई इच्छा होती है,
तब उसके लिए वह अपने भगवान की शरण लेता है।

और परमात्मा तो कल्पतरु है।
उन का आश्रय लेकर, मनुष्य जो इच्छा करता है, वह पाता है।

इसलिए, इस प्रकार भक्तियोग वाला
अस्त-व्यस्त होकर काम करता हुआ भी,
आखिर भगवान को प्राप्त करता है।


योग अर्थात मन को ईश्वर से जोड़ना

चित्तको भगवानमें जोड़नेका नाम योग है।

यहां जो कुछ है, सब परमात्मा से उत्पन्न हुआ है।

परमात्मा सर्वत्र, अव्यक्त रूप में व्यापक,
सर्वशक्तिमान, सर्वज्ञ, अविनाशी,
दयालु और भक्त वत्सल है।

उनको भज कर, मैं उन्हें प्राप्त करूंगा।

वह मेरे सर्वस्व है, मुझे वे तारेंगे –
इस भावना से मन को, भगवान में जोड़ने का नाम योग है।


मन का गड़बड़ घोटाला

जगत के अनेकों संस्कार, मन को भुलावे में डालते हैं,
उनसे कभी मन में, भोग की इच्छा जागृत होती है,
और फिर कभी, भोग के प्रति इच्छा का अभाव होकर, भगवान की इच्छा जाग उठती है।

इस प्रकार, मन का गड़बड़ घोटाला चला ही करता है।

मन का यह भ्रम चिरकाल से है,
इसलिए, यह सहज ही दूर नहीं होता।

मन एक बार सोचता है कि,
भोग की इच्छा नहीं करना चाहिए,
मोह माया में नहीं फंसना चाहिए,

भोग का चिंतन भी नहीं करना चाहिए,
केवल भगवान की ही चाह करना चाहिए।

इस प्रयत्न में, उसकी अनेक परीक्षाएं होती है।
उसके सामने, अनेकों भोग आकर खड़े हो जाते हैं।
उसी की इंद्रियां, उनको भोगने के लिए, उसे ललचाती है।

इस अवस्था में, यदि उसकी बुद्धि, परिपक्व नहीं हुई होती है,
तो वह मन, भगवान की भक्ति को छोड़कर, भोग में फंस जाता है,
और, एक बार भोग में पड़ा हुआ मन, सहज ही नहीं निकलता।


हठपूर्वक मन को रोके, या भगवान् की शरण जाएं?

हठपूर्वक सांसारिक चीजों से हटाया हुआ मन,
उन चीजों के लिए प्रबल आकर्षण होने पर
तुरंत ही उसमें फंस जाता है।

इसलिए, मोह माया के बंधनों से छूटने के लिए,
भोग का त्याग करने के लिए,
भगवान की शरण लेनी चाहिए।

भगवान की प्राप्ति करने के लिए और
भोग की इच्छा का त्याग करने के लिए,
जो भगवान की शरण लेते हैं,
उनकी रक्षा भगवान स्वयं करते हैं।

इसी कारण, भगवान का भक्त,
भोग का सहज ही त्याग करके
आसानी से भगवान को पा लेता है।

क्योंकि ऐसे भक्तों का चित्त,
मोह माया का त्याग करने के लिए,
अपने बल का भरोसा नहीं करता है।

बल्कि उन भगवान का बल ही,
उसका आधार होता है,
जिसका बल अपार है।

और जो भगवान की शरण न लेने वाले साधक,
अपने ही अल्प बल का भरोसा करते हैं,
उनकी चेष्टा निष्फल हो जाने की, अधिक संभावना होती है।

इसलिए, भक्ति की कामना करने वालों को चाहिए कि,
भगवान जो सर्वत्र, व्यापक, सर्वशक्तिमान,
सर्वज्ञ, सबके आधार और दयालु और भक्त वत्सल है,

उनकी शरण लेकर, उनकी प्रार्थना करके,
उन्हीं के दया के द्वारा मुक्ति पाने के लिए यत्न करें।


भगवद गीता की सहायता से मन को ईश्वर में कैसे लगाएं ?

गीता किसी संप्रदाय का ग्रंथ नहीं है।
जगत के मनुष्य मात्र के ऊपर लागू होने वाला ग्रंथ है।
इसमें कही हुई बातें स्वाभाविक है।

शरीर में रहकर क्रिया करने वाले मन का निदान ठीक-ठीक समझाकर,
गीता ने यह बतलाया है कि,
मन को स्थाई शांति कैसे प्राप्त हो सकती है।

गीता को सदा श्लोक और अर्थ के साथ पढ़ना चाहिए,

उसका नियमित पाठ करना चाहिए और उनपर विचार करना चाहिए।

पाठ करने से मुख्य श्लोक कंठस्थ हो जाएंगे, अर्थात याद हो जाएंगे।

और जब, मन कभी शांत बैठा होगा, चित्त फुर्सत में होगा,
तब मन में उन श्लोकों का अर्थ स्फुरित होगा।

उसमें कहे हुए साधनके प्रति श्रद्धा होगी और
उस साधनके लिए प्रयत्न करने में उत्साह होगा।

गीता में बतलाए हुए साधनों के करने से ही,
कर्मो को निष्काम भाव से किया जा सकता है और
मन को शांति मिल सकती है।

साधन के बिना कुछ नहीं मिलता।

दूसरे अध्याय में बतलाये हुए स्थितप्रज्ञ के लक्षण,
तीसरे अध्याय में बताया हुआ, काम क्रोध के नाश करने का आग्रह,
बारहवें अध्याय में बतलाये हुए, भक्तों के लक्षण,
तरहवें अध्याय में बतलाए हुए, ज्ञान के लक्षण,
चौदहवें अध्याय में बताए हुए, गुनातीत के लक्षण,
सोलहवे अध्याय में बतलाए हुए, दैवी-सम्पदा के लक्षण
तथा इनके अतिरिक्त सारी गीता में, यत्र तत्र कहे गए साधनों को, यदि साधक करें, तो जरूर शांति प्राप्त होती है।

छठे अध्याय में बतलाया हुआ, मन के निरोध का उपाय भी, आग्रह पूर्वक करने योग्य है।


सत्संग और भक्तियोग – List