मन को नियंत्रण में करने के 15 उपाय


इस लेख में मन को नियंत्रण में करने के लिए 15 उपाय दिए गए हैं।

इस पोस्ट में जितने उपाय बताए गए हैं,
वे सभी संत, महात्मा पुरुष
या ऊँचे साधक द्वारा बताई गई बातों से लिए गए हैं।

आध्यात्मिक जीवन हो या सांसारिक जीवन,
दोनों ही स्थितियों में सफलता के लिए मन पर कंट्रोल सबसे महत्वपूर्ण है।

यदि आपको लगता है कि, मन पर नियंत्रण करना जरूरी है,
तो अपनी अवस्था के अनुकुल नीचे दिए गए उपाय में से
किसी एक उपाय से शुरू कर सकते हैं।

इस आर्टिकल में मन को शांत करने के लिए
जो आनापान ध्यान साधना है,
उसके बारे में नहीं दिया गया है।

आनापान ध्यान और विपश्यना के बारे में विस्तार से,
दूसरे आर्टिकल में दिया गया है।


मन को वश में क्यों करें?

भगवान् ने मन के बारे में गीता में क्या कहा है?

श्रीकृष्ण ने गीता में कहा है –
जिसका मन वशमें नहीं है
उसके लिये योगका प्राप्त करना अत्यन्त कठिन है,
परन्तु जिसका मन वशमें है ऐसा प्रयत्नशील व्यक्ति,
साधन द्वारा, योग प्राप्त कर सकता है।

असंयतात्मना योगो दुष्प्राप इति मे मतिः ।
वश्यात्मना तु यतता शक्योऽवाप्तुमुपायतः॥
(गीता ६ ॥३६)

भगवान् श्रीकृष्णके इन वचनोंके अनुसार यह सिद्ध होता है कि,
मनको वश में किये बिना
परमात्माकी प्राप्ति के लिए योग, भक्ति
या साधना अत्यन्त कठिन है।


दुःखोंसे मुक्ति के लिए, मन को काबू में करने के अलावा, दुसरा उपाय नही

यदि कोई ऐसा चाहे कि,
मन तो अपनी इच्छानुसार, निरंकुश होकर,
विषय वाटिकामे स्वच्छन्द विचरण किया करे और
परमात्माके दर्शन अपनेआप ही हो जायें,
तो यह उसकी भूल है।

आनन्दमय परमात्माकी प्राप्ति और
दुःखोंसे मुक्ति चाहनेवाले को
मन को वशमें करना ही पड़ेगा।

इसके सिवा और कोई उपाय नहीं है।


आदि शंकराचार्य ने मन के बारे में कहा है –

भगवान् शङ्कराचार्यने कहा है –

जित जगत् केन, मनो हि येन।

अर्थात, जगत को किसने जीता?
जिसने मनको जीत लिया।

यानी की,
मन पर विजय मिलते ही
मानो विश्वपर विजय मिल जाती है।


किन्तु, मन बड़ा चंचल और बलवान है

परन्तु मन स्वभावसे ही बड़ा चञ्चल और बलवान् है और
इसे वशमें करना साधारण बात नहीं है।

सारे साधन इसीको कंट्रोल में करने के लिये किये जाते है।

अर्जुन ने भी श्रीकृष्ण से कहा था, मन बड़ा चंचल है

अर्जुनने भी मनको वशमें करना कठिन समझकर,
भगवान् से यही कहा था –

चञ्चलं हि मनः कृष्ण
प्रमाथि बलवद् दृढम्।
तस्याहं निग्रहं मन्ये
वायोरिव सुदुष्करम्॥ (गीता ६।३४)

हे भगवन्।
यह मन बड़ा ही चंचल, हठीला,
दृढ़ और बलवान है।
इसे रोकना मैं तो वायुके रोकनेके समान,
अत्यन्त दुष्कर समझता हूँ।


लेकिन, भगवान् कृष्ण ने अर्जुन को, मन वश में करने का रास्ता बताया

भगवान् ने भी इस बातको स्वीकार किया,
पर साथ ही उपाय भी बतला दिया —

असंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रहं चलम्।
अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते॥
(गीता ६ । ३५)

भगवान् ने कहा – अर्जुन!
इसमे कोई सन्देह नहीं
कि इस चञ्चल मनका निग्रह करना बड़ा ही कठिन है,
परन्तु अभ्यास और वैराग्यसे, यह वशमें हो सकता है।

इससे यह सिद्ध हो गया कि,
मनका वशमें करना कठिन भले ही हो, पर असम्भव नहीं और
इसके वश किये बिना, दुःखोंकी निवृत्ति नहीं।

इसलिए मन को वश में करने का
निरंतर प्रयास करना ही चाहिये।

इसके लिये, सबसे पहले इसका साधारण स्वरुप और
स्वभाव जानने की आवश्यकता है।


मनका स्वरूप

मन क्या है?

यह आत्म और अनात्म पदार्थके
बीचमे रहनेवाली एक विलक्षण वस्तु है।

मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोः।

मन इतना बलवान है की
यह व्यक्ति को, बंधन या मोक्ष दोनों में से
किसी एक रास्ते पर ले जा सकता है।

बस, मन ही जगत् है,
मन नहीं तो जगत् नहीं।


मन क्या करता है?

मन का कार्य है संकल्प-विकल्प करना,
जिसकी वजह से विकार उत्पन्न होते है।

यह जिस पदार्थको भलीभाँति ग्रहण करता है,
स्वयं भी तदाकार बन जाता है।

साधारणतया, यही मनका स्वरूप और स्वभाव है।

मन रागके अर्थात आसक्ति के साथ ही चलता है।

सारे अनर्थों और दुःखो की उत्पत्ति, रागसे ही होती है।

राग (इच्छा, आसक्ति) न हो तो, मन प्रपञ्चोंकी ओर न जाय।


तो मन को कण्ट्रोल कैसे करें?

अब, सबसे महत्वपूर्ण बात यह है की, यह वशमे कैसे हो।

इसके लिये उपाय भी, भगवान् ने बतला ही दिया है –
अभ्यास और वैराग्य।

यही उपाय योगदर्शनमे, महर्षि पतञ्जलिने बतलाया है –
अभ्यासवैराग्याभ्यां तन्निरोध।
(समाधिपाद १२)

अर्थात, अभ्यास और वैराग्यसे ही चित्तका निरोध होता है।

इसलिए, इसी अभ्यास और वैराग्य पर विचार करना चाहिये।


वैराग्य और अभ्यास से मन का नियंत्रण

निचे मन को वश में करने के कुछ उपाय दिए गए है।

जिसमे पहला उपाय, वैराग्य से संबंधित है और
बाद के उपाय, अभ्यास से सम्बंधित है।


1. वैराग्य से संबंधित तरीका – भोगों में वैराग्य

सांसारिक पदार्थों और भोगों की सच्चाई क्या है?

जबतक संसारकी वस्तुएँ सुन्दर और सुखप्रद मालूम होती है,
तभीतक मन उनमें जाता है।

लेकिन जब इन भौतिक पदार्थों और
भोगों की असली सच्चाई समझ में आ जाये
की ये सब पदार्थ, दोषयुक्त और दुःखप्रद है,
तो मन कदापि इनमें नहीं लगेगा।

क्योंकि, इन भोगों के अंत में दुःख ही है,
भले ही कुछ समय के लिए इनमे ख़ुशी मिलती हो,
किन्तु अंत में दोष ही है।

सांसारिक वस्तुओं में थोड़े समय के लिए ख़ुशी

जब मन को यह सच्चाई समझ में आ जायेगी,
तब मन, कभी इन वस्तुओं के पीछे नहीं दौड़ेगा और
यदि कभी इनकी ओर गया भी,
तो उसी समय वापस लौट आएगा।

इसलिये, संसारके सारे पदार्थोंमे,
चाहे वे इहलौकिक हो या पारलौकिक,
दुःख और दोषकी प्रत्यक्ष भावना करनी चाहिये।

इस सच्चाई को अच्छी तरह समझ लेना चाहिए
की इन पदार्थोंमें, केवल दोष और दुःख ही भरे हुए है।


अध्यात्म के रास्ते की सच्चाई क्या है?

रमणीय और सुखरूप दीखनेवाली चीजों में ही मन लगता है।

यदि यह रमणीयता और सुखरूपता
विषयोंसे हटकर परमात्मा में दिखायी देने लगे,
जैसा कि वास्तवमे है,
तो यही मन तुरन्त विषयोंसे हटकर
परमात्मामे लग जाय।

यही वैराग्यका साधन है और
वैराग्य ही मन जीतनेका एक उत्तम उपाय है।

सच्चा वैराग्य तो संसारके इस दीखनेवाले स्वरूपका सर्वथा अभाव और
उसकी जगह परमात्माका नित्यभाव प्रतीत होनेमे है।

परन्तु आरम्भमे नये साधकको मन वश करनेके लिये
इस लोक और परलोकके समस्त पदार्थोंमे
दोष और दुःख देखना चाहिये,
जिससे मनका अनुराग उनसे हटे।


भगवान् कृष्ण ने, इस वैराग्य के तरीके के बारे में क्या कहा?

श्रीभगवान् ने कहा है –

इन्द्रियार्थेषु वैराग्यमनहंकार एव च।
जन्ममृत्यु जराव्याधि दुःखदोषानुदर्शनम्॥
(गीता १३ । ८)

इस लोक और परलोकके समस्त भोगोंमें
वैराग्य, अहंकारका त्याग,
इस शरीरमे, जन्म, मृत्यु, बुढ़ापा और
रोग आदि दुःख और दोष देखने चाहिये।

इस प्रकार वैराग्यकी भावनासे
मन वशमे हो सकता है ।

यह तो वैराग्यका संक्षिप्त साधन हुआ,
अब कुछ अभ्यासोंपर विचार करें।


2. नियमसे रहना

सांसारिक हो या आध्यात्मिक जीवन, सफलता के लिए नियम का बड़ा महत्व है

मनको वश करनेमें नियमानुवर्तितासे,
अर्थात नियमसे रहने से बड़ी सहायता मिलती है।

सारे काम ठीक समयपर नियमानुसार होने चाहिये।

प्रातःकाल बिस्तरसे उठकर रातको सोने तक,
दिनभरके कार्योंकी एक ऐसी नियमित दिनचर्या बना लेनी चाहिये,
जिससे जिस समय जो कार्य करना हो,
मन अपने-आप स्वभावसे ही उस समय उसी कार्य में लग जाय।

संसार-साधनमे तो नियमानुवर्तितासे लाभ होता ही है,
परमार्थमे भी इससे बड़ा लाभ होता है।


ध्यान के समय का नियम

अपने जिस इष्ट स्वरूपके ध्यानके लिये
प्रतिदिन जिस स्थानपर, जिस आसनपर,
जिस आसनसे, जिस समय और जितने समय बैठा जाय,
उसमे किसी दिन भी आलस या व्यतिक्रम नहीं होना चाहिये।

पाँच मिनटका भी नियमित ध्यान,
अनियमित अधिक समयके ध्यानसे उत्तम है।

आज दस मिनट बैठे, कल आध घण्टे, परसो बिल्कुल नहीं किया,
इस प्रकारके साधनसे मनको शांत और
नियंत्रण करना अत्यंत कठिन होता है और
सिद्धि भी कठिनतासे मिलती है।

जब पाँच मिनटका ध्यान नियमसे होने लगे,
तब दस मिनटका करे,
परन्तु दस मिनटका करनेके बाद,
किसी भी दिन नौ मिनट न होना चाहिये।

इसी प्रकार स्थान, आसन, समय,
इष्ट और मन्त्रका, बारबार परिवर्तन नहीं करना चाहिये।

इस तरह नियम से रहने से भी मन स्थिर होता है।


सभी बातों में नियम

नियमोंका पालन, खाने, पीने, पहनने, सोने और
व्यवहार करने सम्बन्धी सभी चीजों में होना चाहिये।

नियम अपनी अवस्था के अनुकुल शास्त्रसम्मत बना लेने चाहिये।


3. मनकी क्रियाओंपर विचार

मन के अच्छे और बुरे विचार

मनके प्रत्येक कार्यपर विचार करना चाहिये।

प्रतिदिन रातको सोनेसे पूर्व
दिनभरके मनके कार्योंपर विचार करना उचित है।

यद्यपि मनकी सारी उधेड़-बुनका स्मरण होना बड़ा कठिन है,
परन्तु, जितनी याद रहे, उतनी ही बातों पर विचार कर,
जो-जो संकल्प अर्थात विचार सात्त्विक मालूम दें,
उनके लिये मनकी सराहना करना और
जो-जो सङ्कल्प तामसिक अर्थात बुरे मालूम पड़ें,
उनको सुधारने का संकल्प करना चाहिए।

मन के बुरे संकल्प, धीरे धीरे समाप्त हो जाएंगे

प्रतिदिन इस प्रकारके अभ्याससे,
मनपर सत्कार्य करनेके और
बुरे कार्य छोड़नेके संस्कार जमने लगेंगे।

जिससे कुछ ही समयमें मन बुराइयों से बचकर,
भले भले कार्योंमे लग जायगा।

मन पहले भले कार्यवाला होगा,
तब उसे वशमें करनेमें सुगमता होगी।


बुरी संगति में, पड़ा हुआ बालक का उदाहरण

बुरी संगति में पड़ा हुआ बालक जबतक कुसंगति नहीं छोड़ता,
तबतक उसे बुरी संगति से दूर रहने की सलाह मिलती रहती है।

क्योंकि जबतक वह बालक बुरी सांगत में है,
तब तक उसे कुछ भी समझाना कठिन होता है।

पर जब कुसंग छूट जाता है,
तब उसे बुरी सलाह नहीं मिल सकती, और
दिनरात घरमे उसको माता-पिताके सदुपदेश मिलते हैं,
वह भली-भली बातें सुनता है।

तब फिर उसके सुधरकर
माता-पिताके आज्ञाकारी होनेमे विलम्ब नहीं होता।


मन में, बुरे विचारों की जगह, अच्छे विचार आना शुरू हो जाएंगे

इसी तरह यदि विषय-चिन्तन करनेवाले मनको
कोई एक साथ ही सर्वथा विषयरहित करना चाहे,
तो वह नहीं कर सकता।

पहले मनको बुरे चिन्तनसे बचाना चाहिये,
जब वह परमात्म-सम्बन्धी शुभ चिन्तन करने लगेगा,
तब उसको वश करनेमें कोई कठिनाई नहीं होगी।


4. मनके कहनेमें न चलना

मनके कहने में नहीं चलना चाहिये।

जबतक यह मन, वशमें नहीं हो जाता,
तबतक इसके कहने के अनुसार नहीं चलना चाहिये।

जैसे शत्रुके प्रत्येक कार्यपर निगरानी रखनी पड़ती है,
वैसे ही इसके भी प्रत्येक कार्यको सावधानीसे देखना चाहिये।

मन लोभी, मन लालची, मन चंचल, मन चोर।
मन के मते ना चालीये। मन पल पल में कहीं और॥

मनकी खातिर अर्थात मन जैसा कहे वैसा कर लिया,
ऐसा भूलकर भी नहीं करनी चाहिये।

जहाँ कहीं यह उलटा सीधा करने लगे,
वहीं इसे धिक्कारना और पछाड़ना चाहिये।


मन बड़ा बलवान, किन्तु धीरे धीरे काबू में आ ही जाता है

यद्यपि यह बड़ा बलवान् है,
कई बार इससे हारना होगा,
पर साहस नहीं छोड़ना चाहिये।

जो हिम्मत नहीं हारता,
वह एक दिन मनको अवश्य जीत लेता है।

इससे लड़नेमे एक विचित्रता है।
यदि दृढ़तासे लढा जाय,
तो लड़ने वाले का बल दिनोदिन बढ़ता है और
इसका क्रमशः घटने लगता है।

इसलिये, इससे लड़नेवाला एक-न-एक दिन
इसपर अवश्य ही विजयी होता है।

अतएव इसकी हाँ-में-हाँ न मिलाकर
प्रत्येक कार्यमें खूब सावधानीसे बरतना चाहिये।

यह मन बड़ा ही चतुर है।

कभी डरावेगा, कभी फुसलावेगा,
कभी लालच देगा, बड़े-बड़े अनोखे रंग दिखलावेगा,
परन्तु कभी इसके धोखेमे न आना चाहिये।

भूलकर भी इसका विश्वास नहीं करना चाहिये।

आज्ञाकारी मन

इस प्रकार करनेसे इसकी हिम्मत टूट जायगी और
लड़ने और धोखा देनेकी आदत छूट जायगी।

अंत में यह आज्ञा देनेवाला न रहकर
सीधा-सादा आज्ञा पालन करनेवाला,
विश्वासी सेवक बन जायगा।


5. मनको सत्कार्यमें संलग्न रखना

मन कभी निकम्मा नहीं रह सकता,
कुछ-न-कुछ काम इसको मिलना ही चाहिये;

इसलिए, इसे निरन्तर काममें लगाये रखना चाहिये।

निकम्मा रहनेसे ही इसे दूसरी बातें सूझा करती है।

इसलिए जबतक नींद न आये,
तब तक चुने हुए सुन्दर माङ्गलिक कार्योंमे इसे लगाये रखना चाहिये।

जाग्रत् समयके सत्कार्योंके चित्र ही
स्वप्नमे भी दिखायी देंगे।


6. मनको परमात्मामें लगाना

श्रीकृष्ण ने, मन को, ईश्वर में लगाने के विषय में क्या कहा?

श्रीभगवान् ने कहा है –

यतो यतो निश्चरति मनश्चञ्चलमस्थिरम्।
ततस्ततो नियम्यैतदात्मन्येव वशं नयेत्॥
(गीता ६ । २६)

यह चञ्चल और अस्थिर मन,
जहाँ-जहाँ दौड़कर जाय,
वहाँ-वहाँसे हटाकर वारंवार इसे
परमात्मामें ही लगाना चाहिये।


मनको वशमें करनेका उपाय प्रारम्भ करनेपर,
पहलेपहले तो यह इतना जोर दिखलाता है,

अपनी चञ्चलता और शक्तिमत्तासे ऐसी पछाड़ लगाता है
कि नया साधक घबड़ा उठता है।
उसके हृदयमें निराशा सी छा जाती है।

परन्तु ऐसी अवस्थामे धैर्य रखना चाहिये।

मनका तो ऐसा स्वभाव ही है,
लेकिन इसपर विजय पाना जरूरी है,
इसलिए घबड़ानेसे काम नहीं चलेगा।

मुस्तैदीसे सामना करना चाहिये।

आज न हुआ तो क्या, कभी-न-कभी तो वशमें होगा ही।

भगवान् कृष्ण ने भी कहा है की, मन को नियंत्रण में करने का अभ्यास करते रहे

इसीलिये भगवान् ने कहा है –

शनैः शनैरुपरमेद बुद्ध्या धृतिगृहीतया।
आत्मसंस्थ मन कृत्वा न किञ्चिदपि चिन्तयेत॥
(गीता ६ । २५)

धीरे-धीरे अभ्यास करता हुआ उपरामताको प्राप्त हो।

धैर्ययुक्त बुद्धिसे,
मनको परमात्मामे स्थिर करके और
किसी भी विचारको मनमे न आने दे।

बड़ा धैर्य चाहिये।

घबड़ाने, ऊबने या निराश होनेसे काम नहीं होगा।

झाडू से घर साफ कर लेने पर भी,
जैसे धूल जमी हुई सी दीख पड़ती है।

पर इससे डरकर कोई झाडू लगाना बन्द नहीं करता।

उसी प्रकार मनको सस्कारोंसे रहित करते समय,
यदि मन और भी अस्थिर दीखे,
तो इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है।

किन्तु मन को नियंत्रण में करने का प्रयत्न करते रहना चाहिए।

इस प्रकारकी दृढ प्रतिज्ञा कर लेनी चाहिये कि,
किसी प्रकारका भी वृथा चिन्तन
या मिथ्या संकल्पकों मनमें नहीं आने दिया जायगा।

बड़ी चेष्टा, बड़ी दृढता रखनेपर भी,
मन साधककी चेष्टाओंको कई बार व्यर्थ कर देता है।

साधक तो समझता है कि मैं ध्यान कर रहा हूँ,
पर मनदेवता, सङ्कल्प-विकल्पोंकी पूजामें लग जाते है।

जब साधक मनकी ओर देखता है,
तो उसे आश्चर्य होता है कि यह क्या हुआ।

इतने नये-नये सङ्कल्प, जिनकी भावना भी नहीं की गयी थी, कहाँसे आ गये?

बात यह होती है कि,
साधक जब मनको निर्विषय करना चाहता है,
तब संसारके नित्य अभ्यस्त विषयोसे,
मनको फुरसत मिल जाती है।

उधर परमात्मामें लगनेका इस समय तक उसे पूरा अभ्यास नहीं होता।

इसलिये फुरसत पाते ही,
वह उन पुराने दृश्यों को,
जो संस्कार रूपसे उसपर अंकित हो रहे हैं,
सिनेमाके फिल्मकी भॉति,
क्षण-क्षणमें एकके बाद एक उलटने लग जाता है।

इसीसे उस समय ऐसे सङ्कल्प मनमे उठते हुए मालूम होते है,
जो संसारका काम करते समय याद भी नहीं आते थे।

मनकी ऐसी प्रबलता देखकर,
साधक स्तम्भित-सा रह जाता है,
पर कोई चिन्ता नहीं।

जब अभ्यासका बल बढेगा,
तब उसको संसारसे फुरसत मिलते ही
तुरन्त परमात्मामे लग जायगा।

अभ्यास दृढ़ होनेपर तो यह
परमात्माके ध्यानसे हटाये जानेपर भी न हटेगा।

मन चाहता है सुख।

जबतक इसे वहाँ सुख नहीं मिलता,
विषयोंमे सुख दीखता है, तबतक यह विषयोंमे रमता है।

जब अभ्याससे विषयोमें दुःख और
परमात्मामें परम सुख प्रतीत होने लगेगा,
तब यह स्वयं ही विषयोंको छोड़कर
परमात्माकी ओर दौड़ेगा।

परन्तु जबतक ऐसा न हो,
तबतक निरन्तर अभ्यास करते रहना चाहिये।

यह मालूम होते ही कि मन अन्यत्र भागा है,
तत्काल इसे पकड़ना चाहिए।

इसको पक्के चोरकी भॉति, भागनेका बड़ा अभ्यास है,
इसलिये ज्यों ही यह भागे, त्यों ही इसे पकडना चाहिये।

जिस-जिस कारणसे मन मांसारिक पदार्थोंमें विचरे,
उस-उससे रोककर परमात्मामें स्थिर करे।

मनपर ऐसा पहरा बैठा दे कि, यह भाग ही न सके।

यदि किसी प्रकार भी न माने,
तो फिर इसे भागनेकी पूरी स्वतन्त्रता दे दी जाय;
परन्तु यह जहाँ जाय, वहींपर परमात्माकी भावना की जाय,
यहींपर इसे परमात्माके स्वरूपमे लगाया जाय ।

इस उपायसे भी मन स्थिर हो सकता है।


7. एक तत्त्वका अभ्यास करना

योगदर्शन महर्षि पतञ्जलि लिखते है –

तत्प्रतिषेधार्थमेकतत्त्वाभ्यासः। (समाधिपाद ३२)

चित्तका विक्षेप दूर करनेके लिये,
पाँच तत्त्वोंमेसे किसी एक तत्त्वका, अभ्यास करना चाहिये।

एक तत्त्वके अभ्यासका अर्थ ऐसा भी हो सकता है कि,
किसी एक वस्तुकी या किसी मूर्तिविशेषकी तरफ एकदृष्टि से देखते रहना।

जबतक आखोंकी पलक न पड़े,
तबतक उस एक ही चिह्नकी तरफ देखते रहना चाहिये।

चिह्न धीरे-धीरे छोटा करते रहना चाहिये।

अन्तमे उस चिह्नको बिल्कुल ही हटा देना चाहिये।

दृष्टिः स्थिरा यत्र विनावलोकनम् –

अवलोकन न करनेपर भी दृष्टि स्थिर रहे।

ऐसा हो जाने पर चित्तविक्षेप नहीं रहता।

इस प्रकार प्रतिदिन, आध-आध घण्टे भी अभ्यास किया जाय,
तो मनके स्थिर होनेमे, अच्छी सफलता मिल सकती है।

इसी प्रकार दोनों भ्रुवोंके बीचमें दृष्टि जमाकर,
देखते रहनेका भी अभ्यास किया जाता है।
इससे भी मन निश्चल होता है, इसीको त्राटक कहते है।

कहने की आवश्यकता नहीं कि,
इस प्रकारके अभ्यासमे नियमितरूपसे जो जितना अधिक समय दे सकेगा,
उसे उतना ही अधिक लाभ होगा।


8. नाभि या नासिकाग्रमें दृष्टि स्थापन करना

नित्य नियमपूर्वक पद्मासन या सुखासनसे बैठकर,
सीधा बैठकर, नाभिमे दृष्टि जमाकर,
जबतक पलक न पड़े, तबतक एक-मनसे देखते रहना चाहिये।

ऐसा करनेसे, शीघ्र ही मन स्थिर होता है।

इसी प्रकार, नासिकाके अग्रभागपर,
दृष्टि जमाकर बैठनेसे भी, चित्त निश्चल हो जाता है।

इससे ज्योतिके दर्शन भी होते है।


9. शब्द श्रवण करना

कानोमे अँगुली देकर, शब्द सुननेका अभ्यास किया जाता है।

इसमे पहले भँवरोंके गुंजार
अथवा प्रातःकालीन पक्षियोंके चह-चहाने जैसा शब्द सुनायी देता है।

फिर क्रमशः घुघुरू, शङ्ख, घण्टा, ताल, मुरली, भेरी, मृदङ्ग, नफीरी और सिंहगर्जनके सदृश, शब्द सुनायी देते हैं।

इस प्रकार, दस प्रकारके शब्द सुनायी देने लगनेके बाद,
दिव्य ॐ शब्द का श्रवण होता है,
जिससे साधक समाधिको प्राप्त हो जाता है।

यह भी मनके निश्चल करनेका उत्तम साधन है।


10. ध्यान या मानसपूजा

सब जगह, भगवानके किसी नामको लिखा हुआ समझकर,
वारंवार उस नामके ध्यानमे, मन लगाना चाहिये अथवा
भगवानके किसी स्वरूपविशेषकी, अन्तरिक्ष में मनसे कल्पना कर,
उसकी पूजा करनी चाहिये।

पहले भगवान की मूर्तिके एक-एक अवयवका, अलग-अलग ध्यान कर,
फिर दृढताके साथ, सारी मूर्तिका ध्यान करना चाहिये।

(जैसे शिव पंचाक्षर मंत्र में शिव के गुणों का और उनके स्वरुप का वर्णन किया है)

उसीमे मनको अच्छी तरह स्थिर कर देना चाहिये।

मूर्तिके ध्यानमे इतना तन्मय हो जाना चाहिये कि, संसारका भान ही न रहे।

फिर कल्पना-प्रसूत सामग्रियोंसे, भगवान की मानसिक पूजा करनी चाहिये।

(जैसे शिव मानस पूजा मंत्र में भगवान् शिव की पूजा मनद्वारा, मन में ही, की जाती है)

प्रेमपूर्वक की हुई नियमित भगवद उपासनासे,
मनको निश्चल करनेमें बड़ी सहायता मिल सकती है।


11. मैत्री-करुणा-मुदिता-उपेक्षाका व्यवहार

योगदर्शनमें महर्षि पतञ्जलि एक उपाय यह भी बतलाते हैं –

मैत्रीकरुणामुदितोपेक्षाणां
सुखदुःखपुण्यापुण्यविषयाणां
भावनातश्चित्तप्रसादनम्।
(समाधिपाद ३३ )

अर्थात, सुखी मनुष्योसे प्रेम, दुखियोंके प्रति दया, पुण्यात्माओंके प्रति प्रसन्नता ओर पापियोके प्रति उदासीनताकी भावनासे, चित्त प्रसन्न होता है।


जगत् के सारे सुखी जीवोंके साथ, प्रेम करनेसे चित्तका ईर्ष्यामल दूर होता है, द्वेषकी आग बुझ जाती है।

संसारमे लोग, अपनेको और अपने आत्मीय स्वजनोंको, सुखी देखकर प्रसन्न होते हैं, क्योंकि वे उन लोगोंको, अपने प्राणों के समान प्रिय समझते हैं।

यदि यही प्रिय भाव, सारे ससारके सुखियोंके प्रति अर्पित कर दिया जाय, तो कितने आनन्दका कारण हो !

दूसरेको सुखी देखकर, जलन पैदा करनेवाली वृत्तिका, नाश हो जाय।


दुखी प्राणियोंके प्रति, दया करनेसे, परअपकाररूप चित्त-मल नष्ट होता है।

मनुष्य अपने कष्टोंको दूर करनेके लिये, किसीसे भी पूछनेकी आवश्यकता नहीं समझता,

भविष्यमे कष्ट होनेकी सम्भावना होते ही, पहलेसे उसे निवारण करनेकी चेष्टा करने लगता है।

यदि ऐसा ही भाव, जगत्के सारे दुखी जीवोंके साथ हो जाय तो, अनेक लोगोंके दुःख दूर हो सकते हैं।

दुःखपीड़ित लोगोंके दुःख दूर करनेके लिये, अपना सर्वस्व न्योछावर कर देनेकी प्रबल भावनासे, मन सदा ही प्रफुल्लित रह सकता है।


धार्मिकोंको देखकर हर्षित होनेसे, दोषारोप नामक मनका विकार नष्ट होता है,

साथ ही धार्मिक पुरुषकी भॉति, चित्तमें धार्मिक वृत्ति जागृत हो उठती है।

विकारों के दूर होते ही, चित्त शान्त होता है।


पापियोके प्रति उपेक्षा करनेसे, चित्तका क्रोधरूप मल नष्ट होता है।

पापोंका चिन्तन न होनेसे, उनके सस्कार अन्तःकरणपर नहीं पड़ते।

किसीसे भी घृणा नहीं होती।

इससे चित्त शांत रहता है।

इस प्रकार इन चारो भावोंके, बारबार अनुशीलनसे, चित्तकी राजस, तामस वृत्तियाँ नष्ट होकर,

सात्त्विक वृत्तिका उदय होता है और उससे चित्त प्रसन्न होकर, शीघ्र ही एकाग्रता लाभ कर सकता है।


12. सदग्रंथो का अध्ययन

भगवान के परम रहस्यसम्बन्धी, परमार्थ-ग्रन्थोंके पठन पाठन से भी, चित्त स्थिर होता है।

एकान्तमें बैठकर, श्रीमद्भगवद्गीता, उपनिषद्, श्रीमद्भागवत, रामायण आदि प्रन्थोंका अर्थ सहित पाठ करनेसे, वृत्तियाँ तदाकार बन जाती हैं।

इससे मन स्थिर हो जाता है।


13. प्राणायाम

प्राणायाम से योग के सम्बन्धमें महत्वपूर्ण बात – इस मार्ग में सद्गुरुकी सलाह के बिना कोई कार्य नहीं करना चाहिये। योगाभ्यासमें देखादेखी करनेमे, उलटा फल हो सकता है।

समाधि से भी मन रुकता है।

समाधि अनेक तरहकी होती है।

प्राणायाम समाधिके साधनोका, एक मुख्य अङ्ग है।

योगदर्शनमे कहा गया है –

प्रच्छईनविधारणाभ्यां वा प्राणस्य। ( समाधिपाद ३४)

नासिकाके छेदोंसे अन्तरकी वायुको बाहर निकालना, प्रच्छर्दन कहलाता है, और प्राणवायुकी गति रोक देनेको विधारण कहते हैं।

इन दोनों उपायोसे भी चित्त स्थिर होता है।

श्रीमद्भगवद्गीतामे भगवान् ने भी कहा है –

अपाने जुद्वति प्राणं प्राणेऽपानं तथापरे।
प्राणापानगती रुद्ध्वा प्राणायामपरायणा॥

कई अपानवायुमें प्राणवायुको हवन करते हैं, कई प्राणवायुमें अपानवायुका हवन करते हैं और कई प्राण, और अपानकी गतिको रोककर, प्राणायाम किया करते हैं।

इसी तरह योगसम्बन्धी ग्रन्थोंके अतिरिक्त, महाभारत, श्रीमद्भागवत और उपनिषदोंमे भी, प्राणायामका यथेष्ट वर्णन है।

श्वास-प्रश्वासकी गतिको रोकनेका नाम ही, प्राणायाम है।

मनु महाराजने कहा है –

दद्यन्ते ध्मायमानानां धातूनां हि यथा मलाः।
तयेन्द्रियाणां दद्यन्ते दोपाः प्राणस्य निग्रहात्।

अग्निमें तपाये जानेपर, जैसे धातुका मल जल जाता है, उसी प्रकार प्राणवायुके निग्रहसे, इन्द्रियोंके सारे दोष नष्ट हो जाते है।

प्राणोंको रोकनेसे ही मन रुकता है।

इनका एक दूसरेके साथ घनिष्ट सम्बन्ध है।

मन सवार है, तो प्राण वाहन है।

एकको रोकनेसे, दोनों रुक जाते है।

प्राणायामके सम्बन्धमे, योगशान्त्रमे, अनेक उपदेश मिलते हैं, परन्तु वे बड़े ही कठिन हैं।

योगसाधनमे अनेक नियमोंका, पालन करना पड़ता है।

योगाभ्यासके लिये बड़े ही कठोर, आत्मसंयमकी आवश्यकता है।

आजकलके समयमें तो, कई कारणोंसे योगका साधन, एक प्रकारसे असाध्य ही समझना चाहिये।

यहा पर प्राणायामके सम्बन्धमें, केवल इतना ही कहा जाता है कि,

बाई नासिकासे बाहरकी वायुको, अन्तरमें ले जाकर स्थिर रखनेको, पूरक कहते हैं,

दाहिनी नासिकासे अन्तरकी वायुको, बाहर निकालकर बाहर स्थिर रखनेको, रेचक कहते है और

जिसमें अन्तरकी वायु, बाहर न जा सके और बाहरकी वायु अन्तरमें प्रवेश न कर मके, इस भावसे प्राणवायु रोक रखनेको कुंभक कहते हैं।

इसीका नाम प्राणायाम है।

सााधारणतः, चार बार मन्त्र जपकर पूरक, सोलह बाारके जपसे कुम्मक और आठ बारके जपसे रेचककी विधि है।

परन्तु इस सम्बन्धमें उपयुक्त, सद्गुरुकी आज्ञा बिना, कोई कार्य नहीं करना चाहिये।

योगाभ्यासमें देखादेखी करनेमे, उलटा फल हो सकता है।

देखा देसी साधै जोग।
छीजै काया बाढ़ै रोग।

पर यह स्मरण रहे कि, प्राणायाम, मनको रोकनेका, एक बहुत ही उत्तम साधन है।


14. श्वासके द्वारा नाम-जप

मनको रोककर परमात्मामें लगानेका, एक अत्यन्त सुलभ और आशंका रहित उपाय और है, जिसका अनुष्ठान सभी कर सकते है।

वह है, आने-जानेवाले श्वास – प्रश्वास की गतिपर, ध्यान रखकर, श्वासके द्वारा, श्रीभगवान के नामका जप करना।

यह अभ्यास बैठते-उठते, चलते-फिरते, सोते-खाते हर समय, प्रत्येक अवस्थामे किया जा सकता है।

इसमे श्वास, जोर-जोर से लेनेकी भी, कोई आवश्यकता नहीं।

श्वासकी साधारण चालके साथ-ही-साथ, नामका जप किया जा सकता है।

इसमे लक्ष्य रखनेसे ही, मन रुककर नामका जप हो सकता है।

श्वासके द्वारा नामका जप करते समय, चित्तमें इतनी प्रसन्नता होनी चाहिये कि, मानो मन आनन्दसे उछला पड़ता हो।

आनन्द रससे भरा हुआ, अन्तःकरणरूपी पात्र मानो, छलका पडता हो।

यदि इतने आनन्दका अनुभव न हो तो, आनन्दकी भावना ही करनी चाहिये।

इसीके साथ भगवान को, अपने अत्यन्त समीप जानकर, उनके स्वरूपका ध्यान करना चाहिये, मानो उनके समीप होनेका प्रत्यक्ष अनुभव हो रहा है।

इस भावसे संसारकी सुध भुलाकर, मनको परमात्मामे लगाना चाहिये।


15. ईश्वर-शरणागति

ईश्वर-प्रणिधानसे भी मन वशमें होता है,

अनन्य भक्तिसे परमात्माके शरण होना, ईश्वर-प्रणिधान कहलाता है।

ईश्वर शब्दसे यहाँ पर, परमात्मा और उनके भक्त, दोनों ही समझे जा सकते हैं।

‘ब्रह्मविद् ब्रह्मैव भवति’, ‘तस्मिस्तजने भेदाभावात्’, ‘तन्मयाः’ –

इन श्रुति और भक्तिशास्त्रके सिद्धान्त-वचनोंसे, भगवान्, ज्ञानी और भक्तोंकी एकता सिद्ध होती है।

श्रीभगवान् और उनके भक्तोंके प्रभाव और चरित्रके चिन्तनमात्रसे, चित्त आनन्दसे भर जाता है।

संसारका बन्धन मानो, अपने-आप टूटने लगता है।

अतएव भक्तोंका सङ्ग करने, उनके उपदेशोंके अनुसार चलने और भक्तोंकी कृपाको ही,

भगवत्प्राप्तिका प्रधान उपाय समझनेसे भी, मनपर विजय प्राप्त की जा सकती है।

भगवान् और सच्चे भक्तोंकी कृपासे, सब कुछ हो सकता है।


16. मनके कार्योंको देखना

मनको वशमें करनेका, एक बड़ा उत्तम साधन है,

मनसे अलग होकर, निरन्तर, मनके कार्योको, देखते रहना।

जबतक हम, मनके साथ मिले हुए है, तभीतक, मनमें इतनी चञ्चलता है।

जिस समय हम, मनके द्रष्टा बन जाते हैं, उसी समय, मनकी चञ्चलता मिट जाती है।

वास्तवमें तो मनसे, हम सर्वथा भिन्न ही है।

किस समय मनमे क्या सकल्प होता है, इसका पूरा पता हमें रहता है।

मुंबईमे बैठे हुए एक मनुष्यके मनमे, दिल्ली किसी दृश्यका सङ्कल्प होता है, इस बाातको यह अच्छी तरह जानता है।

यह निर्विवाद बात है कि, जानने या देखनेवाला, जाननेकी वा देखनेकी वस्तुसे, सदा अलग होता है।

ऑखको आँख नहीं देख सकती।

इस न्यायसे मनकी बातोंको, जो जानता या देखता है, वह मनसे सर्वथा भिन्न है, भिन्न होते हुए भी, वह अपनेको मनके साथ मिला लेता है,

इसीसे उसका जोर पाकर मनकी उद्दण्डता बढ़ जाती है।

यदि साधक अपनेको निरन्तर अलग रखकर, मनकी क्रियाओंका, द्रष्टा बनकर देखनेका अभ्यास करे,

तो मन बहुत ही शीघ्र, सङ्कल्परहित हो सकता है।


17. भगवन्नामकीर्तन

मग्न होकर उच्च स्वरसे, परमात्माका नाम और गुणकीर्तन, करनेसे भी मन परमात्मामें, स्थिर हो सकता है।

भगयान् चैतन्यदेवने तो मनको निरुद्धकर, परमात्मामे लगानेका, यही परम साधन बतलाया है।

भक्त जब अपने प्रभुका, नाम-कीर्तन करते-करते, गद्गदकण्ठ, रोमाञ्चित और अश्रुपूर्णलोचन होकर, प्रेमावेशमें अपने आपको सर्वथा भुलाकर, केवल परमात्माके रूपमें, तन्मयता प्राप्त कर लेता है,

तब भला, मनको जीतने में, और कौन-सी बात बच रहती है ?

अतएव, प्रेमपूर्वक परमात्माका नामकीर्तन करना, मनपर विजय पानेका एक अत्युत्तम साधन है।

इस प्रकारसे मनको रोककर, परमात्मामें लगानेके अनेक साधन और युक्तियाँ हैं।

इनमेंसे या अन्य किसी भी युक्तिसे, किसी प्रकारसे भी, मनको विषयोंसे हटाकर, परमात्मामे लगानेकी चेष्टा करनी चाहिये।

मनके स्थिर किये बिना, अन्य कोई भी अवलम्बन नहीं।

जैसे चञ्चल जलमें, रूप विकृत दीख पड़ता है, उसी प्रकार चञ्चल चित्तमें, आत्माका यथार्थ स्वरूप, प्रतिबिम्बित नहीं होता।

परन्तु जैसे स्थिर जलमें, प्रतिबिम्ब जैसा होता है, वैसा ही दीखता है, इसी प्रकार केवल स्थिर मनसे ही, आत्माका यथार्थ स्वरूप, स्पष्ट प्रत्यक्ष होता है।

अतएव प्राणपणसे, मनको स्थिर करनेका, प्रयत्न करना चाहिये।

अबतक जो इस मनको स्थिर कर सके है, वे ही उस श्यामसुन्दरके, नित्यप्रसन्न नवीन-नील-नीरद, प्रफुल्ल मुखारविन्दका दर्शन कर, अपना जन्म और जीवन सफल कर सके है।

जिसने एक बार भी, उस ‘अनूपरूपशिरोमणि’ के दर्शनका सयोग प्राप्त कर लिया, वही धन्य हो गया।

उसके लिये उस सुखके सामने, और सारे सुख फीके पड़ गये।

उस लाभके सामने, और सारे लाभ नीचे हो गये!

यं लब्ध्वा चापरं लामं मन्यते नाधिकं ततः।

जिस लाभको पा लेनेपर, उससे अधिक और कोई-सा लाभ भी नहीं जंचता।

यही योगसाधनका चरम फल है, अथवा यही परम योग है।