सुन्दरकाण्ड अर्थ सहित – 05



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विभीषण की भगवान् रामसे प्रार्थना

चौपाई

सुनु लंकेस सकल गुन तोरें।
तातें तुम्ह अतिसय प्रिय मोरें॥
राम बचन सुनि बानर जूथा।
सकल कहहिं जय कृपा बरूथा॥

हे लंकेश (लंकापति)! सुनो, आपमें सब गुण है और
इसीसे आप मुझको अत्यंत ही प्रिय हो॥

रामचन्द्रजीके ये वचन सुनकर तमाम वानरोंके झुंड कहने लगे कि
हे कृपाके पुंज! आपकी जय हो,
कृपा के समूह, श्री राम जी की जय हो ॥

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सुनत बिभीषनु प्रभु कै बानी।
नहिं अघात श्रवनामृत जानी॥
पद अंबुज गहि बारहिं बारा।
हृदयँ समात न प्रेमु अपारा॥

ओर विभीषणभी प्रभुकी बाणीको सुनता हुआ
उसको कर्णामृतरूप जानकर तृप्त नहीं होता था॥

और वारंवार रामचन्द्वजीके चरणकमल धरकर
ऐसा आल्हादित हुआ कि वह अपार प्रेम हृदयके अंदर नहीं समाया॥

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सुनहु देव सचराचर स्वामी।
प्रनतपाल उर अंतरजामी॥
उर कछु प्रथम बासना रही।
प्रभु पद प्रीति सरित सो बही॥

विभीषणजी ने कहा –
हे देव!
चराचरसहित संसारके स्वामी (चराचर जगतके स्वामी)!
हे शरणागतोंके पालक (शरणागत के रक्षक)!
हे हृदयके अंतर्यामी (सबके हृदय के भीतर की जानने वाले)!
सुनिए॥

पहले मेरे जो कुछ वासना थी
वह भी आपके चरणकमलकी प्रीतिरूप नदीसे बह गई॥

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अब कृपाल निज भगति पावनी।
देहु सदा सिव मन भावनी॥
एवमस्तु कहि प्रभु रनधीरा।
मागा तुरत सिंधु कर नीरा॥

हे कृपालू! अब आप दया करके
मुझको आपकी वह पावन करनहारी भक्ति दीजिए
कि जिसको महादेवजी सदा धारण करते हैं॥

रणधीर रामचन्द्रजीने एवमस्तु ऐसे कहकर
तुरत समुद्रका जल मँगवाया॥

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जदपि सखा तव इच्छा नहीं।
मोर दरसु अमोघ जग माहीं॥
अस कहि राम तिलक तेहि सारा।
सुमन बृष्टि नभ भई अपारा॥

और कहा कि हे सखा!
यद्यपि तेरे किसी बातकी इच्छा नहीं है
पर जगत् मे मेरा दर्शन अमोघ है, वह निष्फल नही जाता॥

ऐसे कहकर प्रभुने बिभीषणके राजतिलक कर दिया.
उस समय आकाशमेंसे अपार पुष्पोंकी वर्षा हुई॥

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दोहा – 49 A – B

रावन क्रोध अनल निज स्वास समीर प्रचंड।
जरत बिभीषनु राखेउ दीन्हेउ राजु अखंड ॥49(क)॥
जो संपति सिव रावनहि दीन्हि दिएँ दस माथ।
सोइ संपदा बिभीषनहि सकुचि दीन्हि रघुनाथ ॥49(ख)॥

रावणका क्रोध तो अग्निके समान है और
उसका श्वास प्रचंड पवनके तुल्य है।
उससे जलते हुए विभीषणको बचाकर
प्रभुने उसको अखंड राज्य दिया ॥49(क)॥

महादेवने दश माथे देनेपर रावणको जो संपदा दी थी
(शिवजी ने जो संपत्ति रावण को दसो सिरो की बलि देने पर दी थी)
वह संपदा कम समझकर
रामचन्द्रजीने बिभीषणको सकुचते हुए दी ॥49(ख)॥


श्री राम, जय राम, जय जय राम

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समुद्र पार करने के लिए विचार

चौपाई

अस प्रभु छाड़ि भजहिं जे आना।
ते नर पसु बिनु पूँछ बिषाना॥
निज जन जानि ताहि अपनावा।
प्रभु सुभाव कपि कुल मन भावा॥

ऐसे परम कृपालु प्रभुको छोड़कर
जो आदमी दूसरेको भजते हैं,
वे मनुष्य बिना सींग पूंछके पशु हैं॥

प्रभुने बिभीषणको अपना भक्त जानकर जो अपनाया,
यह प्रभुका स्वभाव सब वानरोंको अच्छा लगा॥

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पुनि सर्बग्य सर्ब उर बासी।
सर्बरूप सब रहित उदासी॥
बोले बचन नीति प्रतिपालक।
कारन मनुज दनुज कुल घालक॥

प्रभु तो सदा सर्वत्र,
सबके घटमें रहनेवाले (सबके हृदय में बसनेवाले),
सर्वरूप (सब रूपों में प्रकट),
सबसे रहित और सदा उदासीन ही हैं॥

राक्षसकुलके संहार करनेवाले, नीतिको पालनेवाले,
मायासे मनुष्यमूर्ति (कारण से भक्तों पर कृपा करने के लिए मनुष्य बने हुए),
श्रीरामचन्द्रजीने सब मंत्रियोंसे कहा॥

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सुनु कपीस लंकापति बीरा।
केहि बिधि तरिअ जलधि गंभीरा॥
संकुल मकर उरग झष जाती।
अति अगाध दुस्तर सब भाँति॥

कि हे लंकेश (लंकापति विभीषण)! हे वानरराज! हे वीर पुरुषो सुनो,
अब इस गंभीर समुद्रको पार कैसे उतरें? वह युक्ति निकालो॥

क्योंकि यह समुद्र सर्प, मगर और
अनेक जातिकी मछलियोंसे व्याप्त हो रहा है,
बड़ा अथाह है,
इसीसे सब प्रकारसे मुझको तो कठिन मालूम होता है॥

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कह लंकेस सुनहु रघुनायक।
कोटि सिंधु सोषक तव सायक॥
जद्यपि तदपि नीति असि गाई।
बिनय करिअ सागर सन जाई॥

उस वक्त लंकेश अर्थात् विभीषणने कहा कि हे रघुनाथ! सुनो,
आपके बाण ऐसे हैं कि जिनसे करोडो समुद्र सूख जाए,
तब इस समुद्रका क्या भार है॥

तथापि नीति ऐसी कही गई है (उचित यह होगा) कि
पहले साम वचनोंसे काम लेना चाहिये,
इस वास्ते समुद्रके पास पधार कर आप विनती करो॥

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दोहा – 50

प्रभु तुम्हार कुलगुर जलधि कहिहि उपाय बिचारि॥
बिनु प्रयास सागर तरिहि सकल भालु कपि धारि ॥50॥

बिभीषण कहता है कि हे प्रभु!
यह समुद्र आपका कुलगुरु है।
सो विचार कर अवश्य उपाय कहेगा और
तब रीछ और वानरो की सारी सेना
बिना परिश्रम के समुन्द्र के पार उतर जाएगी॥50॥


श्री राम, जय राम, जय जय राम

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समुद्र पार करने के लिए विचार

चौपाई

सखा कही तुम्ह नीति उपाई।
करिअ दैव जौं होइ सहाई॥
मंत्र न यह लछिमन मन भावा।
राम बचन सुनि अति दुख पावा॥

बिभीषणकी यह बात सुनकर रामचन्द्रजीने कहा कि हे सखा!
तुमने यह उपाय तो बहुत अच्छा बतलाया और
हम इस उपायको करेंगे भी,
परंतु यदि दैव सहाय होगा तो सफल होगा॥

यह सलाह लक्ष्मणके मनमें अच्छी नही लगी,
अतएव रामचन्द्रजीके वचन सुनकर लक्ष्मणने बड़ा दुख पाया॥

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नाथ दैव कर कवन भरोसा।
सोषिअ सिंधु करिअ मन रोसा॥
कादर मन कहुँ एक अधारा।
दैव दैव आलसी पुकारा॥

और लक्ष्मणने कहा कि हे नाथ!
दैवका क्या भरोसा है?
आप तो मनमें क्रोध लाकर समुद्रको सुखा दीजिये॥

दैवपर भरोसा रखना यह तो कायर पुरुषोंके मनका एक आधार है;
क्योंकि वेही आलसी लोग दैव करेगा सो होगा
ऐसा विचार कर दैव दैव करके पुकारते रहते हैं॥

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सुनत बिहसि बोले रघुबीरा।
ऐसेहिं करब धरहु मन धीरा॥
अस कहि प्रभु अनुजहि समुझाई।
सिंधु समीप गए रघुराई॥

लक्ष्मणके ये वचन सुनकर प्रभुने हँसकर कहा कि
हे भाई! मैं ऐसे ही करूंगा पर तू मनमे कुछ धीरज धर॥

प्रभु लक्ष्मणको ऐसे कह समझाय बुझाय समुद्रके समीप गए॥

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प्रथम प्रनाम कीन्ह सिरु नाई।
बैठे पुनि तट दर्भ डसाई॥
जबहिं बिभीषन प्रभु पहिं आए।
पाछें रावन दूत पठाए॥

और प्रथमही प्रभुने जाकर समुद्रको प्रणाम किया और
फिर कुश बिछा कर उसके तटपर विराजे॥

जब बिभीषण रामचन्द्रजीके पास चला आया
तब पीछेसे रावणने अपना दूत भेजा॥

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दोहा – 51

सकल चरित तिन्ह देखे धरें कपट कपि देह।
प्रभु गुन हृदयँ सराहहिं सरनागत पर नेह ॥51॥

उस दूतने कपटसे वानरका रूप धरकर
वहांका तमाम हाल देखा.
और प्रभुका शरणागतोंपर अतिशय स्नेह देखकर
उसने अपने मनमें प्रभुके गुणोंकी बड़ी सराहना की ॥51॥


श्री राम, जय राम, जय जय राम

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रावणदूत शुक का आना

चौपाई

प्रगट बखानहिं राम सुभाऊ।
अति सप्रेम गा बिसरि दुराऊ॥
रिपु के दूत कपिन्ह तब जाने।
सकल बाँधि कपीस पहिं आने॥

और देखते देखते प्रेम ऐसा बढ़ गया कि
वह (रावणदूत शुक) छिपाना भूल कर
रामचन्द्रजीके स्वभावकी प्रकटमें प्रशंसा करने लगा॥

जब वानरोने जाना कि यह शत्रुका दूत है
तब उसे बांधकर सुग्रीवके पास लाये॥

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कह सुग्रीव सुनहु सब बानर।
अंग भंग करि पठवहु निसिचर॥
सुनि सुग्रीव बचन कपि धाए।
बाँधि कटक चहु पास फिराए॥

सुग्रीवने देखकर कहा कि हे वानरो, सुनो,
इस राक्षस दुष्टको अंग-भंग करके भेज दो॥

सुग्रीवके ये वचन सुनकर सब वानर दौड़े,
फिर उसको बांध कर कटक (सेना) में चारों ओर घुमाया॥

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बहु प्रकार मारन कपि लागे।
दीन पुकारत तदपि न त्यागे॥
जो हमार हर नासा काना।
तेहि कोसलाधीस कै आना॥

वानर उसको अनेक प्रकारसे मारने लगे और
वह अनेक प्रकारसे दीनकी भांति पुकारने लगा,
फिर भी वानरोंने उसको नहीं छोड़ा॥

तब उसने पुकार कर कहा कि
जो हमारी नाक कान काटते है
उनको श्रीरामचन्द्रजीकी शपथ है॥

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सुनि लछिमन सब निकट बोलाए।
दया लागि हँसि तुरत छोड़ाए॥
रावन कर दीजहु यह पाती।
लछिमन बचन बाचु कुलघाती॥

सेनामें खरभर सुनकर लक्ष्मणने उसको अपने पास बुलाया और
दया आ जानेसे हँसकर लक्ष्मणने उसको छुड़ा दिया॥

एक पत्री लिख कर लक्ष्मणने उसको दी
और कहा कि यह पत्री रावणको देना और
उस कुलघातीकों कहना कि
ये लक्ष्मणके हित वचन (संदेसे को) पढ़ो॥

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दोहा – 52

कहेहु मुखागर मूढ़ सन मम संदेसु उदार।
सीता देइ मिलहु न त आवा कालु तुम्हार ॥52॥

और उस मूर्खसे मेरा बड़ा अपार सन्देशा
(उदार, कृपा से भरा हुआ) संदेश)
मुहँ सें भी कह देना कि
या तो तू सीताजीको देदे और
हमारे शरण आजा,
नही तो तेरा काल आया समझ ॥52॥


श्री राम, जय राम, जय जय राम

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लक्ष्मणजी के पत्र को लेकर रावणदूत का लौटना

चौपाई

तुरत नाइ लछिमन पद माथा।
चले दूत बरनत गुन गाथा॥
कहत राम जसु लंकाँ आए।
रावन चरन सीस तिन्ह नाए॥

लक्ष्मणके ये वचन सुन दूत तुरंत लक्ष्मणके चरणोंमें शिर झुका कर
रामचन्द्रजीके गुणोंकी प्रशंसा करता हुआ वह वहांसे चला॥

रामचन्द्रजीके यशकों गाता हुआ लंकामें आया.
रावणके पास जाकर उसने रावणके चरणोंमें प्रणाम किया॥

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बिहसि दसानन पूँछी बाता।
कहसि न सुक आपनि कुसलाता॥
पुन कहु खबरि बिभीषन केरी।
जाहि मृत्यु आई अति नेरी॥

उस समय रावणने हँसकर उससे पूंछा कि
हे शुक! अपनी कुशलताकी बात कहो॥

और फिर विभीषणकी कुशल कहो
कि जिसकी मृत्यु बहुत निकट आ गयी है॥

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करत राज लंका सठ त्यागी।
होइहि जव कर कीट अभागी॥
पुनि कहु भालु कीस कटकाई।
कठिन काल प्रेरित चलि आई॥

उस शठने लंकाको राज करते करते छोड़ दिया
सो अब उस अभागेकी जौके घुनके (कीड़ा) समान दशा होगी,
अर्थात् जैसे जव पीसनेके साथ उसमेंका घुनभी पीस जाता है,
वैसे ही नर वानरो के साथ वह भी मारा जाएगा॥

फिर कहो कि रीछ और वानरोंकी सेना का हाल कह,
वह सेना कैसी और कितनी है,
कि जो कठिन कालकी प्रेरणासे यहाँ चली आई है॥

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जिन्ह के जीवन कर रखवारा।
भयउ मृदुल चित सिंधु बिचारा॥
कहु तपसिन्ह कै बात बहोरी।
जिन्ह के हृदयँ त्रास अति मोरी॥

हे शुक! अभी उनके जीवकी रक्षा करनेवाला
बिचारा कोमलहृदय समुद्र हुआ है।
(अर्थात उनके और राक्षसों के बीच में यदि समुद्र न होता
तो अब तक राक्षस उन्हें मारकर खा गए होते)।

और फिर उन तपस्वियोकी बात कहो,
जिनके ह्रदयमें मेरी बड़ी त्रास बैठ रही है (मेरा बड़ा डर है)॥

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दोहा – 53

की भइ भेंट कि फिरि गए श्रवन सुजसु सुनि मोर।
कहसि न रिपु दल तेज बल बहुत चकित चित तोर ॥53॥

हे शुक! क्या तेरी उनसे भेंट हुई?
क्या वे कानोंसे मेरी सुख्याति (सुयश) सुनकर पीछे लौट गए?

हे शुक! शत्रुके दलका तेज आर बल क्यों नहीं कहता?
तेरा चित्त चकित-सा (भौंचक्का-सा) कैसे हो रहा है? ॥53॥


श्री राम, जय राम, जय जय राम

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दूत का रावण को समझाना

चौपाई

नाथ कृपा करि पूँछेहु जैसें।
मानहु कहा क्रोध तजि तैसें॥
मिला जाइ जब अनुज तुम्हारा।
जातहिं राम तिलक तेहि सारा॥

रावणके ये वचन सुनकर शुकने कहा कि हे नाथ!
जैसे आप कृपा करके पूंछते हो
ऐसे ही क्रोधको त्यागकर जो वचन में कहूं उसको मानो॥
(क्रोध छोड़कर मेरा कहना मानिए, मेरी बात पर विश्र्वास कीजिए)।

हे नाथ! जिस समय आपका भाई रामसे जाकर मिला
उसी क्षण रामने उसके राजतिलक कर दिया है॥

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रावन दूत हमहि सुनि काना।
कपिन्ह बाँधि दीन्हें दुख नाना॥
श्रवन नासिका काटैं लागे।
राम सपथ दीन्हें हम त्यागे॥

मै वानरका रूप धरकर सेनाके भीतर घुसा,
सो फिरते फिरते वानरोंने जब मुझको आपका दूत जान लिया,
तब उन्होंने मुझको बांधकर अनेक प्रकारका दुःख दिया॥

और मेरी नाक कान काटने लगे,
तब मैंने उनको रामकी शपथ दी
तब उन्होंने मुझको छोड़ दिया॥

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पूँछिहु नाथ राम कटकाई।
बदन कोटि सत बरनि न जाई॥
नाना बरन भालु कपि धारी।
बिकटानन बिसाल भयकारी॥

हे नाथ! आप मुझको वानरोंकी सेनाके समाचार पूँछते हो
सो वे सौ करोड़ मुखोंसे तो कही नहीं जा सकती
(वर्णन नही की जा सकती)॥

हे रावण! रीछ और वानर अनेक रंग धारण किये
बड़े डरावने दीखते हैं, बड़े विकट उनके मुख हैं और
बड़े विशाल उनके शरीर हैं॥

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जेहिं पुर दहेउ हतेउ सुत तोरा।
सकल कपिन्ह महँ तेहि बलु थोरा॥
अमित नाम भट कठिन कराला।
अमित नाग बल बिपुल बिसाला॥

हे रावण! जिसने इस लंकाको जलाया था और
आपके पुत्र अक्षयकुमारको मारा था,
उस वानरका बल तो सब वानरों में थोड़ा है॥

उनके बीच कई नामी योद्धा है,
कि जो बड़े भयानक और बड़े कठोर हैं,
उनमे असंख्य हाथियो का बल है,
और जिनके विशाल व तेजस्वी शरीर हैं॥

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दोहा – 54

द्विबिद मयंद नील नल अंगद गद बिकटासि।
दधिमुख केहरि निसठ सठ जामवंत बलरासि ॥54॥

उनमें जो बड़े बड़े योद्धा हैं उनमेंसे कुछ नाम कहता हूँ सो सुनो –
द्विविद, मयन्द, नील, नल, अंगद, विकटास्य,
दधिमुख, केसरी, निशठ, शठ और
बलका पुंज जाम्बवान ॥54॥


श्री राम, जय राम, जय जय राम

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रावणदूत शुक का रावण को समझाना

चौपाई

ए कपि सब सुग्रीव समाना।
इन्ह सम कोटिन्ह गनइ को नाना॥
राम कृपाँ अतुलित बल तिन्हहीं।
तृन समान त्रैलोकहि गनहीं॥

ए कपि सब सुग्रीव समाना – ये सब वानर बल मे सुग्रीव के समान है और इनके जैसे (एक-दो नही) करोड़ो है,

इन्ह सम कोटिन्ह गनइ को नाना – उन बहुत सो को गिन ही कौन सकता है।

राम कृपाँ अतुलित बल तिन्हहीं – श्री राम जी की कृपा से उनमे अतुलनीय बल है।

तृन समान त्रेलोकहि गनहीं – वे तीनो लोको को तृण के समान तुच्छ समझते है॥1॥

भावार्थः- ये सब वानर सुग्रीवके समान बलवान हैं। इनके बराबर दूसरे करोड़ों वानर हैं, कौन गिन सकता है? ॥
रामचन्द्रजीकी कृपासे उनके बलकी कुछ तुलना नहीं है। वे उनके प्रभावसे त्रिलोकीको तृन (घास) के समान समझते हैं

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अस मैं सुना श्रवन दसकंधर।
पदुम अठारह जूथप बंदर॥
नाथ कटक महँ सो कपि नाहीं।
जो न तुम्हहि जीतै रन माहीं॥

अस मैं सुना श्रवन दसकंधर – हे दसग्रीव! मैने कानो से ऐसा सुना है कि

पदुम अठारह जूथप बंदर – अठारह पद्द तो अकेले वानरो के सेनापति है।

नाथ कटक महँ सो कपि नाहीं – हे नाथ! उस सेना मे ऐसा कोई वानर नही है,

जो न तुम्हहि जीतै रन माहीं – जो आपको रण मे न जीत सके॥2॥

भावार्थः- हे रावण! वहां मैं गिन तो नहीं सका परंनु कानोंसे ऐसा सुना था कि अठारह पद्म तो अकेले वानरों के सेनापति हैं॥
हे नाथ! उस कटकमें (सेना) ऐसा वानर एकभी नहीं है कि जो रणमें आपको जीत न सके॥

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परम क्रोध मीजहिं सब हाथा।
आयसु पै न देहिं रघुनाथा॥
सोषहिं सिंधु सहित झष ब्याला।
पूरहिं न त भरि कुधर बिसाला॥

परम क्रोध मीजहिं सब हाथा – सब के सब अत्यंत क्रोध से हाथ मीजते है।

आयसु पै न देहिं रघुनाथा – पर श्री रघुनाथ जी उन्हे आज्ञा नही देते।

सोषहिं सिंधु सहित झष ब्याला – हम मछलियो और साँपो सहित समुन्द्र को सोख लेंगे।

पूरहीं न त भरि कुधर बिसाला – नही तो बड़े-बड़े पर्वतो से उसे भरकर पूर (पाट) देंगे॥3॥

भावार्थः- सब वानर बड़ा कोध करके हाथ मीजते हैं; परंतु बिचारे करें क्या? रामचन्द्रजी उनको आज्ञा नहीं देते॥ वे ऐसे बली है कि मछलियां और सर्पोंके साथ समुद्रको सुखा सकते हैं और नखोंसे विशाल पर्वतको चीर सकते है॥

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मर्दि गर्द मिलवहिं दससीसा।
ऐसेइ बचन कहहिं सब कीसा॥
गर्जहिं तर्जहिं सहज असंका।
मानहुँ ग्रसन चहत हहिं लंका॥

मर्दि गर्द मिलवहिं दससीसा – और रावण को मसलकर धूल मे मिला देंगे।

ऐसेइ बचन कहहिं सब कीसा – सब वानर ऐसे ही वचन कह रहे है।

गर्जहिं तर्जहिं सहज असंका – सब सहज ही निडर है, इस प्रकार गरजते और डपटते है

मानहु ग्रसन चहत हहिं लंका – मानो लंका को निगल ही जाना चाहते है॥4॥

भावार्थः- और सब वानर ऐसे वचन कहते हैं कि हम जाकर रावणको मार कर उसी क्षण धूल में मिला देंगे॥
वे स्वभावसेही निशंक है, सो बेधड़क गरजते है और तर्जते है. मानों वे अभी लंकाको ग्रसना (निगलना) चाहते है॥

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दोहा – 55

सहज सूर कपि भालु सब पुनि सिर पर प्रभु राम।
रावन काल कोटि कहुँ जीति सकहिं संग्राम ॥55॥

सहज सूर कपि भालु सब पुनि सिर पर प्रभु राम – सब वानर-भालू सहज ही शूरवीर है फिर उनके सिर पर प्रभु (सर्वेश्र्वर) श्री राम जी है।

रावन काल कोटि कहु जीति सकहिं संग्राम – हे रावण! वे संग्राम मे करोड़ो कालो को जीत सकते है॥55॥

भावार्थः- हे रावण! वे रीछ और वानर अव्वल तो स्वभावहीसे शूर-बीर हैं और तिसपर फिर श्रीरामचन्द्रजी सिर पर है। इसलिए हे रावण! वे करोड़ों कालों को भी संग्राममें जीत सकते हैं ॥55॥


श्री राम, जय राम, जय जय राम

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रावणदूत शुक का रावण को समझाना

चौपाई

राम तेज बल बुधि बिपुलाई।
सेष सहस सत सकहिं न गाई॥
सक सर एक सोषि सत सागर।
तव भ्रातहि पूँछेउ नय नागर॥

राम तेज बल बुधि बिपुलाई – श्री राम चन्द्र जी के तेज, बल और बुद्धि की अधिकता को

सेष सहस सत सकहिं न गाई – लाखो शेष भी नही गा सकते।

सक सर एक सोषि सत सागर – वे एक ही बाण से सैकड़ो समुद्रो को सोख सकते है,

तब भ्रातहि पूँछेउ नय नागर – परन्तु नीति निपुण श्री राम जी ने (नीति की रक्षा के लिए) आपके भाई से उपाय पूछा॥1॥

भावार्थः- रामचन्द्रजीके तेज, बल, और बुद्धिकी बढ़ाईको करोड़ों शेषजी भी गा नहीं सकते तब औरकी तो बातही कौन?॥ यद्यपि वे एक बाणसे सौ समुद्रकों सुखा सकते है परंतु आपका भाई बिभीषण नीतिमें परम निपुण है इसलिए श्री राम ने समुद्रका पार उतरनेके लिये आपके भाई विभीषणसे पूछा॥

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तासु बचन सुनि सागर पाहीं।
मागत पंथ कृपा मन माहीं॥
सुनत बचन बिहसा दससीसा।
जौं असि मति सहाय कृत कीसा॥

तासु बचन सुनि सागर पाहीं – उनके (आपके भाई के) वचन सुनकर वे (श्री राम जी) समुन्द्र से राह माँग रहे है,

मागत पंथ कृपा मन माहीं – उनके मन मे कृपा भी है (इसलिए वे उसे सोखते नही)

सुनत बचन बिहसा दससीसा – दूत के ये वचन सुनते ही रावण खूब हँसा (और बोला –)

जौं असि मति सहाय कृत कीसा – जब ऐसी बुद्धि है, तभी तो वानरो को सहायक बनाया है॥2॥

भावार्थः- तब उसने सलाह दी कि पहले तो नरमीसे काम निकालना चाहिये और जो नरमीसे काम नहीं निकले तो पीछे तेजी करनी चाहिये॥ बिभीपणके ये वचन सुनकर श्री राम मनमें दया रखकर समुद्रके पास मार्ग मांगते है॥ दूतके ये वचन सुनकर रावण हँसा और बोला कि जिसकी ऐसी बुद्धि है, तभी तो वानरोंको तो सहाय बनाया है॥

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सहज भीरु कर बचन दृढ़ाई।
सागर सन ठानी मचलाई॥
मूढ़ मृषा का करसि बड़ाई।
रिपु बल बुद्धि थाह मैं पाई॥

सहज भीरु कर बचन दृढ़ाई – स्वाभाविक ही डरपोक विभीषण के वचन को प्रमाण करके

सागर सन ठानी मचलाई – उन्होने समुद्र से मचलना (बालहठ) ठाना है।

मूढ़ मृषा का करसि बड़ाई – अरे मूर्ख! झूठी बड़ाई क्या करता है?

रिपु बल बुद्धि थाह मैं पाई – बस, मैने शत्रु (राम) के बल और बुद्धि की थाह पा ली॥3॥

भावार्थः- और स्वभावसे डरपोंकके (विभीषण के) वचनोंपर दृढ़ता बांधी है तथा समुद्रसे अबोध बालककी तरह मचलना (बालहठ) ठाना है॥ हे मूर्ख! उसकी झूठी बड़ाई तू क्यों करता है? मैंने शत्रुके बल और बुद्धिकी थाह पा ली है॥

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सचिव सभीत बिभीषन जाकें।
बिजय बिभूति कहाँ जग ताकें॥
सुनि खल बचन दूत रिस बाढ़ी।
समय बिचारि पत्रिका काढ़ी॥

सचिव सभीत बिभीषन जाकें – जिसके विभीषण-जैसा डरपोक मन्त्री हो,

बिजय बिभूति कहाँ जग ताकें – उसे जगतमें विजय और विभूति (ऐश्वर्य) कहाँ?

सुनि खल बचन दूत रिस बाढ़ी – दुष्ट रावणके वचन सुनकर दूतको क्रोध बढ़ आया|

समय बिचारि पत्रिका काढ़ी – उसने मौका समझकर पत्रिका निकाली||4||

भावार्थः- जिसके डरपोंक बिभीषणसे मंत्री हैं उसके विजय और विभूति कहाँ? ॥ खल रावनके ये वचन सुनकर दूतको बड़ा क्रोध आया। इससे उसने अवसर जानकर लक्ष्मणके हाथकी पत्री निकाली॥

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रामानुज दीन्हीं यह पाती।
नाथ बचाइ जुड़ावहु छाती॥
बिहसि बाम कर लीन्हीं रावन।
सचिव बोलि सठ लाग बचावन॥

रामानुज दीन्ही यह पाती – (और कहा) – श्री राम जी के छोटे भाई लक्ष्मण ने यह पत्रिका दी है।

नाथ बचाइ जुड़ावहु छाती – हे नाथ! इसे बचवाकर छाती ठंडी कीजिए।

बिहसि बाम कर लीन्ही रावन – रावण वे हँसकर उसे बाएँ हाथ से लिया और

सचिव बोलि सठ लाग बचावन – मंत्री को बुलवाकर वह मूर्ख उसे बचाने लगा॥5॥

भावार्थः- और कहा कि यह पत्रिका रामके छोटे भाई लक्ष्मणने दी है। सो हे नाथ! इसको पढ़कर अपनी छातीको शीतल करो॥ रावणने हँसकर वह पत्रिका बाएं हाथमें ली और यह शठ (मूर्ख) अपने मंत्रियोंको बुलाकर पढाने लगा॥

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दोहा – 56 A

बातन्ह मनहि रिझाइ सठ जनि घालसि कुल खीस।
राम बिरोध न उबरसि सरन बिष्नु अज ईस ॥56(क)॥

बातन्ह मनहि रिझाइ सठ जनि घालसि कुल खीस – (पत्रिका मे लिखा था-) अरे मूर्ख! केवल बातो से ही मन को रिझाकर अपने कुल को नष्ट-नष्ट न कर।

राम बिरोध न उबरसि सरन बिष्नु अज ईस – श्री राम जी से विरोध करके तू विष्णु, ब्रह्मा और महेश की शरण जाने पर भी नही बचेगा॥56 क॥

भावार्थः- (पत्रिका में लिखा था -) हे शट (अरे मूर्ख)! तू बातोंसे मनको भले रिझा ले, हे कुलांतक! अपने कुलका नाश मत कर, रामचन्द्रजीसे विरोध करके विष्णु, ब्रह्मा और महेशके शरण जाने पर भी तू बच नही सकेगा॥56(क)॥

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दोहा – 56 B

की तजि मान अनुज इव प्रभु पद पंकज भृंग।
होहि कि राम सरानल खल कुल सहित पतंग ॥56(ख)॥

की तजि मान अनुज इव प्रभु पद पंकज भृंग – या तो अभिमान छोड़कर अपने छोटे भाई विभीषण की भाँति प्रभु के चरण कमलो का भ्रमर बन जा।

होहि कि राम सरानल खल कुल सहित पतंग – अथवा रे दुष्ट! श्री राम जी के बाण रूपी अग्नि मे परिवान सहित पतिंगा हो जा (दोनो मे से जो अच्छा लगे सो कर)॥56 ख॥

भावार्थः- तू अभिमान छोड़कर अपने छोटे भाईके जैसे प्रभुके चरणकमलोंका भ्रमर होजा। अर्थात् रामचन्द्रजीके चरणोंका चेरा होजा। अरे खल! रामचन्द्रजीके बाणरूप आगमें तू कुलसहित पतंग मत हो, जैसे पतंग आगमें पड़कर जल जाता है ऐसे तू रामचन्द्रजीके बाणसे मृत्यु को मत प्राप्त हो ॥56(ख)॥


श्री राम, जय राम, जय जय राम

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चौपाई

सुनत सभय मन मुख मुसुकाई।
कहत दसानन सबहि सुनाई॥
भूमि परा कर गहत अकासा।
लघु तापस कर बाग बिलासा॥

सुनत सभय मन मुख मुसुकाई – पत्रिका सुनते ही रावण मन मे भयभीत हो गया, परन्तु मुख से (ऊपर से) मुस्कुराता हुआ

कहत दसानन सबहि सुनाई – वह सबको सुनाकर कहने लगा –

भूमि परा कर गहत अकासा – जैसे कोई पृथ्वी पर पड़ा हुआ हाथ से आकाश को पकड़ने की चेष्टा करता है,

लघु तापस कर बाग बिलासा – वैसे ही यह छोटा तपस्वी (लक्ष्मण) वाग्विलास करता है (डींग हाँकता है)॥1॥

भावार्थः- ये अक्षर सुनकर रावण मनमें तो कुछ डरा, परंतु ऊपरसे हँसकर सबको सुनाके रावणने कहा॥
कि इस छोटे तपस्वीकी वाणीका विलास तो ऐसा है कि मानों पृथ्वीपर पड़ा हुआ आकाशको हाथसे पकड़े लेता है॥

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कह सुक नाथ सत्य सब बानी।
समुझहु छाड़ि प्रकृति अभिमानी॥
सुनहु बचन मम परिहरि क्रोधा।
नाथ राम सन तजहु बिरोधा॥

कह सुक नाथ सत्य सब बानी – शुक (दूत) ने कहा – हे नाथ! अभिमानी स्वभाव को छोड़कर

समुझहु छाड़ि प्रकृति अभिमानी – (इस पत्र मे लिखी) सब बातो को सत्य समझिए।

सुनहु बचन मम परिहरि क्रोधा – क्रोध छोड़कर मेरा वचन सुनिए।

नाथ राम सन तजहु बिरोधा – हे नाथ! श्री राम जी से वैर त्याग दीजिए॥2॥

भावार्थः- उस समय शुकने (दूत) कहा कि हे नाथ! यह वाणी सब सत्य है, सो आप स्वाभाविक अभिमानको छोड़कर समझ लों॥
हे नाथ! आप क्रोध तजकर मेरे वचन सुनो, और राम से जो विरोध बांध रक्खा है उसे छोड़ दो॥

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अति कोमल रघुबीर सुभाऊ।
जद्यपि अखिल लोक कर राऊ॥
मिलत कृपा तुम्ह पर प्रभु करिही।
उर अपराध न एकउ धरिही॥

अति कोमल रघुबीर सुभाऊ – यद्यपि श्री रघुवीर समस्त लोको के स्वामी है,

जद्यपि अखिल लोक कर राऊ – पर उनका स्वभाव अत्यंत ही कोमल है।

मिलत कृपा तुम्ह पर प्रभु करिही – मिलते ही प्रभु आप पर कृपा करेंगे और

उर अपराध न एकउ धरिही – आपका एक भी अपराध वे हृदय मे नही रखेंगे॥3॥

भावार्थः- यद्यपि वे राम सब लोकोंके स्वामी हैं तोभी उनका स्वभाव बड़ा ही कोमल है॥ आप जाकर उनसे मिलोगे तो मिलते ही वे आप पर कृपा करेंगे, आपके एकभी अपराधको वे दिलमें नही रक्खेंगे॥

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जनकसुता रघुनाथहि दीजे।
एतना कहा मोर प्रभु कीजे॥
जब तेहिं कहा देन बैदेही।
चरन प्रहार कीन्ह सठ तेही॥

जनकसुता रघुनाथहि दीजे – जानकी जी श्री रघुनाथ जी को दे दीजिए।

एतना कहा मोर प्रभु कीजे – हे प्रभु! इतना कहना मेरा कीजिए।

जब तेहिं कहा देन बैदेही – जब उस (दूत) ने जानकी जी को देने के लिए कहा,

चरन प्रहार कीन्ह सठ तेही – तब दुष्ट रावण ने उसको लात मारी॥4॥

भावार्थः- हे प्रभु । एक इतना कहना तो मेरा भी मानो कि सीताको आप रामचन्द्रजीको दे दो॥
(शुकने कई बातें कहीं परंतु रावण कुछ नहीं बोला परंतु) जिस समय सीताको देनेकी बात कही उसी क्षण उस दुष्टने शुकको (दूतको) लात मारी॥

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नाइ चरन सिरु चला सो तहाँ।
कृपासिंधु रघुनायक जहाँ॥
करि प्रनामु निज कथा सुनाई।
राम कृपाँ आपनि गति पाई॥

नाइ चरन सिरु चला सो तहाँ – वह भी (विभीषण की भाँति) चरणो मे सिर नवाकर नही चला,

कृपासिंधु रघुनायक जहाँ – जहाँ कृपासागर श्री रघुनाथ जी थे।

करि प्रनामु निज कथा सुनाई – प्रणाम करके उसने अपनी कथा सुनाई और

राम कृपाँ आपनि गति पाई – श्री राम जी की कृपा से अपनी गति (मुनि का स्वरूप) पाई॥5॥

भावार्थः- तब वह भी (विभीषण की भाँति) रावणके चरणोंमें शिर नमाकर वहां को चला कि जहां कृपाके सिंधु श्री रामचन्द्रजी विराजे थे॥
रामचन्द्रजी को प्रणाम करके उसने वहां की सब बात कही। तदनंतर वह राक्षस रामचन्द्रजीकी कृपासे अपनी गति अर्थात् मुनिशरीरको प्राप्त हुआ॥

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रिषि अगस्ति कीं साप भवानी।
राछस भयउ रहा मुनि ग्यानी॥
बंदि राम पद बारहिं बारा।
मुनि निज आश्रम कहुँ पगु धारा॥

रिषि अगस्ति कीं साप भवानी – (शिवाजी कहते है) – हे भवानी! वह ज्ञानी मुनि था,

राछस भयउ रहा मुनि ग्यानी – अगस्त्य ऋषि के शाप के राक्षस हो गया था।

बंदि राम पद बारहिं बारा – बार-बार श्री राम जी के चरणो की वंदना करके

मुनि निज आश्रम कहुँ पगु धारा – वह मुनि अपने आश्रम को चला गया॥6॥

भावार्थः- महादेवजी कहते हैं कि हे पार्वती! यह पूर्वजन्ममें बड़ा ज्ञानी मुनि था, सो अगस्त्य ऋषिके शापसे राक्षस हुआ था॥
यहां रामचन्द्रजीके चरणोको वारंवार नमस्कार करके फिर अपने आश्रमको गया॥

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समुद्र पर श्री रामजी का क्रोध

दोहा – 57

बिनय न मानत जलधि जड़ गए तीनि दिन बीति।
बोले राम सकोप तब भय बिनु होइ न प्रीति ॥57॥

बिनय न मानत जलधि जड़ गए तीन दिन बीति – इधर तीन दिन बीत गए, किन्तु जड़ समुन्द्र विनय नही मानता।

बोले राम सकोप तब भय बिनु होइ न प्रीति – तब श्री राम जी क्रोध सहित बोले – बिना भय के प्रीति नही होती!॥57॥

भावार्थः- जब जड़ समुद्रने विनयसे नहीं माना अर्थात् रामचन्द्रजीको दर्भासनपर बैठे तीन दिन बीत गये तब रामचन्द्रजीने क्रोध करके कहा कि भय बिना प्रीति नहीं होती ॥57॥


श्री राम, जय राम, जय जय राम

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समुद्र पर श्री रामजी का क्रोध

चौपाई

लछिमन बान सरासन आनू।
सोषौं बारिधि बिसिख कृसानु॥
सठ सन बिनय कुटिल सन प्रीति।
सहज कृपन सन सुंदर नीति॥

लछिमन बान सरासन आनू – हे लक्ष्मण! धनुष-बाण लाओ,

सोषौं बारिधि बिसिख कृसानू – मै अग्निबाण से समुन्द्र को सोख डालूँ।

सठ सन बिनय कुटिल सन प्रीती – मूर्ख से विनय, कुटिल के साथ प्रीति,

सहज कृपन सन सुंदर नीती – स्वाभाविक ही कंजूस से सुन्दर नीति (उदारता का उपदेश)॥1॥

भावार्थः- हे लक्ष्मण! धनुष बाण लाओ। क्योंकि अब इस समुद्रको बाणकी आगसे सुखाना होगा॥ देखो, इतनी बातें सब निष्फल जाती हैं। शठके पास विनय करना, कुटिल आदमीसे प्रीति रखना, स्वाभाविक कंजूस आदमीके पास सुन्दर नीतिका कहना॥

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ममता रत सन ग्यान कहानी।
अति लोभी सन बिरति बखानी॥
क्रोधिहि सम कामिहि हरिकथा।
ऊसर बीज बएँ फल जथा॥

ममता रत सन ग्यान कहानी – ममता मे फँसे हुए मनुष्य से ज्ञान की कथा,

अति लोभी सन बिरति बखानी – अत्यंत लोभी से वैराग्य का वर्णन,

क्रोधिहि सम कामिहि हरि कथा – क्रोधी से शम (शांति) की बात और कामी से भगवान् की कथा,

ऊसर बीज बएँ फल जथा – इनका वैसा ही फल होता है जैसा ऊसर मे बीज बोने से होता है (अर्थात् ऊसर मे बीज बोने की भाँति यह सब व्यर्थ जाता है)॥2॥

भावार्थः- ममतासे भरे हुए जनके पास ज्ञानकी बात कहना, अतिलोभीके पास वैराग्यका प्रसंग चलाना॥ क्रोधीके पास समताका उपदेश करना, कामी (लंपट) के पास भगवानकी कथाका प्रसंग चलाना और ऊसर भूमिमें बीज बोना ये सब बराबर है॥

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अस कहि रघुपति चाप चढ़ावा।
यह मत लछिमन के मन भावा॥
संधानेउ प्रभु बिसिख कराला।
उठी उदधि उर अंतर ज्वाला॥

अस कहि रघुपति चाप चढ़ावा – ऐसा कहकर श्री रघुनाथ जी ने धनुष चढ़ाया।

यह मत लछिमन के मन भावा – यह मत लक्ष्मण जी के मन को बहुत अच्छा लगा।

संघानेउ प्रभु बिसिख कराला – प्रभु ने भयानक (अग्नि) बाण संधान किया,

उठी उदधि उर अंतर ज्वाला – जिससे समुन्द्र के हृदय के अंदर अग्नि की ज्वाला उठी॥3॥

भावार्थः- ऐसे कहकर रामचन्द्रजीने अपना धनुष चढ़ाया। यह रामचन्द्रजीका मत लक्ष्मणके मनको बहुत अच्छा लगा॥ प्रभुने इधर तो धनुषमें विकराल बाणका सन्धान किया और उधर समुद्रके हृदयके बीच संतापकी ज्वाला उठी॥

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मकर उरग झष गन अकुलाने।
जरत जंतु जलनिधि जब जाने॥
कनक थार भरि मनि गन नाना।
बिप्र रूप आयउ तजि माना॥

मकर उरग झष गन अकुलाने – मगर, साँप तथा मछलियो के समूह व्याकुल हो गए।

जरत जंतु जलनिधि जब जाने – जब समुन्द्र ने जीवो को जलते जाना,

कनक थार भरि मनि गन नाना – तब सोने के थाल मे अनेक मणियो (रत्नो) को भरकर

बिप्र रूप आयउ तजि माना – अभिमान छोड़कर वह ब्राह्मण के रूप मे आया॥4॥

भावार्थः- मगर, सांप, और मछलियां घबरायीं और समुद्रने जाना कि अब तो जलजन्तु जलने है॥ तब वह मानको तज, ब्राह्मणका स्वरूप धर, हाथमें अनेक मणियोंसे भरा हुआ कंचनका थार ले बाहर आया॥

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दोहा – 58

काटेहिं पइ कदरी फरइ कोटि जतन कोउ सींच।
बिनय न मान खगेस सुनु डाटेहिं पइ नव नीच ॥58॥

काटेहिं पइ कदरी फरइ कोटि जतन कोउ सींच – (काकभुशुण्डि जी कहते है –) हे गुरूड़ जी! सुनिए, चाहे कोई करोड़ो उपाय करके सींचे, पर केला तो काटने पर ही फलता है।

बिनय न मान खगेस सुनु डाटेहिं पइ नव नीच – नीच विनय से नही मानता, वह डाँटने पर ही झुकता है (रास्ते पर आता है)॥58॥

भावार्थः- काकभुशुंडिने कहा कि हे गरुड़! देखा, केला काटनेसेही फलता है। चाहो दूसरे करोडों उपाय करलो और ख़ूब सींच लो, परंतु बिना काटे नहीं फलता। ऐसेही नीच आदमी विनय करनेसे नहीं मानता किंतु डाटने से ही नमता है ॥58॥

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समुद्र की श्री राम से विनती

चौपाई

सभय सिंधु गहि पद प्रभु केरे।
छमहु नाथ सब अवगुन मेरे॥
गगन समीर अनल जल धरनी।
इन्ह कइ नाथ सहज जड़ करनी॥

सभय सिंधु गहि पद प्रभु केरे – समुन्द्र ने भयभीत होकर प्रभु के चरण पकड़कर कहा –

छमहु नाथ सब अवगुन मेरे – हे नाथ! मेरे सब अवगुण (दोष) क्षमा कीजिए।

गगन समीर अनल जल धरनी – हे नाथ! आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी –

इन्ह कइ नाथ सहज जड़ करनी – इन सबकी करनी स्वभाव से ही जड़ है॥1॥

भावार्थः- समुद्रने भयभीत होकर प्रभुके चरण पकड़े और प्रभुसे प्रार्थना की कि हे प्रभु मेरे सब अपराध क्षमा करो॥
हे नाथ! आकाश, पवन, अग्रि, जल, और पृथ्वी इनकी करणी स्वभावहीसे जड़ है॥

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तव प्रेरित मायाँ उपजाए।
सृष्टि हेतु सब ग्रंथनि गाए॥
प्रभु आयसु जेहि कहँ जस अहई।
सो तेहि भाँति रहें सुख लहई॥

तव प्रेरित मायाँ उपजाए – आपकी प्रेरणा से माया ने इन्हे सृष्टि के लिए उत्पन्न किया है,

सृष्टि हेतु सब ग्रंथनि गाए – सब ग्रंथो ने यही गाया है।

प्रभु आयसु जेहि कहँ जस अहई – जिसके लिए स्वामी की जैसी आज्ञा है,

सो तेहि भाँति रहे सुख लहई – वह उसी प्रकार से रहने मे सुख पाता है॥2॥

भावार्थः- और सृष्टिके निमित्त आपकीही प्रेरणासे मायासे ये प्रकट हुए है, सो यह बात सब ग्रंथोंमें प्रसिद्ध हे॥ हे प्रभु! जिसको स्वामीकी जैसी आज्ञा होती है वह उसी तरह रहता है तो सुख पाता है॥

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प्रभु भल कीन्ह मोहि सिख दीन्ही।
मरजादा पुनि तुम्हरी कीन्ही॥
ढोल गवाँर सूद्र पसु नारी।
सकल ताड़ना के अधिकारी॥

प्रभु भल कीन्ही मोहि सिख दीन्ही – प्रभु ने अच्छा किया जो मुझे शिक्षा (दंड) दी,

मरजादा पुनि तुम्हरी कीन्ही – किंतु मर्यादा (जीवो का स्वभाव) भी आपकी ही बनाई हुई है।

ढोल गवाँर सूद्र पसु नारी – ढोल, गँवार, शूद्र, पशु और स्त्री –

सकल ताड़ना के अधिकारी – ये सब शिक्षा के अधिकारी है॥3॥

भावार्थः- हे प्रभु! आपने जो मुझको शिक्षा दी, यह बहुत अच्छा किया; परंतु मर्यादा तो सब आपकी ही बांधी हुई है॥

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प्रभु प्रताप मैं जाब सुखाई।
उतरिहि कटकु न मोरि बड़ाई॥
प्रभु अग्या अपेल श्रुति गाई।
करौं सो बेगि जो तुम्हहि सोहाई॥

प्रभु प्रताप मैं जाब सुखाई – प्रभु के प्रताप से मै सूख जाऊँगा और सेना पार उतर जाएगी,

उतरिहि कटकु न मोरि बड़ाई – इसमे मेरी बड़ाई नही है (मेरी मर्यादा नही रहेगी)।

प्रभु अग्या अपेल श्रुति गाई – तथापि प्रभु की आज्ञा का उल्लंघन नही हो सकता) ऐसा वेद गाते है।

करौं सो बेगि जौ तुम्हहि सोहाई – अब आपको जो अच्छा लगे, मै तुरन्त वही करूँ॥4॥

भावार्थः- हे प्रभु! मैं आपके प्रतापसे सूख जाऊंगा और उससे कटक भी पार उतर जाएगा। परंतु इसमें मेरी महिमा घट जायगी॥
और प्रभुकी आज्ञा अपेल (अर्थात अनुल्लंघनीय – आज्ञा का उल्लंघन नहीं हो सकता) है। सो यह बात वेदमें गायी है। अब जो आपको जचे वही आज्ञा देवें सो मै उसके अनुसार शीघ्र करूं॥

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दोहा – 59

सुनत बिनीत बचन अति कह कृपाल मुसुकाइ।
जेहि बिधि उतरै कपि कटकु तात सो कहहु उपाइ ॥59॥

सुनत बिनीत बचन अति कह कृपाल मुसुकाइ – समुन्द्र के अत्यंत विनीत वचन सुनकर कृपालु श्री राम जी ने मुस्कुराकर कहा –

जेहि बिधि उतरै कपि कटकु तात सो कहहु उपाइ – हे तात! जिस प्रकार वानरो की सेना पार उतर जाए, वह उपाय बताओ॥59॥

भावार्थः- समुद्रके ऐसे अतिविनीत वचन सुनकर, मुस्कुरा कर, प्रभुने कहा कि हे तात! जैसे यह हमारा वानरका कटक पार उतर जाय वैसा उपाय करो ॥59॥


श्री राम, जय राम, जय जय राम

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चौपाई

नाथ नील नल कपि द्वौ भाई।
लरिकाईं रिषि आसिष पाई॥
तिन्ह कें परस किएँ गिरि भारे।
तरिहहिं जलधि प्रताप तुम्हारे॥

नाथ नील नल कपि द्वौ भाई – (समुन्द्र ने कहा –) हे नाथ! नील और नल दो वानर भाई है।

लरिकाई रिषि आसिष पाई – उन्होने लड़कपन मे ऋषि से आशीर्वाद पाया था।

तिन्ह के परस किएँ गिरि भारे – उनके स्पर्श कर लेने से ही भारी-भारी पहाड़ भी

तरिहहिं जलधि प्रताप तुम्हारे – आपके प्रताप से समुन्द्र पर तैर जाएँगे॥1॥

भावार्थः- रामचन्द्रजीके ये वचन सुनकर समुद्रने कहा कि हे नाथ! नील और नल ये दोनों भाई है। नलको बचपनमें ऋषियोंसे आशीर्वाद मिला हुआ है॥ इस कारण हे प्रभु! नलका छुआ हुआ भारी पर्वत भी आपके प्रतापसे समुद्रपर तैर जाएगा॥ (नील और नल दोनो बचपनमें खेला करते थे। सो ऋषियोंके आश्रमोंमें जाकर जिस समय मुनिलोग शालग्रामजीकी पूजा कर आख मूंद ध्यानमें बैठते थे, तब ये शालग्रामजीको लेकर समुद्रमें फेंक देते थे। इससे ऋषियोंने शाप दिया कि नलका डाला हूआ पत्थर नहीं डुबेंगा। सो वही शाप इसके वास्ते आशीर्वादात्मक हुआ।)

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मैं पुनि उर धरि प्रभु प्रभुताई।
करिहउँ बल अनुमान सहाई॥
एहि बिधि नाथ पयोधि बँधाइअ।
जेहिं यह सुजसु लोक तिहुँ गाइअ॥

मैं पुनि उर धरि प्रभुताई – मै भी प्रभु की प्रभुता को हृदय मे धारण कर

करिहउँ बल अनुमान सहाई – अपने बल के अनुसार (जहाँ तक मुझसे बन पड़ेगा) सहायता करूँगा।

एहि बिधि नाथ पयोधि बँधाइअ – हे नाथ! इस प्रकार समुन्द्र को बँधाइए,

जेहिं यह सुजसु लोक तिहुँ गाइअ – जिससे तीनो लोको मे आपका सुन्दर यश गाया जाए॥2॥

भावार्थः- हे प्रभु! मुझसे जो कुछ बन सकेगा वह अपने बलके अनुसार आपकी प्रभुताकों हदयमें रखकर मै भी सहाय करूंगा॥ हे नाथ! इस तरह आप समुद्रमें सेतु बांध दीजिये कि जिसको विद्यमान देखकर त्रिलोकीमें लोग आपके सुयशको गाते रहेंगे॥

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एहि सर मम उत्तर तट बासी।
हतहु नाथ खल नर अघ रासी॥
सुनि कृपाल सागर मन पीरा।
तुरतहिं हरी राम रनधीरा॥

एहि सर मम उत्तर तट बासी – इस बाण से मेरे उत्तर तट पर रहने वाले

हतहु नाथ खल नर अघ रासी – पाप के राशि दुष्ट मनुष्यो का वध कीजिए।

सुनि कृपाल सागर मन पीरा – कृपालु और रणधीर श्री रामजी ने समुन्द्र के मन की पीड़ा सुनकर

तुरतहिं हरी राम रनधीरा – उसे तुरन्त ही हर लिया (अर्थात् बाण से उन दुष्टो का बध कर दिया)॥3॥

भावार्थः- हे नाथ! इसी बाणसे आप मेरे उत्तर तटपर रहनेवाले पापके पुंज दुष्टोंका संहार करो॥ ऐसे दयालु रणधीर श्रीरामचन्द्रजीने सागरके मनकी पीड़ा को जानकर उसको तुरंत हर लिया॥

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देखि राम बल पौरुष भारी।
हरषि पयोनिधि भयउ सुखारी॥
सकल चरित कहि प्रभुहि सुनावा।
चरन बंदि पाथोधि सिधावा॥

देखि राम बल पौरुष भारी – श्री रामजी का भारी बल और पौरूष देखकर

हरषि पयोनिधि भयउ सुखारी – समुन्द्र हर्षित होकर सुखी हो गया।

सकल चरित कहि प्रभुहि सुनावा – उसने उन दुष्टो का सारा चरित्र प्रभु को कह सुनाया।

चरन बंदि पाथोधि सिधावा – फिर चरणो की वंदना करके समुन्द्र चला गया॥4॥

भावार्थः- समुद्र रामचन्द्रजीके अपरिमित (अपार) बलको देखकर आनंदपूर्वक सुखी हुआ॥ समुद्रने सारा हाल रामचन्द्रजीको कह सुनाया, फिर चरणोंको प्रणाम कर अपने धामको सिधारा॥

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छन्द

छं० – निज भवन गवनेउ सिंधु श्रीरघुपतिहि यह मत भायऊ।
यह चरित कलि मलहर जथामति दास तुलसी गायऊ॥
सुख भवन संसय समन दवन बिषाद रघुपति गुन गना।
तजि सकल आस भरोस गावहि सुनहि संतत सठ मना॥

निज भवन गवनेउ सिंधु श्रीरघुपतिहि यह मत भायऊ – समुन्द्र अपने घर चला गया, श्री रघुनाथ जी को यह मत (उसकी सलाह) अच्छा लगा।

यह चरित कलि मलहर जथामति दास तुलसी गायऊ – यह चरित्र कलियुग के पापो को हरने वाला है, इसे तुलसीदास ने अपनी बुद्धि के अनुसार गाया है।॥1॥

सुख भवन संसय समन दवन बिषाद रघुपति गुन गना – श्री रघुनाथ जी के गुण समूह सुख के धाम, संदेह का नाश करने वाले और विषाद का दमन करने वाले है।

तजि सकल आस भरोस गावहि सुनहि संतत सठ मना – अरे मूर्ख मन! तू संसार का सब आशा-भरोसा त्यागकर निरंतर इन्हे गा और सुन।॥2॥

भावार्थः- समुद्र तो ऐसे प्रार्थना करके अपने घरको गया। रामचन्द्रजीके भी मनमें यह समुद्रकी सलाह भा गयी। तुलसीदासजी कहते हैं कि कलियुग के पापों को हरनेवाला यह रामचन्द्रजीका चरित मेरी जैसी बुद्धि है वैसा मैंने गाया है; क्योंकि रामचन्द्रजीके गुणगाण (गुणसमूह) ऐसे हैं कि वे सुखके तो धाम हैं, संशयके मिटानेवाले है और विषाद (रंज) को शांत करनेवाले है सो जिनका मन पवित्र है और जो सज्जन पुरुष है, वे उन चरित्रोंको सब आशा और सब भरोसोंको छोड़ कर गाते हैं और सुनते हैं॥

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दोहा – 60

सकल सुमंगल दायक रघुनायक गुन गान।
सादर सुनहिं ते तरहिं भव सिंधु बिना जलजान ॥60॥

सकल सुमंगल दायक रघुनायक गुन गान – श्री रघुनाथ जी का गुणगान संपूर्ण सुंदर मंगलो का देने वाला है।

सादर सुनहिं ते तरहिं भव सिंधु बिना जलजान – जो इसे आदर सहित सुनेंगे, वे बिना किसी जहाज (अन्य साधन) के ही भवसागर को तर जाएँगे॥60॥

भावार्थः- सर्व प्रकारके सुमंगल देनेवाले रामचन्द्रजीके गुणोंका जो मनुष्य गान करते है और आदरसहित सुनते हैं वे लोग संसारसमुद्रको बिना नाव पार उतर जाते हें ॥60॥


श्री राम, जय राम, जय जय राम


इति श्रीमद्रामचरितमानसे सकलकलिकलुषविध्वंसने पञ्चमः सोपानः समाप्तः – कलियुग के समस्त पापो का नाश करने वाले श्री रामचरित मानस का यह पाँचवाँ सोपान समाप्त हुआ।