समता – भगवद्‍ गीता



समता – भगवद्‍गीता अध्याय – २

मात्रास्पर्शास्तु कौन्तेय
शीतोष्णसुखदुःखदाः।
आगमापायिनोऽनित्या:
तांस्तितिक्षस्व भारत॥१४॥

सर्दी-गर्मी और सुख-दुःख को देने वाले इन्द्रिय और विषयों के संयोग तो अनित्य, उत्पत्ति-विनाशशील और क्षणभंगुर है। इसलिए हे भारत! उनको तू सहन कर॥


यं हि न व्यथयन्त्येते
पुरुषं पुरुषर्षभ।
समदुःखसुखं धीरं
सोऽमृतत्वाय कल्पते॥१५॥

दुःख-सुख को समान समझने वाले जिस धीर पुरुष को ये इन्द्रिय और विषयों के संयोग व्याकुल नहीं करते, वह मोक्ष के योग्य होता है ॥


समता – भगवद्‍गीता अध्याय – १२

अद्वेष्टा सर्वभूतानां
मैत्रः करुण एव च।
निर्ममो निरहङ्‍कारः
समदुःखसुखः क्षमी॥१३॥

जो पुरुष सब भूतों में द्वेष भाव से रहित, स्वार्थ रहित सबका प्रेमी और हेतु रहित दयालु है तथा ममता से रहित, अहंकार से रहित, सुख-दुःखों की प्राप्ति में सम और क्षमावान है तथा ….


संतुष्टः सततं योगी
यतात्मा दृढ़निश्चयः।
मय्यर्पितमनोबुद्धिर्यो
मद्भक्तः स मे प्रियः॥१४॥

…. जो योगी निरन्तर संतुष्ट है, मन-इन्द्रियों सहित शरीर को वश में किए हुए है और मुझमें दृढ़ निश्चय वाला है – वह मुझमें अर्पण किए हुए मन-बुद्धिवाला मेरा भक्त मुझको प्रिय है॥


यस्मान्नोद्विजते लोको
लोकान्नोद्विजते च यः।
हर्षामर्षभयोद्वेगैर्मुक्तो यः
स च मे प्रियः॥१५॥

जिससे कोई भी जीव उद्वेग को प्राप्त नहीं होता और जो स्वयं भी किसी जीव से उद्वेग को प्राप्त नहीं होता तथा जो हर्ष, अमर्ष, भय और उद्वेगादि से रहित है – वह भक्त मुझको प्रिय है॥ अमर्ष (दूसरे की उन्नति को देखकर संतापित होना)


अनपेक्षः शुचिर्दक्ष
उदासीनो गतव्यथः।
सर्वारम्भपरित्यागी
यो मद्भक्तः स मे प्रियः ॥१६॥

जो पुरुष आकांक्षा से रहित, पक्षपात से रहित और दुःखों से छूटा हुआ है – वह सब आरम्भों का त्यागी मेरा भक्त मुझको प्रिय है॥


यो न हृष्यति न द्वेष्टि
न शोचति न काङ्‍क्षति।
शुभाशुभपरित्यागी
भक्तिमान्यः स मे प्रियः ॥१७॥

जो न कभी हर्षित होता है, न द्वेष करता है, न शोक करता है, न कामना करता है तथा जो शुभ और अशुभ सम्पूर्ण कर्मों का त्यागी है – वह भक्तियुक्त पुरुष मुझको प्रिय है॥


समः शत्रौ च मित्रे च
तथा मानापमानयोः।
शीतोष्णसुखदुःखेषु समः
सङ्‍गविवर्जितः ॥१८॥

जो शत्रु-मित्र में और मान-अपमान में सम है तथा सर्दी, गर्मी और सुख-दुःखादि द्वंद्वों में सम है और आसक्ति से रहित है तथा ……..


तुल्यनिन्दास्तुतिर्मौनी
सन्तुष्टो येन केनचित्‌।
अनिकेतः स्थिरमति:
भक्तिमान्मे प्रियो नरः ॥१९॥

….. जो निंदा-स्तुति को समान समझने वाला, मननशील और जिस किसी प्रकार से भी शरीर का निर्वाह होने में सदा ही संतुष्ट है और रहने के स्थान में ममता और आसक्ति से रहित है वह स्थिरबुद्धि भक्तिमान पुरुष मुझको प्रिय है॥