जन्म-मृत्यु का चक्र – भगवद गीता



भगवद्‍गीता अध्याय – २

न त्वेवाहं जातु नासं
न त्वं नेमे जनाधिपाः।
न चैव न भविष्यामः
सर्वे वयमतः परम्‌॥१२॥

न तो ऐसा ही है कि मैं किसी काल में नहीं था,
तू नहीं था अथवा ये राजा लोग नहीं थे और
न ऐसा ही है कि इससे आगे हम सब नहीं रहेंगे।


देहिनोऽस्मिन्यथा देहे
कौमारं यौवनं जरा।
तथा देहान्तरप्राप्तिर्धीरस्तत्र
न मुह्यति॥ 13॥

जैसे जीवात्मा की इस देह में बालकपन, जवानी और वृद्धावस्था होती है,
वैसे ही अन्य शरीर की प्राप्ति होती है, उस विषय में धीर पुरुष मोहित नहीं होते।


वासांसि जीर्णानि यथा विहाय
नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि।
तथा शरीराणि विहाय जीर्णान्यन्यानि
संयाति नवानि देही॥ 22॥

जैसे मनुष्य पुराने वस्त्रों को त्यागकर दूसरे नए वस्त्रों को ग्रहण करता है,
वैसे ही जीवात्मा पुराने शरीरों को त्यागकर दूसरे नए शरीरों को प्राप्त होता है॥


जातस्त हि ध्रुवो मृत्युर्ध्रुवं
जन्म मृतस्य च।
तस्मादपरिहार्येऽर्थे न
त्वं शोचितुमर्हसि॥२७॥

क्योंकि इस मान्यता के अनुसार जन्मे हुए की मृत्यु निश्चित है और मरे हुए का जन्म निश्चित है। इससे भी इस बिना उपाय वाले विषय में तू शोक करने योग्य नहीं है॥


अव्यक्तादीनि भूतानि
व्यक्तमध्यानि भारत।
अव्यक्तनिधनान्येव तत्र
का परिदेवना॥२८॥

हे अर्जुन! सम्पूर्ण प्राणी जन्म से पहले अप्रकट थे और मरने के बाद भी अप्रकट हो जाने वाले हैं, केवल बीच में ही प्रकट हैं, फिर ऐसी स्थिति में क्या शोक करना है?॥