ध्यान – भगवद गीता



ध्यान मनुष्य के जीवन के लिए एक बहुत ही महत्वपूर्ण चीज है,
क्योंकि ध्यान से ही मन शांत होता है और
उसके बाद ही मनुष्य को सही और गलत की समझ आती है।

भगवान् कृष्ण ने गीता में कहा है की
यज्ञ के निमित्त किया गया कर्म ही मनुष्य को कर्म बंधनों से छुड़ा सकता है।

उसके अलावा किया गया कोई भी कर्म,
मनुष्य को कर्म बंधन में बांधता है, और
मनुष्य अपनी स्थिति से गिरता चला जाता है।

उस यज्ञ निमित्त कर्म में ध्यान का एक महत्वपूर्ण स्थान है।

भगवद गीता में ध्यान के इस लेख में,
भगवान् श्री कृष्ण ने ध्यान के बारे में अलग अलग अध्यायों में जो बातें बतायी है,
उन्हें एक जगह दिया गया है।

श्री कृष्ण ने ध्यान के बारे में विस्तार से अध्याय 6 में समझाया था की
ध्यान के लिए किस प्रकार बैठना चाहिए,
ध्यान के लिए मन को कहा स्थिर करना चाहिए, आदि।

कुछ अन्य अध्यायों में भी जैसे की अध्याय 9, 10, 12 में भी
भगवान ने ध्यान के बारे में कुछ बाते कही थी, वो भी निचे दी गयी हैं।


ध्यान – भगवद्‍गीता अध्याय – 2

बुद्धि की स्थिरता के लिए इन्द्रियों को वश में करना जरूरी

तानि सर्वाणि संयम्य युक्त आसीत मत्परः।
वशे हि यस्येन्द्रियाणि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता॥

साधक को चाहिए कि वह उन सम्पूर्ण इन्द्रियों को वश में करके
समाहित चित्त हुआ मेरे परायण होकर ध्यान में बैठे
क्योंकि जिस पुरुष की इन्द्रियाँ वश में होती हैं,
उसी की बुद्धि स्थिर हो जाती है॥61॥


ध्यान – भगवद्‍गीता अध्याय – 6

आसक्तियों को छोड़कर मन को निरंतर परमात्मा में लगाए

योगी युञ्जीत सततमात्मानं रहसि स्थितः।
एकाकी यतचित्तात्मा निराशीरपरिग्रहः॥

मन और इन्द्रियों सहित शरीर को वश में रखने वाला,
आशारहित और संग्रहरहित योगी,
अकेला ही एकांत स्थान में स्थित होकर
आत्मा को निरंतर परमात्मा में लगाए॥10॥


स्थिर आसन

शुचौ देशे प्रतिष्ठाप्य स्थिरमासनमात्मनः।
नात्युच्छ्रितं नातिनीचं चैलाजिनकुशोत्तरम्‌॥

शुद्ध भूमि में,
जिसके ऊपर क्रमशः कुशा, मृगछाला और वस्त्र बिछे हैं,
जो न बहुत ऊँचा है और न बहुत नीचा,
ऐसे अपने आसन को स्थिर स्थापन करके॥11॥


एकाग्र मन

तत्रैकाग्रं मनः कृत्वा यतचित्तेन्द्रियक्रियः।
उपविश्यासने युञ्ज्याद्योगमात्मविशुद्धये॥

उस आसन पर बैठकर
चित्त और इन्द्रियों की क्रियाओं को वश में रखते हुए
मन को एकाग्र करके
अन्तःकरण की शुद्धि के लिए योग का अभ्यास करे॥12॥


सीधा और स्थिर शरीर, दृष्टि स्थिर

समं कायशिरोग्रीवं धारयन्नचलं स्थिरः।
सम्प्रेक्ष्य नासिकाग्रं स्वं दिशश्चानवलोकयन्‌॥

काया, सिर और गले को समान एवं अचल धारण करके और स्थिर होकर,
अपनी नासिका के अग्रभाग पर दृष्टि जमाकर,
अन्य दिशाओं को न देखता हुआ॥13॥


शांत मन, ईश्वर में चित्त

प्रशान्तात्मा विगतभीर्ब्रह्मचारिव्रते स्थितः।
मनः संयम्य मच्चित्तो युक्त आसीत मत्परः॥

ब्रह्मचारी के व्रत में स्थित, भयरहित
तथा भलीभाँति शांत अन्तःकरण वाला सावधान योगी,
मन को रोककर,
मुझमें चित्तवाला और
मेरे परायण होकर स्थित होए॥14॥


ध्यान से परम शांति कैसे?

युञ्जन्नेवं सदात्मानं योगी नियतमानसः।
शान्तिं निर्वाणपरमां मत्संस्थामधिगच्छति॥

वश में किए हुए मनवाला योगी
इस प्रकार आत्मा को निरंतर मुझ परमेश्वर के स्वरूप में लगाता हुआ
मुझमें रहने वाली परमानन्द की पराकाष्ठारूप शान्ति को प्राप्त होता है॥15॥


ना अधिक खाना, ना अधिक सोना

नात्यश्नतस्तु योगोऽस्ति न चैकान्तमनश्नतः।
न चाति स्वप्नशीलस्य जाग्रतो नैव चार्जुन॥

हे अर्जुन!
यह योग न तो बहुत खाने वाले का,
न बिलकुल न खाने वाले का,
न बहुत शयन करने के स्वभाव वाले का और
न सदा जागने वाले का ही सिद्ध होता है॥16॥


संतुलित आहार-विहार, सोना-जागना

युक्ताहारविहारस्य युक्तचेष्टस्य कर्मसु।
युक्तस्वप्नावबोधस्य योगो भवति दुःखहा॥

दुःखों का नाश करने वाला योग तो
यथायोग्य आहार-विहार करने वाले का,
कर्मों में यथायोग्य चेष्टा करने वाले का और
यथायोग्य सोने तथा जागने वाले का ही सिद्ध होता है॥17॥


ईश्वर में स्थिर मन

यदा विनियतं चित्तमात्मन्येवावतिष्ठते।
निःस्पृहः सर्वकामेभ्यो युक्त इत्युच्यते तदा॥

अत्यन्त वश में किया हुआ चित्त
जिस काल में परमात्मा में ही भलीभाँति स्थित हो जाता है,
उस काल में सम्पूर्ण भोगों से स्पृहारहित पुरुष
योगयुक्त है, ऐसा कहा जाता है॥18॥


जैसे दिए की स्थिर लौ

यथा दीपो निवातस्थो नेंगते सोपमा स्मृता।
योगिनो यतचित्तस्य युञ्जतो योगमात्मनः॥

जिस प्रकार वायुरहित स्थान में स्थित दीपक चलायमान नहीं होता,
वैसी ही उपमा
परमात्मा के ध्यान में लगे हुए योगी के जीते हुए चित्त की कही गई है॥19॥


शांत मन, सूक्ष्म बुद्धि, परमात्मा में मन

यत्रोपरमते चित्तं निरुद्धं योगसेवया।
यत्र चैवात्मनात्मानं पश्यन्नात्मनि तुष्यति॥

योग के अभ्यास से निरुद्ध चित्त
जिस अवस्था में उपराम हो जाता है और
जिस अवस्था में परमात्मा के ध्यान से शुद्ध हुई सूक्ष्म बुद्धि द्वारा
परमात्मा को साक्षात करता हुआ
सच्चिदानन्दघन परमात्मा में ही सन्तुष्ट रहता है॥20॥


परम आनंद की स्थिति

सुखमात्यन्तिकं यत्तद्‍बुद्धिग्राह्यमतीन्द्रियम्‌।
वेत्ति यत्र न चैवायं स्थितश्चलति तत्त्वतः॥

इन्द्रियों से अतीत,
केवल शुद्ध हुई सूक्ष्म बुद्धि द्वारा ग्रहण करने योग्य जो अनन्त आनन्द है,
उसको जिस अवस्था में अनुभव करता है, और
जिस अवस्था में स्थित यह योगी परमात्मा के स्वरूप से विचलित होता ही नहीं॥21॥


ध्यान की अंतिम स्थिति क्या है?

अभ्यासयोगयुक्तेन चेतसा नान्यगामिना।
परमं पुरुषं दिव्यं याति पार्थानुचिन्तयन्‌॥

हे पार्थ! यह नियम है कि
परमेश्वर के ध्यान के अभ्यास रूप योग से युक्त,
दूसरी ओर न जाने वाले चित्त से
निरंतर चिंतन करता हुआ मनुष्य
परम प्रकाश रूप दिव्य पुरुष को
अर्थात परमेश्वर को ही प्राप्त होता है॥8॥


ध्यान – भगवद्‍गीता अध्याय – 9

ध्यान, नाम, कीर्तन, भक्ति, उपासना

सततं कीर्तयन्तो मां यतन्तश्च दृढ़व्रताः।
नमस्यन्तश्च मां भक्त्या नित्ययुक्ता उपासते॥

दृढ़ निश्चय वाले भक्तजन
निरंतर मेरे नाम और गुणों का कीर्तन करते हुए
तथा मेरी प्राप्ति के लिए यत्न करते हुए और
मुझको बार-बार प्रणाम करते हुए
सदा मेरे ध्यान में युक्त होकर
अनन्य प्रेम से मेरी उपासना करते हैं॥14॥


ध्यान – भगवद्‍गीता अध्याय – 10

ईश्वर में निरंतर ध्यान करने वालों को परमेश्वर क्या देते है?

तेषां सततयुक्तानां भजतां प्रीतिपूर्वकम्‌।
ददामि बद्धियोगं तं येन मामुपयान्ति ते॥

उन निरंतर मेरे ध्यान आदि में लगे हुए और
प्रेमपूर्वक भजने वाले भक्तों को मैं वह तत्त्वज्ञानरूप योग देता हूँ,
जिससे वे मुझको ही प्राप्त होते हैं॥10॥


ध्यान – भगवद्‍गीता अध्याय – 12

ईश्वर कौन से योगी को उत्तम योगी मानते है?

मय्यावेश्य मनो ये मां नित्ययुक्ता उपासते।
श्रद्धया परयोपेतास्ते मे युक्ततमा मताः॥

श्री भगवान बोले –
मुझमें मन को एकाग्र करके
निरंतर मेरे भजन-ध्यान में लगे हुए जो भक्तजन
अतिशय श्रेष्ठ श्रद्धा से युक्त होकर
मुझ सगुणरूप परमेश्वर को भजते हैं,
वे मुझको योगियों में अति उत्तम योगी मान्य हैं॥2॥


कौन सा पुरुष ईश्वर को प्राप्त होता है?

ये त्वक्षरमनिर्देश्यमव्यक्तं पर्युपासते।
सर्वत्रगमचिन्त्यं च कूटस्थमचलं ध्रुवम्‌॥
सन्नियम्येन्द्रियग्रामं सर्वत्र समबुद्धयः।
ते प्राप्नुवन्ति मामेव सर्वभूतहिते रताः॥

परन्तु जो पुरुष
इन्द्रियों के समुदाय को भली प्रकार वश में करके,

मन-बुद्धि से परे, सर्वव्यापी,
अकथनीय स्वरूप और सदा एकरस रहने वाले,

नित्य, अचल, निराकार, अविनाशी,
सच्चिदानन्दघन ब्रह्म को निरन्तर एकीभाव से ध्यान करते हुए भजते हैं,

वे सम्पूर्ण भूतों के हित में रत और
सबमें समान भाववाले योगी मुझको ही प्राप्त होते हैं॥3-4॥