आत्मा का स्वरुप – भगवद गीता



भगवद गीता में आत्मा के स्वरुप के इस लेख में, भगवान् कृष्ण ने आत्मा के बारे में अलग अलग अध्यायों में जो बातें कही है, उन्हें एक जगह दिया गया है। 

श्री कृष्ण ने आत्मा के स्वरुप के बारे में विस्तार से अध्याय 2 में अर्जुन को बताया था, जैसे की आत्मा न तो जन्मता है और न मरता है, यह अजन्मा और नित्य है, आदि। 

कुछ अन्य अध्यायों में भी जैसे की अध्याय 3, 10, 13 में भी भगवान ने आत्मा के बारे में कुछ बाते कही थी, वो भी निचे दी गयी हैं।  


आत्मा का स्वरुप – भगवद्‍गीता अध्याय – 2

य एनं वेत्ति हन्तारं
यश्चैनं मन्यते हतम्‌।
उभौ तौ न विजानीतो
नायं हन्ति न हन्यते॥

जो इस आत्मा को मारने वाला समझता है,
तथा जो इसको मरा मानता है,
वे दोनों ही नहीं जानते,
क्योंकि यह आत्मा वास्तव में न तो किसी को मारता है और
न किसी के द्वारा मारा जाता है॥19॥


न जायते म्रियते वा कदाचि- न्नायं
भूत्वा भविता वा न भूयः।
अजो नित्यः शाश्वतोऽयं
पुराणो- न हन्यते हन्यमाने शरीरे॥

यह आत्मा किसी काल में भी न तो जन्मता है और
न मरता ही है,
तथा न यह उत्पन्न होकर फिर होने वाला ही है,
क्योंकि यह अजन्मा, नित्य,
सनातन और पुरातन है,
शरीर के मारे जाने पर भी यह नहीं मारा जाता॥20॥


नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि
नैनं दहति पावकः।
न चैनं क्लेदयन्त्यापो
न शोषयति मारुतः॥

इस आत्मा को शस्त्र नहीं काट सकते,
इसको आग नहीं जला सकती,
इसको जल नहीं गला सकता और
वायु नहीं सुखा सकता॥23॥


अच्छेद्योऽयमदाह्योऽयम-
अक्लेद्योऽशोष्य एव च।
नित्यः सर्वगतः
स्थाणुरचलोऽयं सनातनः॥

क्योंकि यह आत्मा अच्छेद्य है,
यह आत्मा अदाह्य, अक्लेद्य और
निःसंदेह अशोष्य है,
तथा यह आत्मा नित्य, सर्वव्यापी,
अचल, स्थिर रहने वाला और सनातन है॥24॥


अव्यक्तोऽयमचिन्त्योऽयम-
अविकार्योऽयमुच्यते।
तस्मादेवं विदित्वैनं
नानुशोचितुमर्हसि॥॥

यह आत्मा अव्यक्त है, यह आत्मा अचिन्त्य है और
यह आत्मा विकाररहित कहा जाता है॥25॥


देही नित्यमवध्योऽयं
देहे सर्वस्य भारत।
तस्मात्सर्वाणि भूतानि
न त्वं शोचितुमर्हसि॥

हे अर्जुन!
यह आत्मा सबके शरीर में सदा ही अवध्य है,
अर्थात जिसका वध नहीं किया जा सकता॥30॥


आत्मा का स्वरुप – भगवद्‍गीता अध्याय – 3

इन्द्रियाणि पराण्याहुरिन्द्रियेभ्यः
परं मनः।
मनसस्तु परा बुद्धिर्यो
बुद्धेः परतस्तु सः॥

इन्द्रियों को स्थूल शरीर से पर
यानी श्रेष्ठ, बलवान और सूक्ष्म कहते हैं।

इन इन्द्रियों से पर मन है,
मन से भी पर बुद्धि है और
जो बुद्धि से भी अत्यन्त पर है वह आत्मा है॥42॥


आत्मा का स्वरुप – भगवद्‍गीता अध्याय – 10

अहमात्मा गुडाकेश
सर्वभूताशयस्थितः। अहमादिश्च मध्यं च
भूतानामन्त एव च॥

हे अर्जुन!
मैं सब भूतों के हृदय में स्थित सबका आत्मा हूँ
तथा संपूर्ण भूतों का आदि, मध्य और अंत भी मैं ही हूँ॥20॥


आत्मा का स्वरुप – भगवद्‍गीता अध्याय – 13

उपद्रष्टानुमन्ता च
भर्ता भोक्ता महेश्वरः।
परमात्मेति चाप्युक्तो
देहेऽस्मिन्पुरुषः परः॥

इस देह में स्थित यह आत्मा वास्तव में परमात्मा ही है।

वह साक्षी होने से उपद्रष्टा और
यथार्थ सम्मति देने वाला होने से अनुमन्ता,
सबका धारण-पोषण करने वाला होने से भर्ता,
जीवरूप से भोक्ता,
ब्रह्मा आदि का भी स्वामी होने से महेश्वर और
शुद्ध सच्चिदानन्दघन होने से परमात्मा – ऐसा कहा गया है॥22॥


प्रकृत्यैव च कर्माणि
क्रियमाणानि सर्वशः।
यः पश्यति तथात्मानमकर्तारं
स पश्यति॥

और जो पुरुष सम्पूर्ण कर्मों को
सब प्रकार से प्रकृति द्वारा ही किए जाते हुए देखता है और
आत्मा को अकर्ता देखता है,
वही यथार्थ देखता है॥29॥


यथा सर्वगतं सौक्ष्म्यादाकाशं
नोपलिप्यते।
सर्वत्रावस्थितो देहे
तथात्मा नोपलिप्यते॥

जिस प्रकार सर्वत्र व्याप्त आकाश सूक्ष्म होने के कारण लिप्त नहीं होता,
वैसे ही देह में सर्वत्र स्थित आत्मा
निर्गुण होने के कारण देह के गुणों से लिप्त नहीं होता॥32॥


यथा प्रकाशयत्येकः कृत्स्नं
लोकमिमं रविः।
क्षेत्रं क्षेत्री तथा कृत्स्नं
प्रकाशयति भारत॥

हे अर्जुन!
जिस प्रकार एक ही सूर्य
इस सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को प्रकाशित करता है,
उसी प्रकार एक ही आत्मा
सम्पूर्ण क्षेत्र को प्रकाशित करता है॥33॥


आत्मा का स्वरुप – भगवद्‍गीता अध्याय – 15

यतन्तो योगिनश्चैनं
पश्यन्त्यात्मन्यवस्थितम्‌।
यतन्तोऽप्यकृतात्मानो
नैनं पश्यन्त्यचेतसः॥

यत्न करने वाले योगीजन भी अपने हृदय में स्थित इस आत्मा को तत्त्व से जानते हैं,
किन्तु जिन्होंने अपने अन्तःकरण को शुद्ध नहीं किया है,
ऐसे अज्ञानीजन तो यत्न करते रहने पर भी इस आत्मा को नहीं जानते॥11॥


आत्मा का स्वरुप – भगवद्‍गीता अध्याय – 16

त्रिविधं नरकस्येदं
द्वारं नाशनमात्मनः।
कामः क्रोधस्तथा
लोभस्तस्मादेतत्त्रयं त्यजेत्‌॥

काम, क्रोध तथा लोभ –
ये तीन प्रकार के नरक के द्वार है
अर्थात ये सभी विकार आत्मा का नाश करने वाले और
उसको उसको अधोगति में ले जाने वाले हैं।

इसलिए, इन तीनों को त्याग देना चाहिए॥21॥

  • सर्व अनर्थों के मूल और नरक की प्राप्ति में हेतु होने से यहाँ काम, क्रोध और लोभ को नरक के द्वार कहा है।