कबीर के दोहे



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कबीर के दोहे – गुरु महिमा – अर्थ सहित


कबीरदास के दोहे

दु:ख में सुमिरन सब करै,
सुख में करै न कोय।
जो सुख में सुमिरन करै,
तो दु:ख काहे को होय॥

दु:ख में सुमिरन सब करै – मनुष्य ईश्वर को दुःख में याद करता है।
सुख में करै न कोय – सुख में ईश्वर को भूल जाते है
जो सुख में सुमिरन करै – यदि सुख में भी इश्वर को याद करे
तो दु:ख काहे को होय – तो दुःख निकट आएगा ही नहीं


गुरु गोविंद दोऊँ खड़े,
काके लागूं पाँय।
बलिहारी गुरु आपने,
गोविंद दियो बताय॥

गुरु गोविंद दोऊ खड़े – गुरु और गोविन्द (भगवान) दोनों एक साथ खड़े है
काके लागूं पाँय – पहले किसके चरण-स्पर्श करें (प्रणाम करे)?
बलिहारी गुरु – कबीरदासजी कहते है, पहले गुरु को प्रणाम करूँगा
आपने गोविन्द दियो बताय – क्योंकि, आपने (गुरु ने) गोविंद तक पहुचने का मार्ग बताया है।


लूट सके तो लूट ले,
राम नाम की लूट।
पाछे फिर पछ्ताओगे,
प्राण जाहिं जब छूट॥

लूट सके तो लूट ले – अगर लूट सको तो लूट लो
राम नाम की लूट – अभी राम नाम की लूट है,
अभी समय है, तुम भगवान का जितना नाम लेना चाहते हो ले लो
पाछे फिर पछ्ताओगे – यदि नहीं लुटे तो बाद में पछताना पड़ेगा
प्राण जाहिं जब छूट – जब प्राण छुट जायेंगे


सतगुरू की महिमा अनंत,
अनंत किया उपकार।
लोचन अनंत उघाडिया,
अनंत दिखावणहार॥

सतगुरु महिमा अनंत है – सतगुरु की महिमा अनंत हैं
अनंत किया उपकार – उन्होंने मुझ पर अनंत उपकार किये है
लोचन अनंत उघारिया – उन्होंने मेरे ज्ञान के चक्षु (अनन्त लोचन) खोल दिए
अनंत दिखावन हार – और मुझे अनंत (ईश्वर) के दर्शन करा दिए।


कामी क्रोधी लालची,
इनसे भक्ति ना होय।
भक्ति करै कोई सूरमा,
जादि बरन कुल खोय॥

कामी क्रोधी लालची
कामी – विषय वासनाओ में लिप्त रहता है,
क्रोधी – दुसरो से द्वेष करता है
लालची – निरंतर संग्रह करने में व्यस्त रहता है
इनते भक्ति न होय – इन लोगो से भक्ति नहीं हो सकती
भक्ति करै कोई सूरमा – भक्ति तो कोई शूरवीर (सुरमा) ही कर सकता है,
जादि बरन कुल खोय – जो जाति, वर्ण, कुल और अहंकार का त्याग कर सकता है


कहैं कबीर देय तू,
जब लग तेरी देह।
देह खेह हो जायगी,
कौन कहेगा देह॥

कहैं कबीर देय तू – कबीर कहते हैं, दान-पुण्य करते रहो,
जब लग तेरी देह – जब तक शरीर (देह) में प्राण हैं
देह खेह हो जायगी – जब यह शरीर धुल में मिल जाएगा (मृत्यु के बाद पंच तत्व में मिल जाएगा)
खेह – धूल, राख, धूल मिट्टी
कौन कहेगा देह – तब दान का अवसर नहीं मिलेगा
इसलिए मनुष्य ने जब तक शरीर में प्राण है तब तक दान अवश्य करना चाहिए


माया मरी न मन मरा,
मर मर गये शरीर।
आशा तृष्णा ना मरी,
कह गये दास कबीर॥

माया मरी न मन मरा – न माया मरी और ना मन मरा
मर मर गये शरीर – सिर्फ शरीर ही बार बार जन्म लेता है और मरता है
आशा तृष्णा ना मरी – क्योंकि मनुष्य की आशा और तृष्णा नष्ट नहीं होती
तृष्णा – craving, greed – लालच, लोभ, तीव्र इच्छा
कह गये दास कबीर – कबीर दास जी कहते हैं
आशा और तृष्णा जैसे विकारों से मुक्त हुए बिना मनुष्य को जन्म-मृत्यु के चक्र से छुटकारा नहीं मिल सकता


माला फेरत जुग गया,
मिटा न मन का फेर।
कर का मनका डारि दे,
मन का मनका फेर॥

माला फेरत जुग गया – कबीरदासजी कहते है की तुमने हाथ में माला लेकर फेरते हुए कई वर्ष बिता दिए
मिटा न मन का फेर – फिर भी मन को शांत न कर सके
संसार के विषयो के प्रति मोह और आसक्ति को ना मिटा सके
कर का मनका डारि दे – इसलिए हाथ (कर) की माला (मनका) को छोड़कर
मन का मनका फेर – मन को ईश्वर के ध्यान में लगाओ.
मन का मनका – मन में इश्वर के नाम की माला, मन से ईश्वर को याद करना


कबीर ते नर अन्ध हैं,
गुरु को कहते और।
हरि के रुठे ठौर है,
गुरु रुठे नहिं ठौर॥

कबीर ते नर अन्ध हैं – संत कबीर कहते है की वे मनुष्य नेत्रहीन (अन्ध) के समान है
गुरु को कहते और – जो गुरु के महत्व को नहीं जानते
हरि के रुठे ठौर है – भगवान के रूठने पर मनुष्य को स्थान (ठौर) मिल सकता है
गुरु रुठे नहिं ठौर – लेकिन, गुरु के रूठने पर कही स्थान नहीं मिल सकता


दरशन कीजै साधु का,
दिन में कइ कइ बार।
आसोजा का भेह ज्यों,
बहुत करे उपकार॥

दरशन कीजै साधु का – संतो के दर्शन
दिन में कइ कइ बार – दिन में बार-बार करो
जब भी अवसर मिले, साधू-संतो के दर्शन करे
आसोजा का भेह ज्यों – जैसे आश्विन महीने की वर्षा
बहुत करे उपकार – फसल के लिए फायदेमंद है
वैसे ही संतो के दर्शन मनुष्य के लिए बहुत ही हितकारी है


बार-बार नहिं करि सके,
पाख-पाख करि लेय।
कहैं कबीर सो भक्त जन,
जन्म सुफल करि लेय॥

बार-बार नहिं करि सके – यदि साधू-संतो के दर्शन बार बार न हो पाते हो, तो
पाख-पाख करिलेय – पंद्रह दिन में एक बार अवश्य कर ले
कहैं कबीर सो भक्त जन – कबीरदासजी कहते है की, ऐसे भक्तजन
जो नित्य संतो के दर्शन करता है और उनकी वाणी सुनता है
जन्म सुफल करि लेय – भक्ति मार्ग पर आगे बढ़ता हुआ अपना जन्म सफल कर लेता है


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कबीर के दोहे – गुरु महिमा – अर्थ सहित


आया था किस काम को,
तु सोया चादर तान।
सुरत सम्भाल ए गाफिल,
अपना आप पहचान॥

साईं इतना दीजिये,
जा मे कुटुम समाय।
मैं भी भूखा न रहूँ,
साधु ना भूखा जाय॥

तिनका कबहुँ ना निंदये,
जो पाँव तले होय।
कबहुँ उड़ आँखो पड़े,
पीर घानेरी होय॥

बडा हुआ तो क्या हुआ,
जैसे पेड़ खजूर।
पंथी को छाया नही,
फल लागे अति दूर॥

आय हैं सो जाएँगे,
राजा रंक फकीर।
एक सिंहासन चढ़ि चले,
एक बँधे जात जंजीर॥

काल करे सो आज कर,
आज करे सो अब।
पल में प्रलय होएगी,
बहुरि करेगा कब॥

गुरु गोबिंद दोऊ खड़े,
का के लागूं पाय।
बलिहारी गुरु आपणे,
गोबिंद दियो मिलाय॥

धीरे-धीरे रे मना,
धीरे सब कुछ होय।
माली सींचे सौ घड़ा,
ॠतु आए फल होय॥

जाति न पूछो साधु की,
पूछि लीजिए ज्ञान।
मोल करो तलवार का,
पड़ा रहन दो म्यान॥

दुर्लभ मानुष जन्म है,
देह न बारम्बार।
तरुवर ज्यों पत्ती झड़े,
बहुरि न लागे डार॥