दुर्गा सप्तशती अध्याय की लिस्ट – Index
दुर्गा सप्तशती अध्याय 11 के मुख्य प्रसंग
- भुवनेश्वरी देवी का ध्यान मंत्र
- माँ दुर्गा की शक्तियों का वर्णन
- माँ जगदम्बा के स्वरूपों का वर्णन
- सभी विपदाओं से रक्षा के लिए, देवी माँ से प्रार्थना
- देवी माँ का, देवताओं से, वर मांगने के लिए कहना
- देवी माँ ने, भविष्य में होने वाले, कुछ अवतारों के बारें में बताया
1. दुर्गा सप्तशती अध्याय ग्यारह का ध्यान
भुवनेश्वरी देवी का, ग्यारहवे अध्याय का, ध्यान मन्त्र
॥ध्यानम्॥
ॐ बालरविद्युतिमिन्दुकिरीटां तुङ्गकुचां नयनत्रययुक्ताम्।
स्मेरमुखीं वरदाङ्कुशपाशाभीतिकरां प्रभजे भुवनेशीम्॥
ध्यान
- मैं भुवनेश्वरी देवीका,
- ध्यान करता (करती) हूँ ।
- उनके श्रीअंगोकी आभा,
- प्रभातकालके सूर्यके समान है और
- मस्तकपर चन्द्रमाका मुकुट है और
- तीन नेत्रोंसे युक्त हैं।
- उनके मुखपर मुस्कानकी छटा छायी रहती है, और
- हाथोंमें वरद, अंकुश, पाश एवं
- अभय-मुद्रा शोभा पाते हैं।
ऊं नमश्चंडिकायैः नमः
देवताओं द्वारा, माँ दुर्गा की शक्तियों का वर्णन
1 – 2.
इंद्र आदि देवताओं द्वारा देवी की स्तुति
ॐ ऋषिरुवाच॥१॥
देव्या हते तत्र महासुरेन्द्रे
सेन्द्राः सुरा वह्निपुरोगमास्ताम्।
कात्यायनीं तुष्टुवुरिष्टलाभाद्
विकाशिवक्त्राब्जविकाशिताशाः॥२॥
- ऋषि कहते हैं –
- देवी के द्वारा,
- महादैत्यपति शुम्भ के मारे जाने पर,
- इंद्र आदि देवता अग्नि को आगे करके,
- उन कात्यायनी देवी की स्तुति करने लगे।
- उस समय अभीष्ट की प्राप्ति होने से,
- उनके मुखकमल दमक उठे थे और
- उनके प्रकाश से,
- दिशाएं भी जगमगा उठी थीं।
3.
जगत की माता, सृष्टि की रचना और रक्षा करने वाली माँ जगदम्बा
देवि प्रपन्नार्तिहरे प्रसीद
प्रसीद मातर्जगतोऽखिलस्य।
प्रसीद विश्वेश्वरि पाहि विश्वं
त्वमीश्वरी देवि चराचरस्य॥३॥
- देवता बोले –
- शरणागत की पीड़ा दूर करने वाली देवि!
- हम पर प्रसन्न हो।
- सम्पूर्ण जगत की माता!
- प्रसन्न होऒ।
- विश्वेश्वरि!
- विश्व की रक्षा करो।
- देवि!
- तुम्हीं चराचर जगत की अधीश्वरी हो।
4.
जगत का आधार, पृथ्वीरूप, जलरूप
आधारभूता जगतस्त्वमेका
महीस्वरूपेण यतः स्थितासि।
अपां स्वरूपस्थितया त्वयैत-
दाप्यायते कृत्स्नमलङ्घ्यवीर्ये॥४॥
- तुम इस जगत का एकमात्र आधार हो,
- क्योंकि पृथ्वी रूप में तुम्हारी ही स्थिति है।
- देवि!
- तुम्हारा पराक्रम अलंघनीय है।
- तुम्हीं जलरूप में स्थित होकर,
- सम्पूर्ण जगत को तृप्त करती हो।
5.
मोक्ष प्रदान करने वाली, वैष्णवी शक्ति
त्वं वैष्णवी शक्तिरनन्तवीर्या
विश्वस्य बीजं परमासि माया।
सम्मोहितं देवि समस्तमेतत्
त्वं वै प्रसन्ना भुवि मुक्तिहेतुः॥५॥
- तुम अनंत बल सम्पन्न,
- वैष्णवी शक्ति हो।
- इस विश्व की कारण,
- भूता, परा माया हो।
- देवि!
- तुमने इस समस्त जगत को,
- मोहित कर रखा है।
- तुम्हीं प्रसन्न होने पर,
- इस पृथ्वी को मोक्ष की प्राप्ति कराती हो।
6.
विश्व की कारण और परमबुद्धि स्वरूप
विद्याः समस्तास्तव देवि भेदाः
स्त्रियः समस्ताः सकला जगत्सु।
त्वयैकया पूरितमम्बयैतत्
का ते स्तुतिः स्तव्यपरा परोक्तिः॥६॥
- देवि!
- सम्पूर्ण विद्याएं,
- तुम्हारे ही भिन्न-भिन्न स्वरूप हैं।
- जगत में जितनी स्त्रियां हैं,
- वे सब तुम्हारी ही मूतियां हैं।
- जगदम्बा!
- एकमात्र तुमने ही,
- इस विश्व को व्याप्त कर रखा है।
- तुम्हारी स्तुति क्या हो सकती है?
- तुम तो स्तुति करने योग्य पदार्थों से परे एवं,
- परा वाणी (परमबुद्धि स्वरूपा) हो।
7.
मोक्ष और स्वर्ग प्रदान करने वाली सर्वस्वरूपा देवी
सर्वभूता यदा देवी स्वर्गमुक्तिप्रदायिनी।
त्वं स्तुता स्तुतये का वा भवन्तु परमोक्तयः॥७॥
- जब तुम सर्वस्वरूपा देवी,
- स्वर्ग तथा मोक्ष,
- प्रदान करने वाली हो,
- तब इसी रूप में,
- तुम्हारी स्तुति हो गई।
- तुम्हारी स्तुति के लिए,
- इससे अच्छी उक्तियां,
- और क्या हो सकती हैं?
8.
सभी जीवों के हृदय में, बुद्धि स्वरूप नारायणी देवी
सर्वस्य बुद्धिरूपेण जनस्य हृदि संस्थिते।
स्वर्गापवर्गदे देवि नारायणि नमोऽस्तु ते॥८॥
- बुद्धिरूप से,
- सब लोगों के हृदय में,
- विराजमान रहने वाली तथा
- स्वर्ग एवं मोक्ष प्रदान करने वाली,
- नारायणी देवि!
- तुम्हें नमस्कार है।
9.
सृष्टि की रचना, परिवर्तन और उपसंहार करने वाली
कलाकाष्ठादिरूपेण परिणामप्रदायिनि।
विश्वस्योपरतौ शक्ते नारायणि नमोऽस्तु ते॥९॥
- कला, काष्ठा आदि के रूप से,
- क्रमश: परिणाम अर्थात
- अवस्था परिवर्तन की ऒर,
- ले जाने वाली तथा
- विश्व का,
- उपसंहार करने में समर्थ नारायणी!
- तुम्हें नमस्कार है।
- उपसंहार अर्थात –
- समापन,
- समाप्ति, अंत
- किसी रचना या कृति का अंतिम निष्कर्ष
10.
मंगलमयी और शरणागत भक्तों पर दया करने वाली
सर्वमङ्गलमंङ्गल्ये शिवे सर्वार्थसाधिके।
शरण्ये त्र्यम्बके गौरि नारायणि नमोऽस्तु ते॥१०॥
- नारायणी!
- तुम सब प्रकार का,
- मंगल प्रदान करने वाली,
- मंगलमयी हो।
- कल्याणदायिनी शिवा हो,
- सब पुरुषार्थों को सिद्ध करनेवाली,
- शरणागत वत्सला,
- तीन नेत्रों वाली एवं
- गौरी हो।
- तुम्हें नमस्कार है।
11.
सर्वगुणमयी – सृष्टि की रचना, पालन और संहार की शक्ति
सृष्टिस्थितिविनाशानां शक्तिभूते सनातनि।
गुणाश्रये गुणमये नारायणि नमोऽस्तु ते॥११॥
- तुम सृष्टि, पालन और
- संहार की शक्तिभूता,
- सनातनी देवी,
- गुणोंका आधार तथा
- सर्वगुणमयी हो।
- नारायणि! तुम्हें नमस्कार है।
12.
भक्तों के दुःख और पीड़ा दूर करने वाली
शरणागतदीनार्तपरित्राणपरायणे।
सर्वस्यार्तिहरे देवि नारायणि नमोऽस्तु ते॥१२॥
- शरण में आए हुए,
- दीनों एवं पीडि़तों की रक्षा में,
- संलग्न रहने वाली तथा
- सबकी पीड़ा दूर करने वाली नारायणी देवी!
- तुम्हें नमस्कार है।
अब देवताओं द्वारा, माँ जगदम्बा के स्वरुप का वर्णन
13.
ब्रम्हाणी रूप में – हंसों के विमान पर बैठी हुई
हंसयुक्तविमानस्थे ब्रह्माणीरूपधारिणि।
कौशाम्भःक्षरिके देवि नारायणि नमोऽस्तु ते॥१३॥
- नारायणि!
- तुम ब्रह्माणी का रूप धारण करके,
- हंसों से जुते हुए विमान पर बैठती तथा
- कुश-मिश्रित जल छिड़कती रहती हो।
- तुम्हें नमस्कार है।
14.
माहेश्वरी रूप में – त्रिशूल और चंद्रमा धारण करने वाली
त्रिशूलचन्द्राहिधरे महावृषभवाहिनि।
माहेश्वरीस्वरूपेण नारायणि नमोऽस्तु ते॥१४॥
- माहेश्वरी रूप से त्रिशूल, चंद्रमा एवं
- सर्प को धारण करने वाली तथा
- महान वृषभ की पीठ पर बैठने वाली नारायणी देवी!
- तुम्हें नमस्कार है।
15.
महाशक्ति धारण करने वाली नारायणी देवी
मयूरकुक्कुटवृते महाशक्तिधरेऽनघे।
कौमारीरूपसंस्थाने नारायणि नमोऽस्तु ते॥१५॥
- मोरों से घिरी रहने वाली तथा
- महाशक्ति धारण करने वाली,
- कौमारी रूपधारिणी,
- निष्पापे नारायणि!
- तुम्हें नमस्कार है।
16.
वैष्णवी रूप में – शंख, चक्र, गदा और धनुष धारण करने वाली
शङ्खचक्रगदाशाङ्र्गगृहीतपरमायुधे।
प्रसीद वैष्णवीरूपे नारायणि नमोऽस्तु ते॥१६॥
- शङ्ख, चक्र, गदा और
- धनुषरूप उत्तम आयुधों को धारण करने वाली,
- वैष्णवी शक्ति रूपा नारायणि!
- तुम प्रसन्न होऒ। तुम्हें नमस्कार है।
17.
वाराही रूप में – महाचक्र धारण करने वाली
गृहीतोग्रमहाचक्रे दंष्ट्रोद्धृतवसुंधरे।
वराहरूपिणि शिवे नारायणि नमोऽस्तु ते॥१७॥
- हाथ में भयानक महाचक्र लिए और
- दाढ़ों पर धरती को उठाए,
- वाराही रूपधारिणी
- कल्याणमयी नारायणि!
- तुम्हें नमस्कार है।
18.
नृसिंह रूप में – दैत्यों का संहार करके जगत की रक्षा करने वाली
नृसिंहरूपेणोग्रेण हन्तुं दैत्यान् कृतोद्यमे।
त्रैलोक्यत्राणसहिते नारायणि नमोऽस्तु ते॥१८॥
- भयंकर नृसिंहरूप से,
- दैत्यों के वध के लिए,
- उद्योग करने वाली तथा
- त्रिभुवन की रक्षा में,
- संलग्न रहने वाली नारायणि!
- तुम्हें नमस्कार है।
19.
शक्ति स्वरूप – हाथ में महावज्र, माथे पर किरीट और सहस्त्र नेत्र
किरीटिनि महावज्रे सहस्रनयनोज्ज्वले।
वृत्रप्राणहरे चैन्द्रि नारायणि नमोऽस्तु ते॥१९॥
- किरीट अर्थात
- मुकुट के रूप में धारण किया जाने वाला अलंकार
- मुकुट, अर्धचंद्र के आकार का
- मस्तक पर किरीट और
- हाथ में महावज्र धारण करने वाली,
- सहस्र नेत्रों के कारण,
- उद्दीप्त दिखायी देने वाली और
- वृत्रासुरके प्राण हरने वाली
- इंद्रशक्तिस्वरूपा नारायणी देवि!
- तुम्हें नमस्कार है।
20.
शिवदूती रूप में – राक्षसों के संहार के लिए भयंकर रूप धारण करने वाली
शिवदूतीस्वरूपेण हतदैत्यमहाबले।
घोररूपे महारावे नारायणि नमोऽस्तु ते॥२०॥
- शिवदूती रूपसे,
- दैत्यों की सेना का संहार करनेवाली,
- भयंकर रूप धारण तथा
- विकट गर्जना करनेवाली नारायणि!
- तुम्हें नमस्कार है।
21.
चामुण्डा रूप में – चण्ड, मुण्ड राक्षसों का वध करने वाली
दंष्ट्राकरालवदने शिरोमालाविभूषणे।
चामुण्डे मुण्डमथने नारायणि नमोऽस्तु ते॥२१॥
- दाढ़ों के कारण विकराल मुखवाली,
- मुंडमाला से विभूषित,
- मुंडमर्दिनी चामुंडारूपा नारायणि!
- तुम्हें नमस्कार है।
22.
महाविद्या, लक्ष्मी, पुष्टि और श्रद्धा स्वरुप
लक्ष्मि लज्जे महाविद्ये श्रद्धे पुष्टिस्वधे ध्रुवे।
महारात्रि महाऽविद्ये नारायणि नमोऽस्तु ते॥२२॥
- लक्ष्मी, लज्जा, महाविद्या,
- श्रद्धा, पुष्टि, स्वधा, ध्रुवा तथा
- महारात्रि नारायणि!
- तुम्हें नमस्कार है।
- पुष्टि अर्थात
- दृढ़ता, मजबूती
- पोषण।
23.
अधीश्वरी रूप में – महाकाली, पार्वती, सरस्वती, ऐश्वर्य स्वरुप
मेधे सरस्वति वरे भूति बाभ्रवि तामसि।
नियते त्वं प्रसीदेशे नारायणि नमोऽस्तु ते॥२३॥
- मेधा, सरस्वती, श्रेष्ठा, ऐश्वर्यरूपा,
- पार्वती, महाकाली, नियता तथा
- ईशा – सबकी अधीश्वरी रूपिणी नारायणि!
- तुम्हें नमस्कार है।
- अधीश्वर – अधीश्वरी अर्थात
- मालिक
- स्वामी
सभी विपदाओं से रक्षा के लिए, देवी माँ से प्रार्थना
24.
माँ दुर्गा – सब प्रकारके भयों से, हमारी रक्षा करों
सर्वस्वरूपे सर्वेशे सर्वशक्तिसमन्विते।
भयेभ्यस्त्राहि नो देवि दुर्गे देवि नमोऽस्तु ते॥२४॥
- सर्वस्वरूपा, सर्वेश्वरी तथा
- सब प्रकार की शक्तियों से सम्पन्न,
- दिव्यरूपा दुर्गे देवि!
- सब भयों से हमारी रक्षा करो।
- तुम्हें नमस्कार है।
25.
कात्यायनी देवी – भय से, हमारी रक्षा करों
एतत्ते वदनं सौम्यं लोचनत्रयभूषितम्।
पातु नः सर्वभीतिभ्यः कात्यायनि नमोऽस्तु ते॥२५॥
- हे कात्यायनी!
- यह तीन लोचनों से विभूषित,
- तुम्हारा सौम्य मुख,
- सब प्रकारके भयों से,
- हमारी रक्षा करे।
- तुम्हें नमस्कार है।
26.
माँ भद्रकाली – आपका त्रिशूल, हमें भय से बचाएं
ज्वालाकरालमत्युग्रमशेषासुरसूदनम्।
त्रिशूलं पातु नो भीतेर्भद्रकालि नमोऽस्तु ते॥२६॥
- भद्रकाली!
- ज्वालाऒंके कारण,
- विकराल प्रतीत होने वाला,
- अत्यंत भयंकर और
- समस्त असुरों का संहार करने वाला,
- तुम्हारा त्रिशूल,
- भयसे हमें बचाए।
- तुम्हें नमस्कार है।
27.
दैत्यों का तेज़ नष्ट करने वाला घंटा, पापों से, हमारी रक्षा करें
हिनस्ति दैत्यतेजांसि स्वनेनापूर्य या जगत्।
सा घण्टा पातु नो देवि पापेभ्योऽनः सुतानिव॥२७॥
- देवि!
- तुम्हारा घंटा,
- जो अपनी ध्वनि से,
- समूचे जगत को व्याप्त करके,
- दैत्यों के तेज नष्ट करता है,
- हम लोगों की पापों से,
- उसी प्रकार रक्षा करे,
- जैसे, माता अपने पुत्रों की,
- बुरे कर्मों से रक्षा करती है।
28.
चंडिका देवी – आपके हाथ का खडग, हमारी रक्षा करें
असुरासृग्वसापङ्कचर्चितस्ते करोज्ज्वलः।
शुभाय खड्गो भवतु चण्डिके त्वां नता वयम्॥२८॥
- चंडिके!
- तुम्हारे हाथों में सुशोभित खड्ग,
- जो असुरों के रक्त और
- चर्बीसे चर्चित है,
- हमारा मंगल करे।
- हम तुम्हें नमस्कार करते हैं।
29.
माँ जगदम्बा – सब प्रकार के रोगों से, हमारी रक्षा करों
रोगानशेषानपहंसि तुष्टा
रुष्टा तु कामान् सकलानभीष्टान्।
त्वामाश्रितानां न विपन्नराणां
त्वामाश्रिता ह्याश्रयतां प्रयान्ति॥२९॥
- देवि!
- तुम प्रसन्न होनेपर,
- सब रोगों को,
- नष्ट कर देती हो और
- कुपित होने पर,
- मनोवांछित सभी कामनाऒं का,
- नाश कर देती हो।
देवी माँ की शरण में जाने का फायदा
- जो लोग,
- तुम्हारी शरण में जा चुके हैं,
- उन पर,
- विपत्ति तो आती ही नहीं।
- तुम्हारी शरण में गए हुए मनुष्य,
- दूसरों को,
- शरण देने वाले हो जाते हैं।
30.
माँ अम्बिका – आपके विभिन्न रूपों ने, दैत्यों से, हमारी रक्षा की है
एतत्कृतं यत्कदनं त्वयाद्य
धर्मद्विषां देवि महासुराणाम्।
रूपैरनेकैर्बहुधाऽऽत्ममूर्तिं
कृत्वाम्बिके तत्प्रकरोति कान्या॥३०॥
- देवि! अम्बिके!
- तुमने अपने स्वरूप को,
- अनेक भागों में विभक्त करके,
- नाना प्रकार के रूपों से,
- जो इस समय,
- इन धर्मद्रोही महादैत्यों का,
- संहार किया है,
- वह सब,
- और दुसरा कौन कर सकता था?
31.
वेदों में, शास्त्रों में, सभी विद्याओं में, देवी माँ का ही वर्णन
विद्यासु शास्त्रेषु विवेकदीपे-
ष्वाद्येषु वाक्येषु च का त्वदन्या।
ममत्वगर्तेऽतिमहान्धकारे
विभ्रामयत्येतदतीव विश्वम्॥३१॥
- विद्यओंमें,
- ज्ञानको प्रकाशित करने वाले शास्त्रोंमें तथा
- अदिवाक्यों में (वेदों में),
- तुम्हारे सिवा,
- और किसका वर्णन है?
32.
शत्रु, राक्षस और दानवों से विश्व की रक्षा करने वाली
रक्षांसि यत्रोग्रविषाश्च नागा
यत्रारयो दस्युबलानि यत्र।
दावानलो यत्र तथाब्धिमध्ये
तत्र स्थिता त्वं परिपासि विश्वम्॥३२॥
- जहां राक्षस, भयंकर विषैले सर्प,
- शत्रुगण, लुटेरों की सेना और
- दावानल हो वहां, तथा
- समुद्र के बीच में भी साथ रहकर,
- तुम विश्व की रक्षा करती हो।
33.
विश्वरूपा, विश्वेश्वरि, विश्व का पालन करने वाली
विश्वेश्वरि त्वं परिपासि विश्वं
विश्वात्मिका धारयसीति विश्वम्।
विश्वेशवन्द्या भवती भवन्ति
विश्वाश्रया ये त्वयि भक्तिनम्राः॥३३॥
- विश्वेश्वरि!
- तुम विश्व का पालन करती हो।
- विश्वरूपा हो,
- इसलिए संपूर्ण विश्व को धारण करती हो।
- तुम भगवान विश्वनाथ की भी वंदनीया हो।
- जो लोग भक्तिपूर्वक,
- तुम्हारे सामने मस्तक झुकाते हैं,
- वे सम्पूर्ण विश्व को,
- आश्रय देने वाले होते हैं।
34.
देवी माँ – शत्रुओं के भय से हमें बचाओं
देवि प्रसीद परिपालय नोऽरिभीते-
र्नित्यं यथासुरवधादधुनैव सद्यः।
पापानि सर्वजगतां प्रशमं नयाशु
उत्पातपाकजनितांश्च महोपसर्गान्॥३४॥
- देवि! प्रसन्न होओ।
- जैसे इस समय,
- असुरों का वध करके,
- तुमने शीघ्र ही हमारी रक्षा की है,
- उसी प्रकार,
- सदा हमें शत्रुऒं के भय से बचाऒ।
हे देवी माँ, हमारे सब पाप नष्ट कर दो
- सम्पूर्ण जगत का पाप,
- नष्ट कर दो।
- पापों के फलस्वरूप,
- प्राप्त होने वाले,
- महामारी आदि,
- बड़े-बड़े उपद्रवों को,
- शीघ्र दूर करो।
35.
देवी माँ – विश्व की पीड़ा हरने वाली
प्रणतानां प्रसीद त्वं देवि विश्वार्तिहारिणि।
त्रैलोक्यवासिनामीड्ये लोकानां वरदा भव॥३५॥
- विश्व की पीड़ा दूर करने वाली देवि!
- हम तुम्हारे चरणों पर पड़े हैं,
- हम पर प्रसन्न होओ।
- त्रिलोक निवासियों की पूजनीया परमेश्वरि!
- सब लोगों को वरदान दो।
देवी माँ ने, भविष्य में होने वाले, कुछ अवतारों के बारें में बताया
36 – 37.
देवी माँ ने, देवताओं से, संसार के लिए उपकारक वर, मांगने के लिए कहा
देव्युवाच॥३६॥
वरदाहं सुरगणा वरं यन्मनसेच्छथ।
तं वृणुध्वं प्रयच्छामि जगतामुपकारकम्॥३७॥
- देवी बोलीं – देवताऒ!
- मैं वर देने को तैयार हूं।
- तुम्हारे मन में,
- जिसकी इच्छा हो,
- वह वर मांग लो।
- संसार के लिए,
- उस उपकारक वर को,
- मैं अवश्य दूंगी।
38 – 39.
देवता, माँ भवानी से, जगतकी सभी बाधाएं दूर करने की विनती करते है
देवा ऊचुः॥३८॥
सर्वाबाधाप्रशमनं त्रैलोक्यस्याखिलेश्वरि।
एवमेव त्वया कार्यमस्मद्वैरिविनाशनम्॥३९॥
- देवता बोले- सर्वेश्वरि!
- तुम इसी प्रकार,
- तीनों लोकों की,
- समस्त बाधाऒं को शांत करो और
- हमारे शत्रुऒं का नाश करती रहो।
40 – 41.
अठाईसवें युग में शुम्भ – निशुम्भ राक्षस
देव्युवाच॥४०॥
वैवस्वतेऽन्तरे प्राप्ते अष्टाविंशतिमे युगे।
शुम्भो निशुम्भश्चैवान्यावुत्पत्स्येते महासुरौ॥४१॥
- देवी बोलीं – देवताऒ!
- वैवस्वत मन्वंतर के अठाईसवें युग में,
- शुम्भ और निशुम्भ नाम के दो अन्य,
- महादैत्य उत्पन्न होंगे।
42.
शुम्भ – निशुम्भ राक्षसों के वध के लिए देवी का अवतार
नन्दगोपगृहे जाता यशोदागर्भसम्भवा।
ततस्तौ नाशयिष्यामि विन्ध्याचलनिवासिनी॥४२॥
- तब मैं नंदगोपके घर में,
- उनकी पत्नी यशोदाके गर्भ से अवतीर्ण हो,
- विंध्यांचल में जाकर रहूंगी और
- उक्त दोनों असुरों का नाश करूंगी।
43.
वैप्रचिति असुर के संहार के लिए देवी का अवतार
पुनरप्यतिरौद्रेण रूपेण पृथिवीतले।
अवतीर्य हनिष्यामि वैप्रचित्तांस्तु दानवान्॥४३॥
- फिर अत्यंत भयंकर रूप से,
- पृथ्वी पर अवतार लेकर,
- मैं वैप्रचिति नामक दानवों का वध करूंगी।
44.
भयंकर राक्षसों का संहार और उनका भक्षण
भक्षयन्त्याश्च तानुग्रान् वैप्रचित्तान्महासुरान्।
रक्ता दन्ता भविष्यन्ति दाडिमीकुसुमोपमाः॥४४॥
- उन भयंकर महादैत्यों को,
- भक्षण करते समय,
- मेरे दांत अनारके फूल की भांति,
- लाल हो जाएंगे।
45.
देवी का रक्तदंतिका नाम
ततो मां देवताः स्वर्गे मर्त्यलोके च मानवाः।
स्तुवन्तो व्याहरिष्यन्ति सततं रक्तदन्तिकाम्॥४५॥
- तब स्वर्ग में देवता और
- मर्त्यलोक में मनुष्य,
- सदा मेरी स्तुति करते हुए,
- मुझे “रक्तदंतिका” कहेंगे।
46.
पृथ्वी पर वर्षा और जल के अभाव के समय – अयोनिजारूप
भूयश्च शतवार्षिक्यामनावृष्ट्यामनम्भसि।
मुनिभिः संस्तुता भूमौ सम्भविष्याम्ययोनिजा॥४६॥
- फिर जब पृथ्वी पर,
- सौ वर्षों के लिए वर्षा रुक जाएगी और
- पानी का अभाव हो जाएगा,
- उस समय मुनियों के स्तवन करने पर,
- मैं पृथ्वी पर,
- अयोनिजारूप में प्रकट होऊंगी।
47.
देवी का शताक्षी नाम
ततः शतेन नेत्राणां निरीक्षिष्यामि यन्मुनीन्।
कीर्तयिष्यन्ति मनुजाः शताक्षीमिति मां ततः॥४७॥
- और सौ नेत्रों से मुनियों को देखूंगी।
- अत: मनुष्य “शताक्षी” नाम से,
- मेरा कीर्तन करेंगे।
48.
जल के अभाव के समय, देवी द्वारा, सबका भरण पोषण और प्राणों की रक्षा
ततोऽहमखिलं लोकमात्मदेहसमुद्भवैः।
भरिष्यामि सुराः शाकैरावृष्टेः प्राणधारकैः॥४८॥
- देवताऒ!
- उस समय मैं अपने शरीर से,
- उपन्न हुए शाकों द्वारा,
- समस्त संसार का,
- भरण-पोषण करूंगी।
- जब तक वर्षा नहीं होगी,
- तब तक वे शाक ही,
- सबके प्राणों की रक्षा करेंगे।
49.
देवी का शाकम्भरी नाम
शाकम्भरीति विख्यातिं तदा यास्याम्यहं भुवि।
तत्रैव च वधिष्यामि दुर्गमाख्यं महासुरम्॥४९॥
- ऐसा करने के कारण पृथ्वी पर,
- “शाकम्भरी” के नाम से मेरी ख्याति होगी।
- उसी अवतार में मैं,
- दुर्गम नामक महादैत्य का,
- वध भी करूंगी।
50 – 51.
दुर्गम नामक महादैत्य का वध करने के कारण, देवी का दुर्गा देवी नाम
दुर्गा देवीति विख्यातं तन्मे नाम भविष्यति।
पुनश्चाहं यदा भीमं रूपं कृत्वा हिमाचले॥५०॥
रक्षांसि भक्षयिष्यामि मुनीनां त्राणकारणात्।
तदा मां मुनयः सर्वे स्तोष्यन्त्यानम्रमूर्तयः॥५१॥
- इससे मेरा नाम,
- “दुर्गा देवी” के रूप से प्रसिद्ध होगा।
- फिर मैं जब भीम रूप धारण करके,
- मुनियों की रक्षाके लिए,
- हिमालय पर रहने वाले,
- राक्षसों का भक्षण करूंगी,
- उस समय सब मुनि,
- भक्ति से नतमस्तक होकर,
- मेरी स्तुति करेंगे।
52.
हिमालय पर रहने वाले राक्षसों का संहार करने के कारण, देवी का भीमादेवी नाम
भीमा देवीति विख्यातं तन्मे नाम भविष्यति।
यदारुणाख्यस्त्रैलोक्ये महाबाधां करिष्यति॥५२॥
- तब मेरा नाम,
- “भीमादेवी” के रूप में विख्यात होगा।
- जब अरुण नामक दैत्य,
- तीनों लोकों में भारी उपद्रव मचाएगा,
53.
अरुण नामक दैत्य का वध
तदाहं भ्रामरं रूपं कृत्वाऽसंख्येयषट्पदम्।
त्रैलोक्यस्य हितार्थाय वधिष्यामि महासुरम्॥५३॥
- तब मैं तीनों लोकों का हित करने के लिए,
- छ: पैरोंवाले असंख्य भ्रमरोंका रूप धारण करके,
- उस महादैत्य का वध करूंगी।
54.
देवी का भ्रामरी नाम
भ्रामरीति च मां लोकास्तदा स्तोष्यन्ति सर्वतः।
इत्थं यदा यदा बाधा दानवोत्था भविष्यति॥५४॥
- उस समय सब लोग,
- “भ्रामरी” के नाम से मेरी स्तुति करेंगे।
- इस प्रकार जब-जब संसार में,
- दानवी बाधा उपस्थित होगी –
55.
दुष्टों के संहार, और संसार की रक्षा के लिए, देवी का बार बार अवतार
तदा तदावतीर्याहं करिष्याम्यरिसंक्षयम्॥ॐ॥५५॥
- तब-तब अवतार लेकर,
- मैं दुष्टोंका संहार करूंगी।
देवी स्तुति नामक – दुर्गा सप्तशती का, ग्यारहवां अध्याय
इति श्रीमार्कण्डेयपुराणे सावर्णिके मन्वन्तरे देवीमाहात्म्ये
देव्याः स्तुतिर्नामैकादशोऽध्यायः॥११॥
- इस प्रकार श्रीमार्कंडेय पुराण में,
- सावर्णिक मन्वंतरकी कथा के अंतर्गत,
- देवी माहाम्य में,
- देवी स्तुति नामक,
- ग्यारहवां अध्याय पूरा हुआ।
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