दुर्गा सप्तशती अध्याय की लिस्ट – Index
दुर्गा सप्तशती अध्याय 4 में –
- इन्द्रादि देवताओं द्वारा देवीकी स्तुति
दुर्गा सप्तशती अध्याय 4 का ध्यान
॥ध्यानम्॥
ॐ कालाभ्राभां कटाक्षैररिकुलभयदां मौलिबद्धेन्दुरेखां
शड्खं चक्रं कृपाणं त्रिशिखमपि करैरुद्वहन्तीं त्रिनेत्राम्।
सिंहस्कन्धाधिरूढां त्रिभुवनमखिलं तेजसा पूरयन्तीं
ध्यायेद् दुर्गां जयाख्यां त्रिदशपरिवृतां सेवितां सिद्धिकामैः॥
ध्यान
- सिद्धिकी इच्छा रखनेवाले पुरुष,
- जिनकी सेवा करते हैं तथा
- देवता जिन्हें सब ओरसे घेरे रहते हैं,
- उन – जया – नामवाली दुर्गा देवीका ध्यान करे।
- उनके श्रीअंगोकी आभा,
- काले मेघके समान श्याम है।
- वे अपने कटाक्षोंसे,
- शत्रुसमूहको भय प्रदान करती हैं।
- उनके मस्तकपर,
- आबद्ध चन्द्रमाकी रेखा शोभा पाती है।
- वे अपने हाथोंमें,
- शुद्ध, चक्र, कृपाण और
- त्रिशूल धारण करती हैं।
- उनके तीन नेत्र हैं।
- वे सिंहके कंधेपर चढ़ी हुई हैं और
- अपने तेजसे,
- तीनों लोकोंको परिपूर्ण कर रही हैं।
दुर्गा सप्तशती अध्याय 4
ॐ ऋषिरुवाच॥१॥
शक्रादयः सुरगणा निहतेऽतिवीर्ये
तस्मिन्दुरात्मनि सुरारिबले च देव्या।
तां तुष्टुवुः प्रणतिनम्रशिरोधरांसा
वाग्भिः प्रहर्षपुलकोद्गमचारुदेहाः॥२॥
- ऋषि कहते हैं –
- अत्यन्त पराक्रमी दुरात्मा महिषासुर तथा
- उसकी दैत्य-सेनाके,
- देवीके हाथसे मारे जानेपर,
- इन्द्र आदि देवता प्रणामके लिये,
- गर्दन तथा कंधे झुकाकर,
- उन भगवती दुर्गा की उत्तम वचनोंद्वारा,
- स्तुति करने लगे।
- उस समय उनके सुन्दर अंगोमे,
- अत्यन्त हर्षके कारण रोमांच हो आया था।
देव्या यया ततमिदं जगदात्मशक्त्या
निश्शेषदेवगणशक्तिसमूहमूर्त्या।
तामम्बिकामखिलदेवमहर्षिपूज्यां
भक्त्या नताः स्म विदधातु शुभानि सा नः॥३॥
- देवता बोले –
- संपूर्ण देवताओंकी शक्तिका समुदाय ही,
- जिनका स्वरूप है तथा
- जिन देवीने अपनी शक्तिसे,
- संपूर्ण जगत्को व्याप्त कर रखा है,
- समस्त देवताओं और महर्षियोंकी पूजनीया
- उन जगदम्बाको,
- हम भक्तिपूर्वक नमस्कार करते हैं।
- वे हम लोगोंका कल्याण करें।।३।।
यस्याः प्रभावमतुलं भगवाननन्तो
ब्रह्मा हरश्च न हि वक्तुमलं बलं च।
सा चण्डिकाखिलजगत्परिपालनाय
नाशाय चाशुभभयस्य मतिं करोतु॥४॥
- जिनके अनुपम प्रभाव और
- बलका वर्णन करनेमें,
- भगवान् शेषनाग, ब्रह्माजी तथा
- महादेवजी भी समर्थ नहीं हैं,
- वे भगवती चण्डिका,
- सम्पूर्ण जगत्का पालन एवं
- अशुभ भयका नाश,
- करनेका विचार करें।
या श्रीः स्वयं सुकृतिनां भवनेष्वलक्ष्मीः
पापात्मनां कृतधियां हृदयेषु बुद्धिः।
श्रद्धा सतां कुलजनप्रभवस्य लज्जा
तां त्वां नताः स्म परिपालय देवि विश्वम्॥५॥
- जो पुण्यात्माओंके घरोंमें,
- स्वयं ही लक्ष्मीरूपसे,
- पापियोंके यहाँ,
- दरिद्रतारूपसे,
- शुद्ध अन्तःकरणवाले पुरूषोंके हृदयमें,
- बुद्धिरूपसे,
- सतपुरुषोंमें
- श्रद्धारूपसे तथा
- कुलीन मनुष्यमें,
- लज्जारूपसे निवास करती हैं,
- उन आप भगवती दुर्गाको,
- हम नमस्कार करते हैं।
- देवि! आप संपूर्ण विश्वका पालन कीजिये।
किं वर्णयाम तव रूपमचिन्त्यमेतत्
किं चातिवीर्यमसुरक्षयकारि भूरि।
किं चाहवेषु चरितानि तवाद्भुतानि
सर्वेषु देव्यसुरदेवगणादिकेषु॥६॥
- देवि! आपके इस अचिन्त्य रूपका,
- असुरोंका नाश करनेवाले भारी पराक्रमका तथा
- समस्त देवताओं और दैत्योंके समक्ष,
- युद्धमें प्रकट किये हुए,
- आपके अद्भुत चरित्रोंका,
- हम किस प्रकार वर्णन करें।
हेतुः समस्तजगतां त्रिगुणापि दोषैर्न
ज्ञायसे हरिहरादिभिरप्यपारा।
सर्वाश्रयाखिलमिदं जगदंशभूत-
मव्याकृता हि परमा प्रकृतिस्त्वमाद्या॥७॥
- आप संपूर्ण जगत्की उत्पत्तिमें कारण हैं।
- आपमें सत्त्वगुण, रजोगुण और
- तमोगुण – ये तीनों गुण मौजूद हैं;
- तो भी दोषोंके साथ,
- आपका संसर्ग नहीं जान पड़ता।
- भगवान् विष्णु और महादेवजी आदि देवता भी,
- आपका पार नहीं पाते।
- आप ही सबका आश्रय हैं।
- यह समस्त जगत् आपका अंशभूत है;
- क्योंकि आप सबकी आदिभूत अव्याकृता परा प्रकृति हैं।
यस्याः समस्तसुरता समुदीरणेन
तृप्तिं प्रयाति सकलेषु मखेषु देवि।
स्वाहासि वै पितृगणस्य च तृप्तिहेतु-
रुच्चार्यसे त्वमत एव जनैः स्वधा च॥८॥
- देवि! संपूर्ण यज्ञोंमें जिसके उच्चारणसे,
- सब देवता तृप्ति लाभ करते हैं,
- वह स्वाहा आप ही हैं।
- इसके अतिरिक्त आप पितरोंकी भी,
- तृप्तिका कारण हैं,
- अतएव सब लोग आपको,
- स्वधा भी कहते हैं।
या मुक्तिहेतुरविचिन्त्यमहाव्रता त्व*-
मभ्यस्यसे सुनियतेन्द्रियतत्त्वसारैः।
मोक्षार्थिभिर्मुनिभिरस्तसमस्तदोषै-
र्विर्द्यासि सा भगवती परमा हि देवि॥९॥
- देवि! जो मोक्षकी प्राप्तिका साधन है,
- अचित्य महाव्रत स्वरूपा है,
- समस्त दोषोंसे रहित, जितेन्द्रिय,
- तत्त्वको ही सार वस्तु माननेवाले तथा
- मोक्षकी अभिलाषा रखनेवाले मुनिजन,
- जिसका अभ्यास करते हैं,
- वह भगवती परा विद्या आप ही हैं।
शब्दात्मिका सुविमलर्ग्यजुषां निधान-
मुद्गीथरम्यपदपाठवतां च साम्नाम्।
देवी त्रयी भगवती भवभावनाय
वार्ता च सर्वजगतां परमार्तिहन्त्री॥१०॥
- आप शब्दस्वरूपा हैं,
- अत्यन्त निर्मल ऋग्वेद, यजुर्वेद तथा
- उद्गीथके मनोहर पदोंके पाठसे युक्त,
- सामवेदका भी आधार आप ही हैं।
- आप देवी, त्रयी (तीनों वेद) और
- भगवती (छहों ऐश्वर्योंसे युक्त) हैं।
- इस विश्वकी उत्पत्ति एवं पालनके लिये,
- आप ही वार्ता (खेती एवं आजीविका) के रूप में,
- प्रकट हुई हैं।
- आप सम्यूर्ण जगत्की घोर पीड़ाका,
- नाश करनेवाली हैं।
मेधासि देवि विदिताखिलशास्त्रसारा
दुर्गासि दुर्गभवसागरनौरसङ्गा।
श्रीः कैटभारिहृदयैककृताधिवासा
गौरी त्वमेव शशिमौलिकृतप्रतिष्ठा॥११॥
- देवि! जिससे समस्त शास्त्रोंके सारका ज्ञान होता है,
- वह मेधाशक्ति आप ही हैं।
- दुर्गम भवसागरसे पार उतारनेवाली,
- नौकारूप दुर्गादेवी भी आप ही हैं।
- आपकी कहीं भी आसक्ति नहीं है।
- कैटभके शत्रु,
- भगवान् विष्णुके वक्षःस्थलमें,
- एकमात्र निवास करनेवाली भगवती लक्ष्मी तथा
- भगवान् चन्द्रशेखर द्वारा सम्मानित,
- गौरी देवी भी आप ही हैं।
ईषत्सहासममलं परिपूर्णचन्द्र-
बिम्बानुकारि कनकोत्तमकान्तिकान्तम्।
अत्यद्भुतं प्रहृतमात्तरुषा तथापि
वक्त्रं विलोक्य सहसा महिषासुरेण॥१२॥
- आपका मुख,
- मन्द मुसकानसे सुशोभित,
- निर्मल, पूर्ण चन्द्रमाके बिम्बका अनुकरण करनेवाला और
- उत्तम सुवर्णकी मनोहर कान्तिसे कमनीय है;
- तो भी उसे देखकर महिषासुरको क्रोध हुआ और
- सहसा उसने उसपर प्रहार कर दिया,
- यह बड़े आश्चर्यकी बात है।
दृष्ट्वा तु देवि कुपितं भ्रुकुटीकराल-
मुद्यच्छशाङ्कसदृशच्छवि यन्न सद्यः।
प्राणान्मुमोच महिषस्तदतीव चित्रं
कैर्जीव्यते हि कुपितान्तकदर्शनेन॥१३॥
- देवि! वही मुख जब क्रोधसे युक्त होनेपर,
- उदयकालके चन्द्रमाकी भांति लाल और
- तनी हुई भौंहोंके कारण विकराल हो उठा,
- तब उसे देखकर,
- जो महिषासुरके प्राण,
- तुरंत नहीं निकल गये,
- यह उससे भी बढ़कर आश्चर्यकी बात है;
- क्योंकि क्रोधमें भरे हुए यमराजको देखकर
- भला कौन जीवित रह सकता है?।
देवि प्रसीद परमा भवती भवाय
सद्यो विनाशयसि कोपवती कुलानि।
विज्ञातमेतदधुनैव यदस्तमेत-
न्नीतं बलं सुविपुलं महिषासुरस्य॥१४॥
- देवि! आप प्रसन्न हों।
- परमात्मस्वरूपा, आपके प्रसत्र होनेपर,
- जगत्का अभुदय होता है और
- क्रोधमें भर जानेपर आप,
- तत्काल ही कितने कुलोंका,
- सर्वनाश कर डालती हैं,
- यह बात अभी अनुभवमें आयी है;
- क्योंकि महिषासुरकी यह विशाल सेना,
- क्षणभरमें आपके कोपसे नष्ट हो गयी है।
ते सम्मता जनपदेषु धनानि तेषां
तेषां यशांसि न च सीदति धर्मवर्गः।
धन्यास्त एव निभृतात्मजभृत्यदारा
येषां सदाभ्युदयदा भवती प्रसन्ना॥१५॥
- सदा अभ्युदय प्रदान करनेवाली,
- आप जिनपर प्रसन्न रहती हैं,
- वे ही देशमें सम्मानित हैं,
- उन्हींको धन और यशकी प्राप्ति होती है,
- उन्हींका धर्म कभी शिथिल नहीं होता तथा
- वे ही अपने हृष्ट-पुष्ट स्त्री, पुत्र और
- भाईयोके साथ धन्य माने जाते हैं।
धर्म्याणि देवि सकलानि सदैव कर्मा-
ण्यत्यादृतः प्रतिदिनं सुकृती करोति।
स्वर्गं प्रयाति च ततो भवतीप्रसादा-
ल्लोकत्रयेऽपि फलदा ननु देवि तेन॥१६॥
- देवि! आपकी ही कृपासे पुण्यात्मा पुरुष,
- प्रतिदिन अत्यन्त श्रद्धापूर्वक,
- सदा सब प्रकारके धर्मानुकूल कर्म करता है और
- उसके प्रभावसे स्वर्गलोकमें जाता है;
- इसलिये,
- आप तीनों लोकोंमें,
- निश्चय ही मनोवांछित फल देनेवाली हैं।
दुर्गे स्मृता हरसि भीतिमशेषजन्तोः
स्वस्थैः स्मृता मतिमतीव शुभां ददासि।
दारिद्र्यदुःखभयहारिणि का त्वदन्या
सर्वोपकारकरणाय सदाऽऽर्द्रचित्ता॥१७॥
- माँ दुर्गे! आप स्मरण करनेपर,
- सब प्राणियोंका भय हर लेती हैं और
- स्वस्थ पुरुषोंद्वारा चिन्तन करनेपर,
- उन्हें परम कल्याणमयी बुद्धि प्रदान करती हैं।
- दुःख, दरिद्रता और भय हरनेवाली देवि!
- आपके सिवा दूसरी कौन है,
- जिसका चित्त सबका उपकार करनेके लिये,
- सदा ही दयार्द्र रहता हो।
एभिर्हतैर्जगदुपैति सुखं तथैते
कुर्वन्तु नाम नरकाय चिराय पापम्।
संग्राममृत्युमधिगम्य दिवं प्रयान्तु
मत्वेति नूनमहितान् विनिहंसि देवि॥१८॥
- देवि! इन राक्षसोंके मारनेसे,
- संसारको सुख मिले तथा
- ये राक्षस चिरकालतक नरकमें रहनेके लिये भले ही पाप करते रहे हों,
- इस समय संग्राममें मृत्युको प्राप्त होकर,
- स्वर्गलोकमें जाये –
- निश्चय ही यही सोचकर,
- आप शत्रुओंका वध करती हैं।
दृष्ट्वैव किं न भवती प्रकरोति भस्म
सर्वासुरानरिषु यत्प्रहिणोषि शस्त्रम्।
लोकान् प्रयान्तु रिपवोऽपि हि शस्त्रपूता
इत्थं मतिर्भवति तेष्वपि तेऽतिसाध्वी॥१९॥
- आप शत्रुओंपर शस्त्रोंका प्रहार क्यों करती हैं?
- समस्त असुरोंको,
- दृष्टिपात मात्रसे ही भस्म क्यों नहीं कर देतीं?
- इसमें एक रहस्य है।
- ये शत्रु भी हमारे शस्त्रोंसे पवित्र होकर,
- उत्तम लोकोंमें जाये,
- इस प्रकार उनके प्रति भी आपका विचार अत्यन्त उत्तम रहता है।
खड्गप्रभानिकरविस्फुरणैस्तथोग्रैः
शूलाग्रकान्तिनिवहेन दृशोऽसुराणाम्।
यन्नागता विलयमंशुमदिन्दुखण्ड-
योग्याननं तव विलोकयतां तदेतत्॥२०॥
- खड्गके तेज-पूंजकी भयंकर दीप्तिसे तथा
- आपके त्रिशूलके अग्रभागकी घनीभूत प्रभासे चौंधियाकर,
- जो असुरोंकी आँखे फूट नहीं गयीं,
- उसमें कारण यही था कि
- वे मनोहर रश्मियोंसे युक्त,
- चन्द्रमाके समान आनन्द प्रदान करनेवाले,
- आपके इस सुन्दर मुखका दर्शन करते थे।
दुर्वृत्तवृत्तशमनं तव देवि शीलं
रूपं तथैतदविचिन्त्यमतुल्यमन्यैः।
वीर्यं च हन्तृ हृतदेवपराक्रमाणां
वैरिष्वपि प्रकटितैव दया त्वयेत्थम्॥२१॥
- देवि! आपका शील,
- दुराचारियोंके बुरे बर्तावको दूर करनेवाला है।
- साथ ही यह रूप ऐसा है,
- जो कभी चिन्तनमें भी नहीं आ सकता और
- जिसकी कभी दूसरोंसे तुलना भी नहीं हो सकती;
- तथा आपका बल और पराक्रम तो,
- उन दैत्योंका भी नाश करनेवाला है,
- जो कभी देवताओंके पराक्रमको भी नष्ट कर चुके थे।
- इस प्रकार आपने शत्रुओंपर भी,
- अपनी दया ही प्रकट की है।
केनोपमा भवतु तेऽस्य पराक्रमस्य
रूपं च शत्रुभयकार्यतिहारि कुत्र।
चित्ते कृपा समरनिष्ठुरता च दृष्टा
त्वय्येव देवि वरदे भुवनत्रयेऽपि॥२२॥
- वरदायिनी देवि!
- आपके इस पराक्रमकी,
- किसके साथ तुलना हो सकती है तथा
- शत्रुओंको भय देनेवाला एवं
- अत्यन्त मनोहर ऐसा रूप भी,
- आपके सिवा और कहाँ है?
- हृदयमें कृपा और
- युद्धमें निष्ठुरता,
- ये दोनों बातें, तीनों लोकोंके भीतर,
- केवल आपमें ही देखी गयी हैं।
त्रैलोक्यमेतदखिलं रिपुनाशनेन
त्रातं त्वया समरमूर्धनि तेऽपि हत्वा।
नीता दिवं रिपुगणा भयमप्यपास्त-
मस्माकमुन्मदसुरारिभवं नमस्ते॥२३॥
- मात:! आपने शत्रुओंका नाश करके,
- इस समस्त त्रिलोकीकी रक्षा की है।
- उन शत्रुओंको भी युद्धभूमिमें मारकर,
- स्वर्गलोकमें पहुँचाया है तथा
- उन्मत्त दैत्योंसे प्राप्त होनेवाले,
- हम लोगोंके भयको भी दूर कर दिया है,
- आपको हमारा नमस्कार है।
शूलेन पाहि नो देवि पाहि खड्गेन चाम्बिके।
घण्टास्वनेन नः पाहि चापज्यानिःस्वनेन च॥२४॥
- देवि!
- आप शूलसे हमारी रक्षा करें।
- अम्बिके!
- आप खड़गसे भी हमारी रक्षा करें तथा
- घण्टाकी ध्वनि और धनुषकी टंकारसे भी,
- हम लोगोंकी रक्षा करें।
प्राच्यां रक्ष प्रतीच्यां च चण्डिके रक्ष दक्षिणे।
भ्रामणेनात्मशूलस्य उत्तरस्यां तथेश्वरि॥२५॥
- चण्डिके!
- पूर्व, पश्चिम और दक्षिण दिशामें,
- आप हमारी रक्षा करें तथा
- ईश्वरि!
- अपने त्रिशूलको घुमाकर,
- आप उत्तर दिशामें भी हमारी रक्षा करें।
सौम्यानि यानि रूपाणि त्रैलोक्ये विचरन्ति ते।
यानि चात्यर्थघोराणि तै रक्षास्मांस्तथा भुवम्॥२६॥
- तीनों लोकोंमें आपके जो परम सुन्दर एवं
- अत्यन्त भयंकर रूप विचरते रहते हैं,
- उनके द्वारा भी आप,
- हमारी तथा इस भूलोककी रक्षा करें।
खड्गशूलगदादीनि यानि चास्त्राणी तेऽम्बिके।
करपल्लवसङ्गीनि तैरस्मान् रक्ष सर्वतः॥२७॥
- अम्बिके!
- आपके करमें शोभा पानेवाले,
- खड़ग, शूल और गदा आदि जो-जो अस्त्र हों,
- उन सबके द्वारा आप,
- सब ओरसे हमलोगोंकी रक्षा करें।
ऋषिरुवाच॥२८॥
एवं स्तुता सुरैर्दिव्यैः कुसुमैर्नन्दनोद्भवैः।
अर्चिता जगतां धात्री तथा गन्धानुलेपनैः॥२९॥
- ऋषि कहते हैं –
- इस प्रकार जब देवताओंने,
- जगन्माता दुर्गाकी स्तुति की और
- नन्दनवनके दिव्य पुष्पों एवं गन्ध-चन्दन आदिके द्वारा
- उनका पूजन किया,
भक्त्या समस्तैस्त्रिदशैर्दिव्यैर्धूपैस्तु* धूपिता।
प्राह प्रसादसुमुखी समस्तान् प्रणतान् सुरान्॥३०॥
- फिर सबने मिलकर जब भक्तिपूर्वक,
- दिव्य धूपोंकी सुगन्ध निवेदन की,
- तब देवीने प्रसत्रवदन होकर,
- प्रणाम करते हुए सब देवताओंसे कहा।
देव्युवाच॥३१॥
व्रियतां त्रिदशाः सर्वे यदस्मत्तोऽभिवाञ्छितम्*॥३२॥
- देवी बोलीं – देवताओ!
- तुम सब लोग,
- मुझसे जिस वस्तुकी अभिलाषा रखते हो, उसे माँगो।
देवा ऊचुः॥३३॥
भगवत्या कृतं सर्वं न किंचिदवशिष्यते॥३४॥
- देवता बोले –
- भगवतीने हमारी सब इच्छा पूर्ण कर दी,
- अब कुछ भी बाकी नहीं है।
यदयं निहतः शत्रुरस्माकं महिषासुरः।
यदि चापि वरो देयस्त्वयास्माकं महेश्वरि॥३५॥
- क्योंकि हमारा यह शत्रु,
- महिषासुर मारा गया।
- महेश्वरि!
- इतनेपर भी यदि आप हमें और वर देना चाहती हैं।
संस्मृता संस्मृता त्वं नो हिंसेथाः परमापदः।
यश्च मर्त्यः स्तवैरेभिस्त्वां स्तोष्यत्यमलानने॥३६॥
- तो हम जब-जब आपका स्मरण करें,
- तब-तब आप दर्शन देकर,
- हम लोगोंके महान् संकट दूर कर दिया करें तथा
तस्य वित्तर्द्धिविभवैर्धनदारादिसम्पदाम्।
वृद्धयेऽस्मत्प्रसन्ना त्वं भवेथाः सर्वदाम्बिके॥३७॥
- प्रसत्रमुखी अम्बिके!
- जो मनुष्य इन स्तोत्रोंद्वारा आपकी स्तुति करे,
- उसे वित्त, समृद्धि और वैभव देनेके साथ ही,
- उसकी धन आदि सम्पत्तिको भी बढ़ानेके लिये,
- आप सदा हमपर प्रसत्र रहें।
ऋषिरुवाच॥३८॥
इति प्रसादिता देवैर्जगतोऽर्थे तथाऽऽत्मनः।
तथेत्युक्त्वा भद्रकाली बभूवान्तर्हिता नृप॥३९॥
- ऋषि कहते हैं – राजन्!
- देवताओंने जब अपने तथा जगत्के कल्याणके लिये,
- भद्रकाली देवीको इस प्रकार प्रसन्न किया,
- तब वे “तथास्तु” कहकर वहीं अन्तर्धान हो गयीं।
इत्येतत्कथितं भूप सम्भूता सा यथा पुरा।
देवी देवशरीरेभ्यो जगत्त्रयहितैषिणी॥४०॥
- भूपाल! इस प्रकार पूर्वकालमें,
- तीनों लोकोंका हित चाहनेवाली देवी,
- जिस प्रकार देवताओंके शरीरोंसे प्रकट हुई थीं,
- वह सब कथा मैंने कह सुनायी।
पुनश्च गौरीदेहात्सा* समुद्भूता यथाभवत्।
वधाय दुष्टदैत्यानां तथा शुम्भनिशुम्भयोः॥४१॥
- अब पुन: देवताओंका उपकार करनेवाली वे देवी,
- दुष्ट दैत्यों तथा शुम्भ-निशुम्भका वध करने एवं
रक्षणाय च लोकानां देवानामुपकारिणी।
तच्छृणुष्व मयाऽऽख्यातं यथावत्कथयामि ते॥ह्रीं ॐ॥४२॥
- सब लोकोंकी रक्षा करनेके लिये,
- गौरीदेवीके शरीरसे जिस प्रकार प्रकट हुई थीं,
- वह सब प्रसंग मेरे मुँहसे सुनो।
- मैं उसका तुमसे यथावत् वर्णन करता हूँ।
इति श्रीमार्कण्डेयपुराणे सावर्णिके मन्वन्तरे देवीमाहात्म्ये
शक्रादिस्तुतिर्नाम चतुर्थोऽध्यायः॥४॥
- इस प्रकार श्रीमार्कंडेय पुराण में,
- सावर्णिक मन्वंतर की कथा के अंतर्गत,
- देवी-महात्म्य में चौथा अध्याय पूरा हुआ।
Next.. (आगे पढें ..) – Durga Saptashati – 5
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