Devi Kavach – Durga Kavach – Meaning in Hindi
देवी कवच अध्याय के मुख्य प्रसंग
- देवी कवच विनियोग
- दुर्गा कवच का पाठ क्यों करना चाहिए
- देवियोंके के विभिन्न वाहन और देवीके स्वरुप
- देवी कवच आरम्भ करने से पहले प्रार्थना
- देवी कवच आरम्भ
- देवी कवच पाठ के लाभ
देवी कवच विनियोग
अथ देवी कवच
ॐ अस्य श्रीचण्डीकवचस्य ब्रह्मा ऋषिः,
अनुष्टुप् छन्दः, चामुण्डा देवता,
अङ्गन्यासोक्तमातरो बीजम्,
दिग्बन्धदेवतास्तत्त्वम्, श्रीजगदम्बाप्रीत्यर्थे
सप्तशतीपाठाङ्गत्वेन जपे विनियोगः।
ॐ नमश्चण्डिकायै॥
- ॐ इस श्रीचण्डीकवचके,
- ब्रह्मा ऋषि,
- अनुष्टुप् छन्द,
- चामुण्डा देवता,
- अङ्गन्यासमें कही गई माताएं बीज,
- दिग्बन्ध देवता तत्व है,
- श्रीजगदम्बाजी की कृपा के लिए
- सप्तशती के पाठ के जपमें,
- इसका विनियोग किया जाता है।
ॐ चण्डिका देवीको नमस्कार है।
देवी कवच का पाठ क्यों करना चाहिए
1.
मनुष्योंकी सब प्रकारसे, रक्षा करनेवाला, दुर्गा कवच
मार्कण्डेय उवाच –
ॐ यद्गुह्यं परमं लोके सर्वरक्षाकरं नृणाम्।
यन्न कस्यचिदाख्यातं तन्मे ब्रूहि पितामह॥१॥
- मार्कण्डेयजीने कहा – पितामह!
- जो इस संसारमें परम गोपनीय तथा
- मनुष्योंकी सब प्रकारसे रक्षा करनेवाला है और
- जो अबतक आपने,
- दूसरे किसीके सामने प्रकट नहीं किया हो,
- ऐसा कोई साधन मुझे बताइये॥१॥
2.
सभी प्राणियोंका का उपकार करनेवाला, और पवित्र, देवी कवच
ब्रह्मोवाच –
अस्ति गुह्यतमं विप्र सर्वभूतोपकारकम्।
देव्यास्तु कवचं पुण्यं तच्छृणुष्व महामुने॥२॥
- ब्रह्माजी बोले – ब्रह्मन्!
- ऐसा साधन तो,
- एक देवीका कवच ही है,
- जो गोपनीयसे भी परम गोपनीय,
- पवित्र तथा
- सम्पूर्ण प्राणियोंका उपकार करनेवाला है।
- महामुने! उसे श्रवण करो॥२॥
3.
1. शैलपुत्री, 2. ब्रह्मचारिणी, 3. चन्द्रघण्टा, 4. कूष्माण्डा
प्रथमं शैलपुत्री च द्वितीयं ब्रह्मचारिणी।
तृतीयं चन्द्रघण्टेति कूष्माण्डेति चतुर्थकम्॥३॥
- देवीकी नौ मूर्तियाँ हैं,
- जिन्हें – नवदुर्गा – कहते हैं।
- उनके पृथक्-पृथक् नाम बतलाये जाते हैं।
- प्रथम नाम
- शैलपुत्री है।
- दूसरी मूर्तिका नाम
- ब्रह्मचारिणी है।
- तीसरा स्वरूप
- चन्द्रघण्टा के नामसे प्रसिद्ध है।
- चौथी मूर्तिको
- कूष्माण्डा कहते हैं।
4.
5. स्कन्दमाता, 6. कात्यायनी, 7. कालरात्रि, 8. महागौरी
पञ्चमं स्कन्दमातेति षष्ठं कात्यायनीति च।
सप्तमं कालरात्रीति महागौरीति चाष्टमम्॥४॥
- पाँचवीं दुर्गाका नाम
- स्कन्दमाता है।
- देवीके छठे रूपको
- कात्यायनी कहते हैं।
- सातवाँ
- कालरात्रि और
- आठवाँ स्वरूप
- महागौरी के नामसे
- प्रसिद्ध है।
5.
9. सिद्धिदात्री
नवमं सिद्धिदात्री च नवदुर्गाः प्रकीर्तिताः।
उक्तान्येतानि नामानि ब्रह्मणैव महात्मना॥५॥
- नवीं दुर्गाका नाम
- सिद्धिदात्री है।
- ये सब नाम,
- सर्वज्ञ महात्मा वेदभगवान्के द्वारा ही,
- प्रतिपादित हुए हैं॥५॥
6 – 7.
देवीकी कृपा से, सारे दुःख और संकट, दूर हो जाते है, और, भय नहीं लगता
अग्निना दह्यमानस्तु शत्रुमध्ये गतो रणे।
विषमे दुर्गमे चैव भयार्ताः शरणं गताः॥६॥
न तेषां जायते किंचिदशुभं रणसंकटे।
नापदं तस्य पश्यामि शोकदुःखभयं न हि॥७॥
- जो मनुष्य अग्निमें जल रहा हो,
- रणभूमिमें शत्रुओंसे घिर गया हो,
- विषम संकटमें फँस गया हो तथा
- इस प्रकार भयसे आतुर होकर
- जो भगवती दुर्गाकी शरणमें प्राप्त हुए हों,
- उनका कभी कोई अमंगल नहीं होता॥६॥
- युद्धके समय संकटमें पड़नेपर भी,
- उनके ऊपर कोई विपत्ति नहीं आती और
- उन्हें शोक, दुःख और
- भयकी प्राप्ति नहीं होती॥७॥
8.
देवी का चिंतन करनेवालों की, देवी सदैव रक्षा करती है
यैस्तु भक्त्या स्मृता नूनं तेषां वृद्धिः प्रजायते।
ये त्वां स्मरन्ति देवेशि रक्षसे तान्न संशयः॥८॥
- जिन्होंने,
- भक्तिपूर्वक देवीका स्मरण किया है,
- उनका निश्चय ही अभ्युदय होता है।
- देवेश्वरि!
- जो तुम्हारा चिन्तन करते हैं,
- उनकी तुम निःसन्देह रक्षा करती हो॥८॥
देवियोंके के विभिन्न वाहन और देवीके स्वरुप
9.
चामुण्डादेवी, वाराही, ऐन्द्री, वैष्णवीदेवी
प्रेतसंस्था तु चामुण्डा वाराही महिषासना।
ऐन्द्री गजसमारूढा वैष्णवी गरुडासना॥९॥
- चामुण्डादेवी,
- प्रेतपर आरूढ़ होती हैं।
- वाराही,
- भैंसेपर सवारी करती हैं।
- ऐन्द्री का वाहन,
- ऐरावत हाथी है।
- वैष्णवीदेवी,
- गरुडपर ही आसन जमाती हैं॥९॥
10.
माहेश्वरी, कौमारीका, लक्ष्मीदेवी
माहेश्वरी वृषारूढा कौमारी शिखिवाहना।
लक्ष्मीः पद्मासना देवी पद्महस्ता हरिप्रिया॥१०॥
- माहेश्वरी,
- वृषभपर आरूढ़ होती हैं।
- कौमारी का वाहन,
- मयूर है।
- भगवान् विष्णुकी प्रियतमा लक्ष्मीदेवी,
- कमलके आसनपर विराजमान हैं और
- हाथोंमें कमल धारण किये हुए हैं॥१०॥
11.
ईश्वरीदेवी, ब्राह्मीदेवी
श्वेतरूपधरा देवी ईश्वरी वृषवाहना।
ब्राह्मी हंससमारूढा सर्वाभरणभूषिता ॥११॥
- वृषभपर आरूढ़ ईश्वरीदेवीने,
- श्वेत रूप धारण कर रखा है।
- ब्राह्मीदेवी,
- हंसपर बैठी हुई हैं और
- सब प्रकारके आभूषणोंसे विभूषित हैं॥११॥
12.
योगशक्तियोंसे सम्पन्न सभी देवी के रूप
इत्येता मातरः सर्वाः सर्वयोगसमन्विताः।
नानाभरणशोभाढ्या नानारत्नोपशोभिताः ॥१२॥
- इस प्रकार ये सभी माताएँ,
- सब प्रकारकी योगशक्तियोंसे सम्पन्न हैं।
- इनके सिवा और भी बहुत-सी देवियाँ हैं,
- जो अनेक प्रकारके आभूषणोंकी शोभासे युक्त तथा
- नाना प्रकारके रत्नोंसे सुशोभित हैं॥१२॥
13.
देवियोंके शस्त्र-धारण करने का उद्देश्य
दृश्यन्ते रथमारूढा देव्यः क्रोधसमाकुलाः।
शङ्खं चक्रं गदां शक्तिं हलं च मुसलायुधम्॥१३॥
- (देवियोंके शस्त्र-धारणका उद्देश्य श्लोक 13 – 15 में)
- ये सम्पूर्ण देवियाँ क्रोधमें भरी हुई हैं और
- भक्तोंकी रक्षाके लिये,
- रथपर बैठी दिखायी देती हैं।
- ये शंख, चक्र,
- गदा, शक्ति,
- हल और मुसल, और …
14.
भक्तों की रक्षा के लिए, देवी माँ के हाथों में, विभिन्न अस्त्र-शस्त्र
खेटकं तोमरं चैव परशुं पाशमेव च।
कुन्तायुधं त्रिशूलं च शार्ङ्गमायुधमुत्तमम्॥१४॥
- खेटक और तोमर,
- परशु तथा पाश,
- कुन्त और त्रिशूल एवं उत्तम
- शार्ङ्गधनुष आदि अस्त्र-शस्त्र,
- अपने हाथोंमें धारण करती हैं।
15.
देवी के अस्त्र शस्त्रों से, राक्षसों का संहार और, भक्तों की रक्षा
दैत्यानां देहनाशाय भक्तानामभयाय च।
धारयन्त्यायुधानीत्थं देवानां च हिताय वै॥१५॥
- दैत्योंके शरीरका नाश करना,
- भक्तोंको अभयदान देना और
- देवताओंका कल्याण करना –
- यही उनके शस्त्र-धारणका,
- उद्देश्य है॥१३-१५॥
16.
देवी कवच आरम्भ करने से पहले प्रार्थना
नमस्तेऽस्तु महारौद्रे महाघोरपराक्रमे ।
महाबले महोत्साहे महाभयविनाशिनि ॥१६॥
- कवच आरम्भ करनेके पहले,
- इस प्रकार प्रार्थना करनी चाहिये –
- महान् रौद्ररूप, अत्यन्त घोर पराक्रम,
- महान् बल और महान् उत्साहवाली देवि!
- तुम महान् भयका नाश करनेवाली हो,
- तुम्हें नमस्कार है॥१६॥
देवी कवच आरम्भ
17.
माँ जगदम्बा, ऐन्द्री (इन्द्रशक्ति), अग्निशक्ति
त्राहि मां देवि दुष्प्रेक्ष्ये शत्रूणां भयवर्धिनि।
प्राच्यां रक्षतु मामैन्द्री आग्नेय्यामग्निदेवता॥१७॥
- तुम्हारी ओर देखना भी कठिन है।
- शत्रुओंका भय बढ़ानेवाली जगदम्बिके!
- मेरी रक्षा करो।
- पूर्व दिशामें,
- ऐन्द्री (इन्द्रशक्ति),
- मेरी रक्षा करे।
- अग्निकोणमें,
- अग्निशक्ति, और… ॥१७॥
18.
वाराही, खड्गधारिणी, वारुणी और मृगवाहिनी
दक्षिणेऽवतु वाराही नैर्ऋत्यां खड्गधारिणी।
प्रतीच्यां वारुणी रक्षेद् वायव्यां मृगवाहिनी॥१८॥
- दक्षिण दिशामें,
- वाराही तथा
- नैर्ऋत्यकोणमें,
- खड्गधारिणी,
- मेरी रक्षा करे।
- पश्चिम दिशामें,
- वारुणी और
- वायव्यकोणमें,
- मृगपर सवारी करनेवाली देवी,
- मेरी रक्षा करे॥१८॥
19.
कौमारी, शूलधारिणीदेवी, ब्रह्माणि, वैष्णवीदेवी
उदीच्यां पातु कौमारी ऐशान्यां शूलधारिणी।
ऊर्ध्वं ब्रह्माणि मे रक्षेदधस्ताद् वैष्णवी तथा॥१९॥
- उत्तर दिशामें,
- कौमारी और
- ईशान-कोणमें,
- शूलधारिणीदेवी,
- रक्षा करे।
- ब्रह्माणि,
- तुम ऊपरकी ओरसे मेरी रक्षा करो और
- वैष्णवीदेवी,
- नीचेकी ओरसे,
- मेरी रक्षा करे॥१९॥
20.
चामुण्डादेवी, जया, विजया
एवं दश दिशो रक्षेच्चामुण्डा शववाहना।
जया मे चाग्रतः पातु विजया पातु पृष्ठतः॥२०॥
- इसी प्रकार शवको अपना वाहन बनानेवाली,
- चामुण्डादेवी,
- दसों दिशाओंमें,
- मेरी रक्षा करे।
- जया,
- आगेसे और
- विजया,
- पीछेकी ओरसे,
- मेरी रक्षा करे॥२०॥
21.
अजिता, अपराजिता, उद्योतिनी
अजिता वामपार्श्वे तु दक्षिणे चापराजिता।
शिखामुद्योतिनी रक्षेदुमा मूर्ध्नि व्यवस्थिता॥२१॥
- वामभागमें,
- अजिता और
- दक्षिणभागमें,
- अपराजिता,
- रक्षा करे।
- वामभाग अर्थात
- बाई ओर, बाएं तरफ
- उद्योतिनी,
- शिखाकी रक्षा करे।
- उमा,
- मेरे मस्तकपर विराजमान होकर,
- रक्षा करे॥२१॥
22.
मालाधरी, यशस्विनी देवी, त्रिनेत्रा, यमघण्टा देवी
मालाधरी ललाटे च भ्रुवौ रक्षेद् यशस्विनी।
त्रिनेत्रा च भ्रुवोर्मध्ये यमघण्टा च नासिके॥२२॥
- ललाटमें,
- मालाधरी रक्षा करे और
- यशस्विनीदेवी,
- मेरी भौंहोंका,
- संरक्षण करे।
- भौंहोंके मध्यभागमें,
- त्रिनेत्रा और
- नथुनोंकी,
- यमघण्टादेवी,
- रक्षा करे॥२२॥
23.
शंखिनी, द्वारवासिनी, कालिकादेवी, भगवती शांकरी
शङ्खिनी चक्षुषोर्मध्ये श्रोत्रयोर्द्वारवासिनी ।
कपोलौ कालिका रक्षेत्कर्णमूले तु शांकरी॥२३॥
- दोनों नेत्रोंके मध्यभागमें,
- शंखिनी और
- कानोंमें,
- द्वारवासिनी रक्षा करे।
- कालिकादेवी,
- कपोलोंकी तथा
- भगवती शांकरी,
- कानोंके मूलभागकी,
- रक्षा करे॥२३॥
24.
सुगन्धा, चर्चिका देवी, अमृतकला, सरस्वतीदेवी
नासिकायां सुगन्धा च उत्तरोष्ठे च चर्चिका।
अधरे चामृतकला जिह्वायां च सरस्वती॥२४॥
- नासिकामें,
- सुगन्धा और
- ऊपरके ओठमें,
- चर्चिकादेवी रक्षा करे।
- नीचेके ओठमें,
- अमृतकला तथा
- जिह्वामें,
- सरस्वतीदेवी,
- रक्षा करे॥२४॥
25.
कौमारी, चण्डिका, चित्रघण्टा, महामाया
दन्तान् रक्षतु कौमारी कण्ठदेशे तु चण्डिका।
घण्टिकां चित्रघण्टा च महामाया च तालुके॥२५॥
- कौमारी,
- दाँतोंकी और
- चण्डिका,
- कण्ठप्रदेशकी रक्षा करे।
- चित्रघण्टा,
- गलेकी घाँटीकी और
- महामाया,
- तालुमें रहकर,
- रक्षा करे॥२५॥
26.
कामाक्षी, सर्वमंगला, भद्रकाली, धनुर्धरी
कामाक्षी चिबुकं रक्षेद् वाचं मे सर्वमङ्गला।
ग्रीवायां भद्रकाली च पृष्ठवंशे धनुर्धरी॥२६॥
- कामाक्षी,
- ठोढ़ीकी और
- सर्वमंगला,
- मेरी वाणीकी रक्षा करे।
- भद्रकाली,
- ग्रीवामें (गलेमें) और
- धनुर्धरी,
- मेरुदण्ड (पृष्ठवंश) में रहकर,
- रक्षा करे॥२६॥
27.
नीलग्रीवा, नलकूबरी, खड्गिनी, वज्रधारिणी
नीलग्रीवा बहिःकण्ठे नलिकां नलकूबरी।
स्कन्धयोः खड्गिनी रक्षेद् बाहू मे वज्रधारिणी॥२७॥
- कण्ठके बाहरी भागमें,
- नीलग्रीवा और
- कण्ठकी नलीमें,
- नलकूबरी रक्षा करे।
- दोनों कंधोंमें,
- खड्गिनी और
- मेरी दोनों भुजाओंकी,
- वज्रधारिणी,
- रक्षा करे॥२७॥
28.
दण्डिनी, अम्बिका, शूलेश्वरी, कुलेश्वरी
हस्तयोर्दण्डिनी रक्षेदम्बिका चाङ्गुलीषु च।
नखाञ्छूलेश्वरी रक्षेत्कुक्षौ रक्षेत्कुलेश्वरी ॥२८॥
- दोनों हाथोंमें,
- दण्डिनी और
- अंगुलियोंमें,
- अम्बिका रक्षा करे।
- शूलेश्वरी,
- नखोंकी रक्षा करे।
- कुलेश्वरी,
- कुक्षि (पेट) में रहकर,
- रक्षा करे॥२८॥
29.
महादेवी, शोकविनाशिनी देवी, ललितादेवी, शूलधारिणी
स्तनौ रक्षेन्महादेवी मनः शोकविनाशिनी।
हृदये ललिता देवी उदरे शूलधारिणी॥२९॥
- महादेवी,
- दोनों स्तनोंकी और
- शोकविनाशिनीदेवी,
- मनकी रक्षा करे।
- ललितादेवी,
- हृदयमें और
- शूलधारिणी,
- उदरमें रहकर,
- रक्षा करे॥२९॥
30.
कामिनी, गुह्येश्वरी, पूतना और कामिका, महिषवाहिनी
नाभौ च कामिनी रक्षेद् गुह्यं गुह्येश्वरी तथा।
पूतना कामिका मेढ्रं गुदे महिषवाहिनी॥३०॥
- नाभिमें,
- कामिनी और
- गुह्यभागकी,
- गुह्येश्वरी रक्षा करे।
- पूतना और कामिका,
- लिंगकी और
- महिषवाहिनी,
- गुदाकी रक्षा करे॥३०॥
31.
भगवती, विन्ध्यवासिनी, महाबलादेवी
कट्यां भगवती रक्षेज्जानुनी विन्ध्यवासिनी।
जङ्घे महाबला रक्षेत्सर्वकामप्रदायिनी ॥३१॥
- भगवती,
- कटिभागमें और
- विन्ध्यवासिनी,
- घुटनोंकी रक्षा करे।
- सम्पूर्ण कामनाओंको देनेवाली महाबलादेवी
- दोनों पिण्डलियोंकी,
- रक्षा करे॥३१॥
32.
नारसिंही, तैजसीदेवी, श्रीदेवी, तलवासिनी
गुल्फयोर्नारसिंही च पादपृष्ठे तु तैजसी।
पादाङ्गुलीषु श्री रक्षेत्पादाधस्तलवासिनी ॥३२॥
- नारसिंही,
- दोनों घुट्ठियोंकी और
- तैजसीदेवी,
- दोनों चरणोंके पृष्ठभागकी रक्षा करे।
- श्रीदेवी,
- पैरोंकी अंगुलियोंमें और
- तलवासिनी,
- पैरोंके तलुओंमें रहकर रक्षा करे॥३२॥
33.
दंष्ट्राकराली देवी, ऊर्ध्वकेशिनी देवी, कौबेरी, वागीश्वरी देवी
नखान् दंष्ट्राकराली च केशांश्चैवोर्ध्वकेशिनी।
रोमकूपेषु कौबेरी त्वचं वागीश्वरी तथा॥३३॥
- अपनी दाढ़ोंके कारण,
- भयंकर दिखायी देनेवाली दंष्ट्राकरालीदेवी,
- नखोंकी और
- ऊर्ध्वकेशिनीदेवी,
- केशोंकी रक्षा करे।
- रोमावलियोंके छिद्रोंमें,
- कौबेरी और
- त्वचाकी,
- वागीश्वरीदेवी रक्षा करे॥३३॥
34.
पार्वतीदेवी, कालरात्रि, मुकुटेश्वरी
रक्तमज्जावसामांसान्यस्थिमेदांसि पार्वती ।
अन्त्राणि कालरात्रिश्च पित्तं च मुकुटेश्वरी॥३४॥
- पार्वतीदेवी,
- रक्त, मज्जा, वसा, मांस, हड्डी और
- मेदकी रक्षा करे।
- आँतोंकी,
- कालरात्रि और
- पित्तकी,
- मुकुटेश्वरी रक्षा करे॥३४॥
35.
पद्मावतीदेवी, चूडामणिदेवी, ज्वालामुखी, अभेद्यादेवी
पद्मावती पद्मकोशे कफे चूडामणिस्तथा।
ज्वालामुखी नखज्वालामभेद्या सर्वसंधिषु ॥३५॥
- मूलाधार आदि कमल-कोशोंमें,
- पद्मावतीदेवी और
- कफमें,
- चूडामणिदेवी स्थित होकर रक्षा करे।
- नखके तेजकी,
- ज्वालामुखी रक्षा करे।
- जिसका किसी भी अस्त्रसे,
- भेदन नहीं हो सकता,
- वह अभेद्यादेवी,
- शरीरकी समस्त संधियोंमें रहकर रक्षा करे॥३५॥
36.
ब्रह्माणि!, छत्रेश्वरी, धर्मधारिणी देवी
शुक्रं ब्रह्माणि मे रक्षेच्छायां छत्रेश्वरी तथा।
अहंकारं मनो बुद्धिं रक्षेन्मे धर्मधारिणी॥३६॥
- ब्रह्माणि,
- आप मेरे वीर्यकी रक्षा करें।
- छत्रेश्वरी,
- छायाकी तथा
- धर्मधारिणी-देवी,
- मेरे अहंकार, मन और
- बुद्धिकी रक्षा करे॥३६॥
37.
वज्रहस्तादेवी, भगवती कल्याणशोभना
प्राणापानौ तथा व्यानमुदानं च समानकम्।
वज्रहस्ता च मे रक्षेत्प्राणं कल्याणशोभना॥३७॥
- हाथमें वज्र धारण करनेवाली,
- वज्रहस्तादेवी,
- मेरे प्राण, अपान, व्यान, उदान और समान वायुकी रक्षा करे।
- कल्याणसे शोभित होनेवाली,
- भगवती कल्याणशोभना,
- मेरे प्राणकी रक्षा करे॥३७॥
38.
योगिनीदेवी, नारायणीदेवी
रसे रूपे च गन्धे च शब्दे स्पर्शे च योगिनी।
सत्त्वं रजस्तमश्चैव रक्षेन्नारायणी सदा॥३८॥
- रस, रूप, गन्ध, शब्द और स्पर्श – इन विषयोंका अनुभव करते समय,
- योगिनीदेवी रक्षा करे तथा
- सत्त्वगुण, रजोगुण और तमोगुणकी रक्षा सदा,
- नारायणीदेवी करे॥३८॥
39.
वाराही, वैष्णवी, लक्ष्मी
आयू रक्षतु वाराही धर्मं रक्षतु वैष्णवी।
यशः कीर्तिं च लक्ष्मीं च धनं विद्यां च चक्रिणी॥३९॥
- वाराही,
- आयुकी रक्षा करे।
- वैष्णवी,
- धर्मकी रक्षा करे तथा
- चक्रिणी (चक्र धारण करनेवाली) देवी,
- यश, कीर्ति, लक्ष्मी, धन तथा
- विद्याकी रक्षा करे॥३९॥
40.
इन्द्राणि, चंडिका, महालक्ष्मी, भैरवी
गोत्रमिन्द्राणि मे रक्षेत्पशून्मे रक्ष चण्डिके।
पुत्रान् रक्षेन्महालक्ष्मीर्भार्यां रक्षतु भैरवी॥४०॥
- इन्द्राणि,
- आप मेरे गोत्रकी रक्षा करें।
- चण्डिके!,
- तुम मेरे पशुओंकी रक्षा करो।
- महालक्ष्मी,
- पुत्रोंकी रक्षा करे और
- भैरवी,
- पत्नीकी रक्षा करे॥४०॥
41.
सुपथा, क्षेमकरी, महालक्ष्मी, विजयादेवी
पन्थानं सुपथा रक्षेन्मार्गं क्षेमकरी तथा।
राजद्वारे महालक्ष्मीर्विजया सर्वतः स्थिता॥४१॥
- मेरे पथकी,
- सुपथा तथा
- मार्गकी,
- क्षेमकरी रक्षा करे।
- राजाके दरबारमें,
- महालक्ष्मी रक्षा करे तथा
- सब ओर व्याप्त रहनेवाली,
- विजयादेवी,
- सम्पूर्ण भयोंसे,
- मेरी रक्षा करे॥४१॥
42.
पापनाशिनी देवी, मेरी सब ओर से रक्षा करों
रक्षाहीनं तु यत्स्थानं वर्जितं कवचेन तु।
तत्सर्वं रक्ष मे देवि जयन्ती पापनाशिनी॥४२॥
- देवि! जो स्थान कवचमें नहीं कहा गया है,
- अतएव रक्षासे रहित है,
- वह सब तुम्हारे द्वारा सुरक्षित हो;
- क्योंकि तुम विजयशालिनी और
- पापनाशिनी हो॥४२॥
देवी कवच पाठ के लाभ
43.
यात्रा के पहले दुर्गा कवच का पाठ
पदमेकं न गच्छेत्तु यदीच्छेच्छुभमात्मनः।
कवचेनावृतो नित्यं यत्र यत्रैव गच्छति॥४३॥
- यदि अपने शरीरका भला चाहे तो,
- मनुष्य बिना कवचके कहीं एक पग भी न जाय –
- कवचका पाठ करके ही यात्रा करे॥४३॥
- क्योंकि…
44.
धन लाभ, विजय और इच्छाओं की पूर्ति
तत्र तत्रार्थलाभश्च विजयः सार्वकामिकः।
यं यं चिन्तयते कामं तं तं प्राप्नोति निश्चितम्।
परमैश्वर्यमतुलं प्राप्स्यते भूतले पुमान्॥४४॥
- कवचके द्वारा,
- सब ओरसे सुरक्षित मनुष्य,
- जहाँ-जहाँ भी जाता है,
- वहाँ-वहाँ उसे धन-लाभ होता है तथा
- सम्पूर्ण कामनाओंकी सिद्धि करनेवाली,
- विजयकी प्राप्ति होती है।
- वह जिस-जिस वस्तुका चिन्तन करता है,
- उस-उसको निश्चय ही प्राप्त कर लेता है।
- वह पुरुष,
- इस पृथ्वीपर तुलनारहित,
- महान् ऐश्वर्यका भागी होता है॥४४॥
45.
पराजय, शोक और भय से मुक्ति
निर्भयो जायते मर्त्यः संग्रामेष्वपराजितः।
त्रैलोक्ये तु भवेत्पूज्यः कवचेनावृतः पुमान्॥४५॥
- कवचसे सुरक्षित मनुष्य,
- निर्भय हो जाता है।
- युद्धमें उसकी,
- पराजय नहीं होती तथा
- वह तीनों लोकोंमें,
- पूजनीय होता है॥४५॥
46 – 47.
नियमित, श्रद्धापूर्वक देवी कवच का पाठ
इदं तु देव्याः कवचं देवानामपि दुर्लभम्।
यः पठेत्प्रयतो नित्यं त्रिसन्ध्यं श्रद्धयान्वितः॥४६॥
दैवी कला भवेत्तस्य त्रैलोक्येष्वपराजितः।
जीवेद् वर्षशतं साग्रमपमृत्युविवर्जितः ॥४७॥
- देवीका यह कवच,
- देवताओंके लिये भी दुर्लभ है।
- जो प्रतिदिन नियमपूर्वक,
- तीनों संध्याओंके समय,
- श्रद्धाके साथ इसका पाठ करता है,
- उसे…॥४६॥
- दैवी कला प्राप्त होती है तथा
- वह तीनों लोकोंमें,
- कहीं भी पराजित नहीं होता।
- इतना ही नहीं, वह अपमृत्युसे रहित हो,
- सौ से भी अधिक वर्षोंतक जीवित रहता है॥४७॥
48.
सभी व्याधियों और रोगों से मुक्ति
नश्यन्ति व्याधयः सर्वे लूताविस्फोटकादयः।
स्थावरं जङ्गमं चैव कृत्रिमं चापि यद्विषम्॥४८॥
- उसकी सम्पूर्ण व्याधियाँ,
- नष्ट हो जाती हैं।
- सभी प्रकारके विष,
- दूर हो जाते हैं, और
- उनका कोई असर नहीं होता॥४८॥
49 – 50 – 51 – 52.
देवी कवच, सभी बुरी चीजों से रक्षा करता है
अभिचाराणि सर्वाणि मन्त्रयन्त्राणि भूतले।
भूचराः खेचराश्चैव जलजाश्चोपदेशिकाः ॥४९॥
सहजा कुलजा माला डाकिनी शाकिनी तथा।
अन्तरिक्षचरा घोरा डाकिन्यश्च महाबलाः॥५०॥
ग्रहभूतपिशाचाश्च यक्षगन्धर्वराक्षसाः ।
ब्रह्मराक्षसवेतालाः कूष्माण्डा भैरवादयः ॥५१॥
नश्यन्ति दर्शनात्तस्य कवचे हृदि संस्थिते।
मानोन्नतिर्भवेद् राज्ञस्तेजोवृद्धिकरं परम् ॥५२॥
- इस पृथ्वीपर,
- मारण-मोहन आदि जितने आभिचारिक प्रयोग होते हैं तथा
- इस प्रकारके जितने मन्त्र-यन्त्र होते हैं,
- वे सब इस कवचको हृदयमें धारण कर लेनेपर,
- उस मनुष्यको देखते ही नष्ट हो जाते हैं।
- ये ही नहीं,
- पृथ्वीपर विचरनेवाले ग्रामदेवता,
- आकाशचारी देवविशेष,
- जलके सम्बन्धसे प्रकट होनेवाले गण,
- उपदेशमात्रसे सिद्ध होनेवाले निम्नकोटिके देवता,
- अपने जन्मके साथ प्रकट होनेवाले देवता,
- कुलदेवता, माला (कण्ठमाला आदि),
- डाकिनी, शाकिनी,
- अन्तरिक्षमें विचरनेवाली अत्यन्त बलवती भयानक डाकिनियाँ,
- ग्रह, भूत, पिशाच,
- यक्ष, गन्धर्व, राक्षस,
- ब्रह्मराक्षस, बेताल, कूष्माण्ड और
- अनिष्टकारक देवता भी,
- हृदयमें कवच धारण किये रहनेपर,
- उस मनुष्यको देखते ही भाग जाते हैं।
- कवचधारी पुरुषको,
- राजासे सम्मान-वृद्धि प्राप्त होती है।
- यह कवच,
- मनुष्यके तेजकी वृद्धि करनेवाला और
- उत्तम है॥४९-५२॥
53 – 54.
सुयश, वृद्धि और परिवार के लिए देवी माँ का कवच
यशसा वर्धते सोऽपि कीर्तिमण्डितभूतले।
जपेत्सप्तशतीं चण्डीं कृत्वा तु कवचं पुरा॥५३॥
यावद्भूमण्डलं धत्ते सशैलवनकाननम् ।
तावत्तिष्ठति मेदिन्यां संततिः पुत्रपौत्रिकी॥५४॥
- कवचका पाठ करनेवाला पुरुष,
- अपनी कीर्तिसे विभूषित भूतलपर,
- अपने सुयशके साथ-साथ,
- वृद्धिको प्राप्त होता है।
- जो पहले कवचका पाठ करके,
- उसके बाद,
- सप्तशती चण्डीका पाठ करता है,
- उसकी जबतक,
- वन, पर्वत और काननों सहित,
- यह पृथ्वी टिकी रहती है,
- तबतक यहाँ,
- पुत्र-पौत्र आदि संतान परम्परा,
- बनी रहती है॥५३-५४॥
55.
परमपद की प्राप्ति
देहान्ते परमं स्थानं यत्सुरैरपि दुर्लभम्।
प्राप्नोति पुरुषो नित्यं महामायाप्रसादतः॥५५॥
- फिर देहका अन्त होनेपर,
- वह पुरुष,
- भगवती महामायाके प्रसादसे,
- उस नित्य परमपदको प्राप्त होता है,
- जो देवताओंके लिये भी दुर्लभ है॥५५॥
56.
भगवान् शिव के चरणों में जगह
लभते परमं रूपं शिवेन सह मोदते॥ॐ॥५६॥
- वह सुन्दर दिव्य रूप धारण करता और
- कल्याणमय शिवके साथ,
- आनन्दका भागी होता है॥५६॥
- इति देव्याः कवचं सम्पूर्णम्।